मुक्तिकामी चेतना के प्रतीक थे आजाद

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भगतसिंह, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, यशपाल, शिव वर्मा, जयदेव जैसे प्रखर क्रांतिकारी यदि आजाद को अपना नेता मानते थे, तो जरूर आजाद में ऐसा कुछ रहा होगा जो इन लोगों को उनके मार्गदर्शन में चलने को आश्वस्त करता होगा। त्यागपूरित अभिभावकत्व के गुण के चलते ही आजाद पूरे हिंदुस्तान के क्रांतिकारी संगठन के अगुआ थे।

आजाद कांग्रेसी नेताओं से वक्त-वक्त पर सहायता लेते रहते थे। बहुत से कांग्रेसी नेता क्रांतिकारियों के संपर्क में रहते भी थे। गणेशशंकर विद्यार्थी के क्रांतिकारियों से संबंध तो सर्वविदित हैं। आजाद को संपूर्णता में समझने के लिए हमें उनके सहयोगी क्रांतिकारियों के लिखे को पढ़ना होगा।

क्रांतिकारी यशपाल की सिंहावलोकन में पंडित मोतीलाल नेहरू और आजाद की मुलाकात का भी ज़िक्र आता है। यशपाल लिखते हैं कि “पंडित मोतीलाल ने आजाद को बुलाकर खाना खिलाया और बातचीत भी की थी। उस मुलाकात के समय पंडित जवाहरलाल जी की छोटी बहन कृष्णा भी थीं।”

एक बार आजाद ने क्रांतिकारी संगठन की आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए और क्रांतिकारियों की भावना से नेहरू को अवगत कराने के लिए यशपाल को उनके पास भेजा। यशपाल ने मुलाकात के समय रूस जाने की अपनी इच्छा का भी ज़िक्र किया। रूस जाने का उद्देश्य अनुभव प्राप्त करना था। इसके लिए उन्होंने नेहरू जी से आर्थिक सहायता का अनुरोध किया। हालांकि उस समय नेहरू भी आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे। पिता पंडित मोतीलाल नेहरू की मृत्यु हो चुकी थी और वे खुद वकालत छोड़ चुके थे। दूसरा कोई आय का साधन था नहीं। पैतृक संपत्ति भी धीरे-धीरे स्वतंत्रता आंदोलन की आहुति बनती जा रही थी। पत्नी का इलाज सो अलग। यशपाल आगे लिखते हैं – कुछ सोचकर नेहरू जी ने कहा – “आतंकवादी काम के लिए तो मैं कुछ भी सहायता नहीं करूँगा। हां, रूस जाने वाली बात के लिए मैं सोचूंगा।”

बकौल यशपाल नेहरू ने उनको रूस या विदेश जाने का सुझाव दिया, क्योंकि यहाँ वायसराय की ट्रेन के नीचे बम-विस्फोट का मुकदमा मेरे विरुद्ध था। उन्होंने पूछा कि इसके लिए कितना रुपया चाहिए। मैने अनुमान से पांच-छ हजार की रकम बता दी। नेहरू जी ने कहा – “इतना तो बहुत है पर जो कुछ हो सकेगा करूंगा और शिवमूर्ति सिंह की मार्फ़त उत्तर दूंगा।”

लौटकर मैने बातचीत का ब्यौरा आजाद को बताया तो उन्हें काफी संतोष हुआ। …… यशपाल आगे लिखते हैं कि लगभग तीसरे दिन शिवमूर्ति सिंह जी ने मुझे पंद्रह सौ रुपए देकर कहा कि शेष के लिए नेहरू जी प्रबंध कर रहे हैं।”

बताते हैं कि शहीद आजाद के मृत शरीर की तलाशी लिए जाने पर उनके पास से मिले 448 रुपये नेहरू द्वारा भिजवाए गए रुपये में से ही थे। यहां ये भी बता दें कि जब इलाहाबाद में आजाद के शहीद होने की ख़बर आई और यह भी पता चला कि अंग्रेज सरकार उनके मृत शरीर का जल्द से जल्द अंतिम संस्कार करने के लिए श्मशान घाट ले गई है। सरकार डर रही थी कि कहीं कोई जनविद्रोह न हो जाए।

कमला नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन ने आजाद के शरीर को हासिल करने की भी बहुत कोशिश की थी, ताकि आजाद का सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया जा सके। लेकिन अंग्रेजों को यह मंजूर न था। कमला नेहरू और टंडन जब तक आजाद के अंतिम दर्शन के लिए पहुंचते- तब तक चिता को अग्नि दी जा चुकी थी। बताते हैं कि बड़ी संख्या में लोग सरकार के आतंक को नकारते हुए आजाद के अंतिम दर्शनों के लिए इकट्ठा हुए और चिता की भस्म को चुटकी-चुटकी श्रद्धा से उठा ले गए।

कमला नेहरू ने आजाद की स्मृति में एक सभा की जिसमें उन्होंने स्वयं, टंडन जी और क्रांतिकारी शचींद्र नाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने संबोधित किया। खुद को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले संगठन से श्रद्धांजलि के दो शब्द भी न बोले गए।

आजाद की मुखबिरी उनके ही दल के वीरभद्र तिवारी ने की थी। तब के पुलिस रिकार्ड में वीरभद्र तिवारी का ही नाम दर्ज है। इस मुठभेड़ से पहले खुद आजाद वीरभद्र को देख सशंकित हुए थे। बाद में क्रांतिकारी रमेश चंद्र गुप्ता ने वीरभद्र को उसके किए की सजा देने के लिए उरई जाकर उसको मारने का निश्चय किया। गुप्ता ने वीरभद्र पर गोली भी चलाई लेकिन वह बच गया और रमेश चंद्र गुप्ता गिरफ्तार कर लिए गए।

इस मुखबिरी को लेकर एक विशेष संगठन द्वारा नेहरू का नाम लिया जाता है। जबकि तथ्य यह है कि उस दिन जवाहरलाल से आजाद की मुलाकात तक न हुई थी। जवाहरलाल उस दिन इलाहाबाद में थे ही नहीं। चरित्र हनन इनकी पुरानी फितरत है। किसी क्रांतिकारी ने नेहरू का नाम तक न लिया, लेकिन यह संगठन शुरू से लांक्षना की राजनीति करता रहा। कुछ लोग यशपाल को भी इसमें घसीटते हैं जबकि अगर यशपाल होते तो क्या अन्य क्रांतिकारियों को इसका पता न चलता?

अगर ऐसा होता तो जो गोली वीरभद्र पर चली वह यशपाल पर भी चलती। ध्यान रहे कि यशपाल आजाद के बाद क्रांतिकारी धर्म से विमुख नहीं हुए बल्कि क्रांति की ज्वाला को धधकाते रहे। वे हिसप्रस के अगले मुखिया बने। यह पद कोई सत्ता के आकर्षण से युक्त न था, यहां तो प्रतिपल मौत का खतरा था। यह घटिया राजनीति है राष्ट्रनायकों के साथ।

आजाद हर समय संगठन और अपने साथियों के लिए चिंतित रहते थे। एक बार आर्थिक सहायता के लिए आजाद ने यशपाल को सावरकर बंधुओं के पास भी भेजा था। पर सावरकर बंधु ने जिन्ना की हत्या की शर्त पर सहायता करने की बात कही, जिसे यशपाल ने ठुकरा दिया। वहां से लौटने के बाद आजाद ने यशपाल के निर्णय को सही बताया। आजाद का कहना था कि हम क्रांतिकारी हैं, हमारे मानवतावादी सिद्धांत हैं। हम कोई पेशेवर हत्यारे नहीं हैं।

आजाद या कोई भी क्रांतिकारी सामान्य परिस्थितियों में मानव हत्या को उचित नहीं मानते थे। सांडर्स हत्या में भगतसिंह का पीछा करने वाले चानन सिंह को आजाद द्वारा बार-बार आगे न बढ़ने की चेतावनी दिए जाने पर भी, जब वह नहीं माना तो आजाद को विवश हो उस पर गोली चलानी पड़ी। आजाद के एक ही निशाने पर वह ढेर हो गया। यशपाल बताते हैं कि उस रात आजाद चानन सिंह के परिवार के बारे में सोचकर बहुत दुखी हो गए थे। वे रात भर सो न सके। मानव हत्या पर उनका अति दुखी हो जाना बताता है कि वे कितने उच्च मानवीय मूल्यों से संपृक्त थे।

आजाद खुद भूखे रह जाते थे, पर अपने साथियों का भूखा रहना उनसे देखा न जाता था। वे उनके खाने और कपड़ों की व्यवस्था के लिए हमेशा सजग रहते थे। क्रांतिकारी शिव वर्मा अपनी किताब में आजाद के बारे में विस्तार से लिखते हैं। वे लिखते हैं कि आजाद हमारे सेनापति ही नहीं थे। वे हमारे परिवार के अग्रज भी थे, जिन्हें हर साथी की छोटी-से-छोटी आवश्यकता का ध्यान रहता था। मोहन (बी.के.दत्त) की दवाई नहीं आई, हरीश (जयदेव) को कमीज की आवश्यकता है, रघुनाथ (राजगुरु) के पास जूता नहीं रहा, बच्चू (विजय) का स्वास्थ्य ठीक नहीं है आदि उनकी रोज की चिंताएं थीं।

दिल्ली में जब निश्चित रूप से यह फैसला हो गया कि भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ही असेंबली में बम फेंकने जाएंगे, तो मुझे और जयदेव को छोड़कर बाकी सब साथियों को आदेश दिया गया कि वे दिल्ली से बाहर चले जाएं। आजाद को झांसी जाना था। जब वे चलने लगे, तो मैं स्टेशन तक उनके साथ हो लिया। रास्ते मे बोले,”प्रभात! अब कुछ ही दिनों में ये दोनों (उनका मतलब भगतसिंह और दत्त से था) देश की संपत्ति हो जाएंगे। तब हमारे पास इनकी याद भर रह जाएगी। तब तक के लिए मेहमान समझकर इनकी आराम-तकलीफ का ध्यान रखना।”

उस दिन रास्ते भर वे भगतसिंह और दत्त की ही बातें करते रहे। वे भगतसिंह को इस काम के लिए भेजने के पक्ष में नहीं थे। सुखदेव और भगतसिंह की जिद के सामने सर झुकाकर ही उन्होंने वह फैसला स्वीकार किया था, लेकिन अंदर से भगतसिंह को खोने के विचार से दुखी थे………कुछ और प्रसंगों का हवाला देते हुए आगे शिव वर्मा लिखते हैं कि असेंबली बम कांड के कुछ दिनों बाद मैं आजाद से झांसी में फिर मिला।……..

झांसी केंद्र पर उस दिन काफी भीड़ थी। आजाद, भगवानदास माहौर, सदाशिवराज मलकापुरकर, वैशम्पायन और बाहर से राजगुरु तथा कुंदनलाल भी आ गए थे। मेरे पहुंचने पर सभी साथियों ने मुझे घेर लिया। सभी लोग दिल्ली के बारे में अधिक से अधिक जानने के लिए उत्सुक थे। खासकर दत्त और भगतसिंह के बारे में। हम लोग आजाद को घेरकर बैठ गए। बातें होने लगी। मैं अपने साथ दत्त और भगतसिंह के चित्र ले गया था। उन्हें देखकर सभी साथियों की आँखों मे आंसू आ गए, लेकिन आजाद अपने ऊपर काबू किये बैठे रहे। वे जानते थे कि उनका बांध टूटते देखकर लोग अपने आपको संभाल नहीं सकेंगे।

इसी बीच एक साथी किसी काम से उठकर कमरे से बाहर जाने लगा तो उसका पैर सामने पड़े अखबार पर पड़ गया, जिसे मैं अपने साथ ले गया था। उसमें हमारे दोनों साथियों के चित्र छपे थे। हम लोग बातों में काफी भूले हुए थे, लेकिन आजाद ने चित्रों पर पैर पड़ते देख लिया। वे गरज उठे। शांत वातावरण में अचानक उनका इस प्रकार उत्तेजित हो पड़ना किसी की समझ में नहीं आया। सब लोग उनकी ओर देखने लगे। उस साथी की भी समझ में कुछ नहीं आया। शीघ्र ही अपने पर काबू पाकर उन्होंने उसका हाथ पकड़कर अपने पास बिठला लिया। उनकी आँखों मे आंसू छलछला आए थे। बोले, “ये लोग अब देश की संपत्ति हैं! शहीद हैं! देश इनको पूजेगा। अब इनका दर्जा हम लोगों से बहुत ऊँचा है। इनके चित्रों पर पैर रखना देश की आत्मा को रौंदने के बराबर है”। कहते-कहते उनका गला भर आया।

शिव वर्मा बताते हैं कि दोनों योजनाओं पर (एक वायसराय पर एक्शन और दूसरी भगतसिंह को छुड़ाने की योजना) पर विचार-विमर्श के बाद आजाद ने दोनों साथियों को छुड़ाने की बात पर ही जोर दिया। तीसरे पहर बातचीत का क्रम समाप्त होने पर स्थानीय साथी अपने-अपने काम से चले गए और राजगुरु और कुंदनलाल भी जाकर लेट रहे। मुझे उसी रात वापस आना था। इसीलिए मैं उन्हीं के पास बैठा बातें करता रहा।

मेरी इच्छा वायसराय पर हाथ आजमाने की थी। यह काम अपेक्षाकृत आसान भी था। मैंने कहा कि यदि वे स्वीकृति दें, तो मैं और जयदेव मिलकर यह काम कर लेंगे। लेकिन आजाद दोनों साथियों को छुड़ाने के लिए अधिक उत्सुक थे। मेरी बात से वे काफी भावुक हो उठे। बोले, “अब मैं अलग-अलग साथियों को एक्शन में नहीं झोंकूगा” फिर कुछ रुककर बोले,” दल के सेनापति के नाते क्या मेरा यही काम है कि लगातार नए-नए साथी जमा करूं, उनसे अपनापन बढाऊँ और फिर योजना बनाकर अपने ही हाथों उन्हें मौत के हवाले कर दूं और मैं आराम से बैठकर आग में झोंकने के लिए नए सिरे से नया ईंधन बटोरना शुरू कर दूं” कहते-कहते उन्होंने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए।”

तो ऐसे थे अपने आजाद।

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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