भगत पूरन सिंह: मानव सेवा के अमिट हस्ताक्षर  

अमृतसर संसार के नक्शे पर इसलिए भी अलहदा है कि यहां महान भगत पूरन सिंह का ‘पिंगलवाड़ा’ है। इस पिंगलवाड़े को मानवता के महान तीर्थ स्थल का दर्जा हासिल है। हिंदुस्तान में यह अपने किस्म की इकलौती संस्था है और इसके संस्थापक भगत पूरन सिंह सरीखा भी दूसरा कोई नहीं हुआ। 4 जून, 1904 को लुधियाना की खन्ना तहसील के राजोवाल गांव में जन्म लेने और 5 अगस्त, 1992 को शरीर त्यागने वाले भगत पूरन सिंह की जीवन कहानी बेमिसाल और किवदंती जैसी है। 

जन्म के वक्त पिता छिब्बू मल और माता मेहताब कौर ने उन्हें रामजी दास नाम दिया था। बाद में रामजी दास, भगत बने, पूरन हुए और सिंह होकर (लोक सेवा की) गौरवशाली सिख रिवायत का अहम हिस्सा बने। उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव के सीनियर स्कूल में हुई। दसवीं जमात में पढ़ते हुए उनके पिता की मौत हो गई और अचानक आई मुसीबत ने पढ़ाई से किनारा करवा दिया। बदहाली के आलम में मां के साथ लाहौर चले गए। उनकी मां वहां लोगों के घरों में बर्तन मांजने का काम करने लगीं। 

नौकरी के लिए भगत पूरन सिंह, गुरु अर्जुन देव की याद में बने गुरुद्वारे डेहरा साहिब, लाहौर चले गए। यहां उन्होंने 24 साल नौकरी की और खालिस ‘भगत पूरन सिंह’ का जन्म यहीं 1934 में हुई एक घटना से हुआ। उन्हें एक दिन गुरुद्वारे के दरवाजे पर एक विकलांग, गूंगा-बहरा बच्चा मिला जो लावारिस था। इस बच्चे को गोद में लेते ही भगत जी के जीवन की दशा-दिशा बदल गई। इस बच्चे का नाम उन्होंने प्यारा सिंह रखा और पूरे 14 साल उसे अपनी गोद और कंधों में उठाकर घुमाया-फिराया।

बच्चे को मां और बाप, दोनों का स्नेह दिया। उसका पखाना-पेशाब अंत तक साफ करते रहे। तन-मन से परवरिश की। पिंगलवाड़ा सरीखी महान संस्था शुरू करने की प्रेरणा उन्हें प्यारा सिंह की देखरेख से हासिल हुई। उन्हीं प्यारा सिंह ने 1948 के आस-पास ऐतिहासिक पिंगलवाड़ा की नींव रखवाई गई। ताउम्र प्यारा सिंह को भगत जी रेहड़ी-रिक्शा खुद चला कर घुमाते रहे। ऐसी विलक्षण ‘सेवा-यात्रा’ के गवाह अमृतसर के लाखों बाशिंदे और रास्ते हैं।

1947 के विभाजन के बाद भगत जी लाहौर से जिस अमृतसर आए, वह भयावह दंगों की जबरदस्त चपेट में था। उन्हें बेसहारा और विकलांग दंगा-पीड़ितों की हालत देखकर गहरा आघात लगा। उनकी सेवा संभाल के लिए पहले-पहल उन्होंने अमृतसर के खालसा कॉलेज के सामने तंबू गाढ़कर तदर्थ आश्रम बनाया जिसे ‘पिंगलवाड़ा’ का नाम दिया। यहां वह हर घायल और मजलूम की दवा-पट्टी खुद किया करते थे। यहां तक कि कुष्ठ रोगियों की भी। उनका पखाना भी उठाते थे।

बाद में जीटी रोड स्थित तहसील के निकट ‘पिंगलवाड़ा’ की स्थापना की गई। इस पिंगलवाड़ा से रोज सुबह भगत पूरन सिंह, प्यारा सिंह को रिक्शा-रेहडी़ पर पर लिटा कर निकलते। शाम को लौटते तो तीन या चार विकलांग और लावारिस बच्चे साथ होते। यह उनका रोज का नियम रहा। सबसे पहले श्री हरमंदिर साहिब में मत्था टेकना और फिर वंचितों की तलाश करना। बीच रास्तों में वह लोगों को पर्यावरण, बढ़ती आबादी, गरीबी, साक्षरता, सड़क-रेल हादसों और बेरोजगारी से संबंधित पर्चे तथा पुस्तिकाएं बांटते जाते-जिन्हें बहुधा वह खुद लिखते थे।

कई बार हस्तलिखित प्रतियां बांटी जाती और लोग मिलजुल कर उन्हें पढ़ते। अमृतसर के बहुतेरे लोगों के लिए वह मसीहा और ‘धरती का रब्ब’ थे। पिंगलवाड़ा में रह रहे बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं और औरतों के लिए तो खैर थे ही थे। वह सारी जिंदगी ब्रह्मचारी रहे। अपाहिजों, रोगियों और वंचितों की सेवा में ही उनका पूरा जीवन बीता और यही उनका परिवार थे।

1981 में उन्हें पद्मश्री दिया गया। इसके अलावा उन्हें कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्यात सम्मान हासिल हुए। मदर टेरेसा से भी उनकी तुलना की गई। इसके वह सच्चे हकदार थे भी। वह सही मायनों में मानव सेवा के सच्चे पैरोकार तथा वातावरण प्रेमी थे। जनसेवा के इस महान प्रथम पुरुष ने 5 अगस्त, 1992 को अलविदा कहा। उनकी रोशनी आज भी कायम है और उनका बनाया मानवसेवा का पवित्रतम मंदिर ‘पिंगलवाड़ा’ भी।

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं।)  

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