जन्मदिन विशेष: मेरी हवाओं में रहेगी, ख़यालों की बिजली

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23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे-मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे; मेरा रंग दे बसन्ती चोला। माय रंग दे बसन्ती चोला! भगत सिंह अपने देश के अवाम के लिये ही जिये और उसी के लिए शहीद भी हो गये।

इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय ही भगतसिंह के साहस, शौर्य, दृढ़ सकंल्प और बलिदान की कहानियों से भरा पड़ा है। 23 वर्ष की उम्र में देश के लिए हंसते-हंसते शहीद हो जाने वाले भगत सिंह का नाम विश्व में 20वीं शताब्दी के अमर शहीदों में बहुत ऊंचा है।

भगत सिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस शौर्य, साहस और संजीदगी के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए आदर्श है।

उनकी इस बेमिसाल शहादत पर लाहौर के उर्दू दैनिक समाचारपत्र ‘पयाम’ ने लिखा था- ‘हिन्दुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊंचा समझता है। अगर हम हज़ारों-लाखों अंग्रेज़ों को मार भी गिराएं, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते। यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आज़ाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी।

ओ, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज़ खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा ख़ून कर दिया। लेकिन वो ग़लती पर हैं। उन्होंने तुम्हारा ख़ून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है, तुम ज़िन्दा हो और हमेशा ज़िन्दा रहोगे।’

भगतसिंह के पिता और चाचा कांग्रेसी थे। क्रांति बीज भगत सिंह के मन में कुछ यूं पड़े थे। 1914 से 1919 के बीच पहला विश्वयुद्ध हुआ, उसका भगत सिंह पर गहरा असर हुआ।

वह 1928 का वर्ष था जब भगत सिंह राष्ट्रीय राजनीति में एक नियामक बनकर उभरने की भूमिका में आए। 1928 हिन्दुस्तान की राजनीति के मोड़ का बहुत महत्वपूर्ण वर्ष है। 1928 में इतनी घटनाएं और अंग्रेजों के खिलाफ इतने आंदोलन हुए जो उसके पहले नहीं हुए थे।

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि 1928 का वर्ष भारी उथलपुथल का, भारी राजनीतिक हलचल का वर्ष था। 1930 में कांग्रेस का रावी अधिवेशन हुआ। 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई।

जो कांग्रेस केवल पिटीशन करती थी, अंग्रेज से यहां से जाने की बातें करती थी। उसको मजबूर होकर लगभग अर्धहिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको कभी कभी झोंकना पड़ा। यह भगत सिंह का कांग्रेस की नैतिक ताकत पर प्रभाव था।

कांग्रेस में 1930 में जवाहरलाल नेहरू लोकप्रिय नेता बनकर 39 वर्ष की उम्र में राष्ट्र्रीय अध्यक्ष बने। उनके हाथों तिरंगा झंडा फहराया गया और उन्होंने कहा कि पूर्ण स्वतंत्रता ही हमारा लक्ष्य है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह चरित्र मुख्यत: भगत सिंह की वजह से बदला।

भगत सिंह इसके समानांतर एक बड़ा आंदोलन चला रहे थे। फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान पहुंचने के बाद जब जल्लाद उनके पास आया तब बिना सिर उठाए भगत सिंह ने उससे कहा ‘ठहरो भाई, मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं। एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। थोड़ा रुको।’

आप कल्पना कर सकते हैं कि जिस आदमी को कुछ हफ्ता पहले, कुछ दिनों पहले, यह मालूम पड़ गया हो कि उसको फांसी होने वाली है। उसके बाद भी वह रोज किताबें पढ़ रहा है।

जेल के अंदर छोटी से छोटी चीज भी भगत सिंह की पहुंच के बाहर नहीं थी। जेल के अंदर जब कैदियों को ठीक भोजन नहीं मिलता था और सुविधाएं जो मिलनी चाहिए थीं, नहीं मिलती थीं, तो भगतसिंह ने आमरण अनशन किया। तब उन कैदियों को तो मिल गया था।

लेकिन क्या आज हिन्दुस्तान की जेलों में हालत ठीक है? भगत सिंह ने सारी दुनिया का ध्यान अंग्रेज हुक्मरानों के अन्याय की ओर खींचने के लिए ही जानबूझकर असेंबली बम कांड रचा।

असेम्बली में भगत सिंह ने जानबूझकर कच्चा बम फेंका। अंग्रेजों को मारने के लिए नहीं। ऐसी जगह बम फेंका कि कोई न मरे। केवल धुआं हो। हल्ला हो। आवाज हो। दुनिया का ध्यान आकर्षित हो।

भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन में एक बात सदैव ध्यान देने योग्य है जो उन्हें दूसरे क्रांतिकारियों से अलग खड़ा कर देती है और यह बात है उनका लेखन।

23 बरस की उम्र तक ही भगत सिंह अपने लेखन के ज़रिए एक ऐसा आधार तैयार कर गए, जिससे कई दशकों तक युवा पीढ़ी प्रेरणा ले सकें।

भगत सिंह जानबूझकर अपने विचार लिखकर गए ताकि उनके बाद लोग जान-समझ सकें कि क्रांतिकारी आंदोलन के पीछे केवल अंधी राष्ट्रवादिता नहीं बल्कि बहुत कुछ बदलने का लक्ष्य था।

आज़ादी के लगभग चार दशक बाद तक भगत सिंह की लिखी बातें और उनसे जुड़े दस्तावेज़ आम लोगों की पहुंच में नहीं थे। फिर धीरे-धीरे परत खुलनी शुरू हुई और कई लोगों ने भगत सिंह से जुड़े दस्तावेज़ों का संपादन किया।

भगतसिंह को साहित्य, संगीत और नाटक का भी शौक था। भगत सिंह के जीवन में ये सब चीजें गायब नहीं थीं। भगत सिंह कोई सूखे आदमी नहीं थे। भगत सिंह को समाज के प्रत्येक इलाके में दिलचस्पी थी। तरह-तरह के विचारों से सामना करना उनको आता था।

वे एक कुशल पत्रकार भी थे। आज हमारे अखबार कहां हैं? अमेरिकी पद्धति और सोच के अखबार। जिन्हें पढ़ने में दो मिनट लगता है। आप टीवी क़े चैनल खोलिए। सभी एक तरह की खबर दिखा रहे होते हैं और सबमें एक ही समय ब्रेक हो जाता है।

भगत सिंह प्रताप, किरती, महारथी और मतवाला वगैरह तमाम पत्रिकाओं में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और पंजाबी में लिखते थे। उनसे ज्यादा तो किसी ने लिखा ही नहीं उस उम्र में। गणेशशंकर विद्यार्थी का उन पर अनन्य स्नेह था।

आज इस देश की अंधव्यवस्था में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों में सामान्य भारतीय नागरिक पूर्णतः उपेक्षित है। यह भगत सिंह का सपना नहीं था। यह भगत सिंह का रास्ता नहीं है। भगत सिंह इतिहास की समझ के एक बहुत बड़े व्याख्याकार थे। हम उस भगतसिंह की बात ज्यादा क्यों नहीं करते?

कांग्रेस के इतिहास को भगत सिंह का ऋणी होना पड़ेगा। लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल और बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस की अगुआई की थी।

भगत सिंह लाला लाजपत राय के समर्थक और अनुयायी शुरू में थे। उनका परिवार आर्य समाजी था। भूगोल और इतिहास से काटकर भगतसिंह के कद को एक निर्वात में नहीं देखा जा सकता।

जब लाला लाजपत राय की जलियां वाला बाग की घटना के दौरान लाठियों से कुचले जाने की वजह से मृत्यु हो गई तो भगत सिंह ने केवल उस बात का बदला लेने के लिए ही एक सांकेतिक हिंसा की और सांडर्स की हत्या हुई।

भगत सिंह चाहते तो और जी सकते थे। यहां-वहां आजादी की अलख जगा सकते थे। भगत सिंह के कई क्रांतिकारी साथी जिए ही। लेकिन भगत सिंह ने सोचा कि यही वक्त है, जब इतिहास की सलवटों पर शहादत की इस्तरी चलाई जा सकती है। उनमें एक गहरी दूरदृष्टि थी।

यदि वे पंजाब की असेंबली में बम नहीं फेंकते तो क्या होता ! जिसमें वक्त के तेवर पढ़ने का माद्दा हो, ताकत हो। वही इतिहास पुरुष होता है। आज शहादत के समय रचित उनकी इन पंक्तियों के साथ हम उस महान विचारक क्रन्तिकारी भगत सिंह और उनके साथी सुखदेव व राजगुरु का स्मरण करें …।

‘उसे यह फ़िक्र है हरदम, नया तर्जे-जफ़ा क्या है? हमें यह शौक देखें, सितम की इंतहा क्या है?’

‘दहर से क्यों खफ़ा रहे, चर्ख का क्यों गिला करें, सारा जहां अदू सही, आओ मुकाबला करें’।

‘कोई दम का मेहमान हूं, ए-अहले-महफ़िल, चरागे सहर हूं, बुझा चाहता हूं।’

‘मेरी हवाओं में रहेगी, ख़यालों की बिजली, यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे।’

(शैलेन्द्र चौहान लेखक-साहित्यकार हैं)

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  1. 1
    Anuj Kumar Maurya

    Please correct – हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,
    ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।

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