स्मृति दिवस विशेष: फ़िक्र तौंसवी का लेखन, एक बेहतर समाज बनाने की फ़िक्र से निकला है

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आम धारणा यह है कि उर्दू ज़बान मुसलमानों की भाषा है और यह ज़बान कहीं और से हिंदुस्तान आई है। जबकि इस बात में ज़रा-सी भी सच्चाई नहीं। मुंशी नवल किशोर, पंडित रतननाथ सरशार, प्रेमचंद, मुंशी दयानारायण निगम, फ़िराक़ गोरखपुरी (प्रोफ़ेसर रघुपति सहाय), आनंद नारायण मुल्ला, क़मर जलालाबादी, कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, उपेन्द्रनाथ अश्क, रामलाल, महेन्द्रनाथ, देवेन्द्र इस्सर, जोगिंदर पॉल, जगन्नाथ आज़ाद, नरेश कुमार ‘शाद’, प्रकाश पंडित, कन्हैयालाल कपूर, कश्मीरीलाल ‘जाकिर’, ज्ञानचंद जैन, बलवंत सिंह, बलवंत गार्गी, गोपाल मित्तल, देवेन्द्र सत्यार्थी, दीवान सिंह मफ़्तून, डॉ. गोपीचंद नारंग, नंद किशोर विक्रम, राजेन्द्र कृश्न, नक़्श लायलपुरी, गुलज़ार और न जाने कितने ही नाम ऐसे हैं, जो अपनी शानदार उर्दू ज़बान और अपने बेमिसाल उर्दू लेखन ही की वजह से न सिर्फ़ पूरे हिंद उपमहाद्वीप में बल्कि सारी दुनिया में जाने-पहचाने जाते हैं।

उर्दू ज़बान के यह सभी बड़े अदीब, शायर, एडिटर, जर्नलिस्ट, ड्रामा निगार और तंज़-ओ-मिज़ाह निगार हैं। उर्दू ज़बान की ख़िदमत और उसके अदब को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस लंबी फ़ेहरिस्त में एक ऐसा ही चमकदार नाम फ़िक्र तौंसवी का है। मशहूर-ओ-मारूफ़ तंज़-ओ-मिज़ाह निगार फ़िक्र तौंसवी !

उर्दू से यह उनकी मुहब्बत का ही सबब है कि वह रामलाल भाटिया से फ़िक्र तौंसवी हो गए। और आख़िरी समय तक उन्होंने इस पहचान को अपने से जुदा नहीं किया। जबकि इस नाम-पहचान की वजह से उन्हें बंटवारे के वक़्त पाकिस्तान में और बंटवारे के बाद हिंदुस्तान में काफ़ी परेशानी पेश आई। फ़िक्र तौंसवी उस पीढ़ी के शख़्स थे, जिनके लिए उर्दू ओड़ना-बिछौना थी। अपनी ज़िंदगी में उन्हें जो कुछ भी मिला, वह इसी ज़बान का नतीजा है।

7 अक्टूबर, 1918 को अविभाजित भारत के तौंसा शरीफ़ जिला डेरा ग़ाज़ी ख़ाँ में जन्मे फ़िक्र तौंसवी की इब्तिदाई तालीम घर पर ही हुई। मैट्रिक का इम्तिहान तौंसा से पास किया। वालिद के जल्दी इंतिक़ाल की वजह से वे आला तालीम हासिल न कर सके। घर की ज़िम्मेदारियाँ उनके सर आ गईं। परिवार के गुज़र-बसर के लिए उन्हें कम उम्र में ही रोज़गार के लिए जूझना पड़ा। बहरहाल, फ़िक्र तौंसवी की उम्र जब अठारह साल की थी, तब वह एक स्थानीय ख़ुश-नवीस (सुलेखक) से किताबत (लिखाई का काम) सीखकर, शेख़ूपुरा से शाए होने वाले एक हफ़्तावार अख़बार ‘किसान’ की किताबत करने लगे थे। मगर ये सिलसिला ज़्यादा देर न चल सका। फ़िक्र तौंसवी की ज़िंदगी में अभी और जद्दोजहद, इम्तिहान बाक़ी थे।

परिवार का पेट पालने के लिए उन्होंने एक रंगरेज़ के पास रंगाई और छपाई का काम किया, तो साइनबोर्ड और इश्तिहारात वगैरह पेंट करने जैसा काम भी किया। बालों का तेल बेचा, मगर उसमें भी घाटा होने की वजह से वो रोज़ी-रोटी की तलाश में आख़िरकार लाहौर पहुँच गए। लाहौर आने के बाद, स्कूली पाठ्यक्रम की किताबों के शोबे में कुछ मुद्दत क्लर्की की। आगे चलकर फ़िक्र तौंसवी उस दौर की एक अहम अदबी मैगज़ीन ‘अदब-ए-लतीफ़’ से जुड़ गए। यहाँ क्लर्की से शुरुआत कर वे इस मैगज़ीन के एडिटर के ओहदे तक पहुँचे। जो कि उनकी मेहनत, संघर्ष और जुझारूपन को दिखलाता है। फ़िक्र तौंसवी ने एक और मशहूर अख़बार ‘सवेरा’ का संपादन भी किया।

अपनी ज़िंदगी के आग़ाज़ से ही फ़िक्र तौंसवी तरक़्क़ीपसंद ख़यालात के थे। लाहौर ही में वे तरक़्क़ीपसंद तहरीक से वाबस्ता हो गए थे। बकौल मिर्ज़ा अदीब, ‘‘ये (तरक़्क़ीपसंद तहरीक का) इस दर्जा पाएदार (मज़बूत), जानदार और सख़्त-जाँ (सख़्त मेहनती) निकला कि वो जब तक लाहौर रहा, अदब की इस ज़िंदा तहरीक से उसकी वाबस्तगी क़ायम रही। और जब यहाँ से सरहद पार भेज दिया गया, तो ये इश्क़ उसके बातिन (अंतर्मन) से मुसलसल शोला-फ़िशाँ (आग बरसानेवाला) रहा। आख़िर तक शोला-फ़िशाँँ रहा।’’

लाहौर में फ़िक्र तौंसवी की दोस्ती का दायरा काफ़ी बड़ा था। अहमद नदीम क़ासमी, सआदत हसन मंटो, साहिर लुधियानवी, कन्हैयालाल कपूर, कृश्न चंदर, बलवंत गार्गी, मुमताज़ मुफ़्ती, क़तील शिफ़ाई, अहमद राही, नरेश कुमार ‘शाद’ उनके क़रीबी दोस्तों में शामिल थे। मुल्क की आज़ादी बंटवारे के साथ आई। मुल्क हिंदुस्तान और पाकिस्तान में तक़्सीम हो गया। जिसका ख़ामियाजा लाखों देशवासियों को भुगतना पड़ा। फ़िक्र तौंसवी भी उनमें से एक थे। उन्हें अपने मादर-ए-वतन तौंसा से बेहद मुहब्बत थी। वे उसे कभी नहीं छोड़ना चाहते थे।

फ़सादात के माहौल में भी वे बिना डरे लाहौर में ‘मकतबा उर्दू’ के दफ़्तर में ही बैठे रहते। इस बदतर हालात में भी इंसानियत पर उनका यक़ीन बरक़रार रहा। वह कहते थे, ‘‘लाहौर मेरा शहर है। यहीं मेरी अदबी परवरिश और पहचान हुई। मेरा कोई मज़हब नहीं। भागनेवालों के मज़हब होंगे हिंदू-मुसलमान, मगर मैं इंसान हूँ और इंसान का मज़हब कोई नहीं होता। सिवाय इंसान बने रहने के।’’

बावजूद इसके फ़िरक़ावाराना फ़सादात के दौरान कुछ ऐसे हालात बने कि उन्हें मजबूरन हिंदुस्तान आना पड़ा। वो जालंधर आ गए। यहाँ आकर फ़िक्र तौंसवी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से वाबस्ता हो गए। इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि फ़िक्र तौंसवी कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाइमर थे। पार्टी के रोज़नामा ‘नया ज़माना’ में उन्होंने ‘आज की ख़बर’ के उन्वान से कॉलम लिखना शुरू कर दिया। समाज में अमन क़ायम रहे, इसके लिए वे इलाके़ के गाँव-गाँव गए और लोगों को सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भावना बनाए रखने के लिए पैग़ाम दिया।

पार्टी की सरगर्मियों और सामाजिक गतिविधियों के साथ-साथ फ़िक्र तौंसवी ने यहाँ ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ को भी सक्रिय कर दिया। उन्होंने अपनी अदबी ज़िंदगी बहैसियत शायर शुरू की थी, लेकिन उनकी यह शायरी भी ग़म-ए-जानाँ से ज़्यादा ग़म-ए-दौराँ की शायरी थी। वह तंज़-ओ-मिज़ाह के शायर थे। फ़िक्र तौंसवी ने अपनी शायरी के ज़रिए गै़र बराबरी पर टिके हुए बदरंग सामाजिक ढांचे पर लगातार वार किए। ‘तन्हाई’, ‘महाज्ञानी’ उनकी मशहूर नज़्में हैं। लेकिन वह शायरी के मैदान में ज़्यादा देर नहीं टिके। आगे चलकर उन्होंने शायरी को पूरी तरह से ख़ैर-बाद कह दिया। और तंज़-ओ-मिज़ाह के मैदान में आ गए।

तंज़-ओ-मिज़ाह फ़िक्र तौंसवी को बहुत रास आया। इस मैदान में उन्हें इतनी शोहरत और मक़बूलियत मिली कि बड़े नक़्क़ाद और अदीब भी उनका लोहा मान गए। बक़ौल मशहूर मिज़ाह निगार कन्हैयालाल कपूर, ‘‘तंज़ निगारी फ़िक्र का शग़ल (काम) नहीं, ओड़ना-बिछौना है। जदीद अदब में शायद ही किसी अदीब ने इस ख़ुश-उस्लूबी (अच्छे प्रबंधन) से फ़र्सुदा (पुरानी) रवायात और बेहूदा अश्ख़ास (लोगों) को बेनक़ाब किया होगा। जैसा कि फ़िक्र तौंसवी ने। उनका पुख़्ता समाजी शऊर (सामाजिक चेतना) और दिलआवेज़ उस्लूब-ए-बयान (दिल को लुभा देनेवाले बयान की शैली) न सिर्फ़ तंज़ निगारी की तल्ख़ी को गवारा बना देता है, बल्कि इतना दिलचस्प कि कारी (पाठक) की जुबान पर मोमिन का ये शे’र आ जाता है, ‘दुश्नाम-ए-यार तब-ए हज़ीं पर गिराँ नहीं/ऐ हम-नफ़स नज़ाकत-ए-आवाज़ देखना।’’

फ़िक्र तौंसवी का लेखन यदि देखें, तो उनका सारा लेखन एक बेहतर समाज बनाने की फ़िक्र से निकला है। वे हमेशा इसके लिए फ़िक्रमंद रहे। उन्होंने अपनी ज़िंदगी में ख़ुद ग़रीबी, अभाव, सामाजिक अन्याय और शोषण देखा था, इसलिए वे आम आदमी के ग़म और उसकी ज़रूरतों से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। लिहाज़ा अपनी ओर से उन्होंने पूरी कोशिश की कि आम अवाम को अपने कॉलम से वे न सिर्फ़ बेदार करें, बल्कि उनके होठों पर मुस्कराहट भी बिखेंरे। जिससे उनकी उदास ज़िंदगी में कुछ समय ही के लिए सही, बहार आ जाए। इस काम में वे हमेशा कामयाब रहे। आम और ख़ास दोनों ही उनके कॉलम पसंद करते थे। ‘मिलाप’ में फ़िक्र तौंसवी के कॉलम ‘प्याज के छिलके’ की मक़बूलियत का ये आलम था कि जिस रोज़ उनका यह कॉलम अख़बार में नहीं छपता, इसकी बिक्री कम हो जाती। लोग अख़बार नहीं ख़रीदते थे।

साल 1955 में फ़िक्र तौंसवी रोज़नामा ‘मिलाप’, नई देहली से वाबस्ता हो गए। और उसके लिए उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक कॉलम ‘प्याज के छिलके’ लिखा। इसके अलावा महानामा ‘बीसवीं सदी’ में भी उन्होंने कॉलम नवेसी की। फ़िक्र तौंसवी ने कॉलम नवेसी के साथ-साथ रेडियो, टेलीविजन और दीगर अख़बारों और मैगज़ीन के लिए भी बहुत से फ़ीचर, ड्रामे और मज़ाहिया मज़ामीन लिखे।

फ़िक्र तौंसवी के तंज़-ओ-मिज़ाह में ये ख़ासियत थी कि वो दूसरों पर हँसने और उन पर तंज़ करने के बजाय, हमेशा अपने आप पर तंज़ करते और पाठकों को हँसने के मौके़ मुहैया कराते। वो अपने कॉलम में हमेशा ज़िंदगी की हक़ीक़तें पेश करते, अवाम को बेदार करते, इंसानों के द्वारा जो इंसानों का शोषण होता है, उसके ख़िलाफ़ क़लम चलाते। फ़िक्र तौंसवी अवाम और ज़मीन से जुड़े जर्नलिस्ट थे।

यही वजह है कि उन्होंने अपने कॉलम में हमेशा हाशिए से नीचे के लोगों के अधिकारों की आवाज़ उठाई। अपने एक कॉलम में वे लिखते हैं, ‘‘ग़रीब रियासत से लेकर सियासत के दौर में सबसे ज़्यादा बिकनेवाला ‘जुमला’ रहा है, जिसे बार-बार दुहराकर न कितने कफ़न-चोर ख़ुद को ‘ग़रीब नवाज़’ के तमगों से सजा चुके हैं। लेकिन फ़िक्र तौंसवी के लिए किसी ग़रीब का दुःख-दर्द किसी कारोबार या फ़र्जी नारे लगाने का सामान नहीं था। ग़रीब और उसका शोषण फ़िक्र के सीने से बार-बार चीख बनकर उभरता है।’’

फ़िक्र तौंसवी ने बेशुमार लिखा। उनकी तक़रीबन दो दर्जन किताबें होंगी। फ़िक्र तौंसवी की पहली किताब ‘ह्यूले’ शे’री मजमूआ था, जो 1947 में शाए हुआ। उसके बाद 1949 में फ़िक्र तौंसवी का दिल दहला देनेवाला नॉवेल ‘छठा दरिया’ मंज़र-ए-आम पर आया। जिसमें रोज़नामचे की शक्ल में तक़्सीम और फ़सादात की ख़ून भरी दास्तान क़लमबंद की गई है। बंटवारे पर यह एक क्लासिक नॉवेल है। जिसका अंग्रेज़ी में भी ‘द सिक्सथ रिवर’ के नाम से तर्जुमा आ गया है। दंगों में ख़ून-ख़राबे और हैवानियत के बीच इंसानियत किस तरह से बची रही, इस नॉवेल का मरकज़ी ख़याल है।

फ़िक्र तौंसवी इस बंटवारे से ख़ुद प्रभावित हुए थे, उन्होंने अपने दिल पर कई ज़ख़्म झेले थे। बावजूद इसके उनके उपन्यास में कहीं पक्षपात नज़र नहीं आता। उन्होंने बड़े ही तटस्थता से उस ख़ूनी मंज़र का विस्तृत ख़ाका खींचा है। बंटवारे के गुनाहगारों पर तंज़ किए हैं। वे अपने लेखन में किसी को नहीं बख़्शते। इंसानियत और भाईचारा उनके लिए सबसे ऊपर है।

फ़िक्र तौंसवी के तंज़-ओ-मिज़ाह यानी हास्य और व्यंग्य का कोई जवाब नहीं था। अख़बारों में लिखे गए तंज़-ओ-मिज़ाह के उनके ज़्यादातर कॉलम किताबों के तौर पर भी आ गए हैं। ‘ख़द-ओ-खाल’, ‘सातवाँ शास्त्र’, ‘प्याज के छिलके’, ‘चौपट राजा’, ‘बदनाम किताब’, ‘फ़िक्रनामा’, ‘फ़िक्रियात’, ‘बात में घात’, ‘छिलके ही छिलके’, ‘फ़िक्र वाणी’, ‘आधा आदमी’, ‘उर्दू की आख़िरी किताब’, ‘घर में चोर’, ‘मेरी बीवी’, ‘वारंट-ए-गिरफ़्तारी’, ‘मॉडर्न अल्लादीन’, ‘प्रोफ़ेसर बुद्धू’, ‘तीर-ए-नीमकश’ इन किताबों में उनके हास्य और व्यंग्य शामिल हैं।

हिन्दी में भी फ़िक्र तौंसवी की कई किताबें आ चुकी हैं। मसलन ‘हम हिंदुस्तानी’, ‘वारंट-ए-गिरफ़्तारी’, ‘मॉर्डन अल्लादीन’, ‘बदनाम किताब’, ‘गुमशुदा की तलाश’, ‘स्वतंत्रता के बाद’ और ‘राजा राज करे’ वगैरह। अदब और सहाफ़त के मैदान में फ़िक्र तौंसवी के बेमिसाल योगदान को देखते हुए, उन्हें कई पुरस्कार और सम्मानों से सम्मानित किया गया। साल 1969 में तौंसवी की अदबी ख़िदमात पर उन्हें प्रतिष्ठित ‘सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड’ से नवाज़ा गया, तो 1973 में किताब ‘चौपट राजा’ 1977 में ‘फ़िक्र-नामा’ और 1980 में ‘उर्दू की आख़िरी किताब’ पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकादेमी ने उन्हें सम्मानित किया। 1983 में ‘मीर अकादेमी अवार्ड’, 1985 में ‘फ़िक्र-ए-वाणी’ पर मग़रिबी बंगाल उर्दू अकादेमी का इनाम, 1987 में भाषा विभाग पंजाब का अवार्ड और ‘ग़ालिब अवार्ड’ फ़िक्र तौंसवी को मिले दीगर अहम इनामात और एज़ाज़ हैं।

अपने ग़म को भुलाकर, दुनियाभर को हँसाने-गुदगुदाने वाले फ़िक्र तौंसवी ने 12 सितम्बर, 1987 को इस दुनिया से अपनी विदाई ली। मुम्ताज़-ओ-मारूफ़ अफ़साना निगार कृश्न चंदर ने उनके फ़न पर तब्सिरा करते हुए, लिखा था, ‘‘फ़िक्र के मिज़ाह और तंज़ की कई परते हैं। इसलिए शायद उसने अपने फ़िक़ाहिया (सटायर) कॉलम का नाम ‘प्याज के छिलके’ रखा है। जिसने शुमाली (उत्तरी) हिंद के लोगों के हिस्स-ए-मिज़ाह (हँसी मज़ाक़ की रुचि) की सेहत और तहज़ीब में एक बहुत बड़ा रोल अदा किया है।

फ़िक्र अपने तंज़-ओ-मिजाह में हमेशा उन मक़ासिद के लिए लडे़ हैं, जिनके लिए सदियों से इंसानियत-परस्त अदीब हर मुल्क और हर अहद में लड़ते और जद्दोजहद करते आए हैं। फ़िक्र ने अपने मक़सद की आफ़ाक़ियत (सार्वभौमिकता) और अपने फ़न की बुलूग़ियत (कला के कौशल) पर कभी हर्फ़ (दोष) नहीं आने दिया। उनका मक़सद आला और लिखने का ढंग निराला है। इसलिए अदब की तारीख़ में वो हमेशा इज़्ज़त-ओ-एहतिराम से याद रखे जाएंगे।’’

(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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