10 अप्रैल प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना दिवस का दिन। साल 1936 में आज ही के दिन लखनऊ के मशहूर ‘रफा-ए-आम’ क्लब में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न हुआ था। इसमें बकायदा संगठन की स्थापना की गई।
इस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने कहा था, ‘‘हमारी कसौटी पर वह साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो, जो हम में गति, संघर्ष और बैचेनी पैदा करे। सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’
प्रेमचंद द्वारा दिए गए इस बीज वक्तव्य को एक लंबा अरसा बीत गया, लेकिन आज भी यह वक्तव्य साहित्य को सही तरह से परखने का पैमाना है। उक्त कथन की कसौटी पर खरा उतरने वाला साहित्य ही हमारा सर्वश्रेष्ठ साहित्य है। प्रगतिशील लेखक संघ का गठन यूं ही नहीं हो गया था, बल्कि इसके गठन के पीछे ऐतिहासिक कारण थे।
साल 1930 से 1935 तक का दौर परिवर्तन का दौर था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद सारी दुनिया आर्थिक मंदी झेल रही थी। जर्मनी, इटली में क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी की तानाशाही और फ्रांस की पूंजीपति सरकार के जनविरोधी कामों से पूरी दुनिया पर साम्राज्यवाद और फासिज्म का खतरा मंडरा रहा था। इन सब संकटों के बावजूद उम्मीदें भी खत्म नहीं हुई थीं। हर ढलता अंधेरा, पहले से भी उजला नया सबेरा लेकर आता है।
जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर दिमित्रोव के मुकदमे, फ्रांस के मजदूरों की बेदारी और ऑस्ट्रिया की नाकामयाब मजदूर क्रांति से सारी दुनिया में क्रांति के एक नये युग का आगाज हुआ। चुनांचे साल 1933 में प्रसिद्ध फ्रांसीसी साहित्यकार हेनरी बारबूस की कोशिशों से फ्रांस में लेखक, कलाकारों का फासिज्म के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा ‘वर्ल्ड कान्फ्रेंस ऑफ राइटर्स फार दि डिफेंस ऑफ कल्चर’ बना। जो बाद में आगे चलकर पॉपुलर फ्रंट (जन मोर्चा) के रूप में तब्दील हो गया।
इस संयुक्त मोर्चे में मैक्सिम गोर्की, रोम्या रोलां, आंद्रे मालरो, टॉमस मान, वाल्डो फ्रेंक, मारसल, आंद्रे जीद, आरांगो जैसे विश्वविख्यात साहित्यकार शामिल थे। लेखक, कलाकारों के इस मोर्चे को जनता की बड़ी तादाद की हिमायत हासिल थी।
विश्व परिदृश्य की इन सब घटनाओं ने लंदन में पढ़ रहे भारतीयों सज्जाद जहीर, डॉ. मुल्कराज आनंद, प्रमोद सेन गुप्त, डॉ. मुहम्मद दीन ‘तासीर’, हीरेन मुखर्जी और डॉ. ज्योति घोष को अंदर तक प्रभावित किया। इसका सबब लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना थी। प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र का मसौदा वहीं तैयार हुआ।
आगे चलकर सज्जाद जहीर और उनके चंद दोस्तों ने तरक्कीपसंद तहरीक को आलमी तहरीक का हिस्सा बनाया। स्पेन के फासिस्ट विरोधी संघर्ष में सहभागिता के साथ-साथ सज्जाद जहीर ने साल 1935 में गीडे और मेलरौक्स द्वारा आयोजित विश्व बुद्धिजीवी सम्मेलन में भी भाग लिया। इसके अध्यक्ष गोर्की थे।
साल 1936 में सज्जाद जहीर लंदन से भारत वापस लौटे और आते ही उन्होंने सबसे पहले प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की तैयारियां शुरू कर दीं। इसके साथ ही वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के घोषणा-पत्र पर भारतीय भाषाओं के तमाम लेखकों से विचार-विनिमय करते रहे।
इस दौरान सज्जाद जहीर गुजराती भाषा के बड़े लेखक कन्हैयालाल मुंशी, फिराक गोरखपुरी, डॉ. सैयद ऐजाज हुसैन, शिवदान सिंह चौहान, पं. अमरनाथ झा, डॉ. ताराचंद, अहमद अली, मुंशी दयानरायन निगम, महमूदुज्जफर, सिब्ते हसन आदि से मिले।
‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के घोषणा-पत्र पर सज्जाद जहीर ने उनसे राय-मशिवरा किया। प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद रखने और उसको परवान चढ़ाने में उर्दू अदब की एक और बड़ी अफसानानिगार, ड्रामानिगार रशीद जहां का भी बड़ा योगदान है।
हिंदी और उर्दू जबान के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों को उन्होंने इस संगठन से जोड़ा। मौलवी अब्दुल हक, फैज अहमद फैज, सूफी गुलाम मुस्तफा जैसे कई नामी गिरामी लेखक यदि प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े, तो इसमें रशीद जहां का बड़ा योगदान है।
यही नहीं संगठन बनाने के सिलसिले में सज्जाद जहीर ने शुरूआत में जो यात्राएं कीं, रशीद जहां भी उनके साथ गईं। लखनऊ, इलाहाबाद, पंजाब, लाहौर जो उस वक्त देश में साहित्य के बड़े केंद्र थे, इन केंद्रों से उन्होंने सभी प्रमुख लेखकों को संगठन से जोड़ा। संगठन की विचारधारा से उनका परिचय कराया। संगठन के हर काम में वे आगे-आगे रहती थीं।
लखनऊ अधिवेशन को कामयाब बनाने में रशीद जहां का बड़ा रोल था। अधिवेशन के वास्ते चंदा जुटाने के लिए उन्होंने न सिर्फ यूनीवर्सिटी और घर-घर जाकर टिकिट बेचे, बल्कि प्रेमचंद को सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए भी राजी किया।
चौधरी मुहम्मद अली साहब रूदौलवी, जो कि उस वक्त अवध के एक बड़े ताल्लुकेदार और रईस थे, उनको अधिवेशन का स्वागत अध्यक्ष बनने के लिए तैयार किया। ताकि सम्मेलन में उनकी ओर से ज्यादा से ज्यादा आर्थिक मदद मिल सके। बहरहाल प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन बेहद कामयाब रहा।
इसमें साहित्य से जुड़े कई विचारोत्तेजक सत्र हुए। अहमद अली, फिराक गोरखपुरी, मौलाना हसरत मोहानी आदि ने अपने आलेख पढ़े। अधिवेशन में उर्दू के बड़े साहित्यकार तो शामिल हुए ही हिंदी से भी प्रेमचंद के साथ जैनेंद्र कुमार, शिवदान सिंह चौहान ने शिरकत की।
अधिवेशन में लेखकों के अलावा समाजवादी लीडर जयप्रकाश नारायण, युसूफ मेहर अली, इंदुलाल याज्ञनिक और कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने भी हिस्सा लिया।
सज्जाद जहीर इस संगठन के पहले महासचिव चुने गए। वे साल 1936 से 1949 तक प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रहे। सज्जाद जहीर के व्यक्तित्व और दृष्टि संपन्न परिकल्पना के ही कारण प्रगतिशील आंदोलन, आगे चलकर भारत की आजादी का आंदोलन बन गया। देश के सारे प्रगतिशील-जनवादी लेखक, कलाकार इस आंदोलन के इर्द-गिर्द जमा हो गए।
साल 1942 से 1947 तक का दौर, प्रगतिशील लेखक संघ के आंदोलन का सुनहरा दौर था। यह आंदोलन आहिस्ता-आहिस्ता देश की सारी भाषाओं में फैलता चला गया। हर भाषा में एक नए सांस्कृतिक आंदोलन ने जन्म लिया। इन आंदोलनों का आखिरी उद्देश्य, देश की आजादी था।
प्रगतिशील लेखक संघ की लोकप्रियता देश के सभी राज्यों के लेखकों के बीच थी। प्रगतिशील आंदोलन में लेखकों का शामिल होना, प्रगतिशीलता की पहचान थी। प्रगतिशील आंदोलन ने जहां धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद और हर तरह की धर्मांधता की मुखालफत की, तो वहीं साम्राज्यवादी, सामंतशाही और आंतरिक सामाजिक रूढ़न रूपी दोहरे दुश्मनों से भी टक्कर ली। एक समय ऐसा भी आया, जब उर्दू के सभी बड़े साहित्यकार प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले थे।
फैज़ अहमद फैज़, अली सरदार जाफरी, मजाज़, कृश्न चंदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, इस्मत चुगताई, महेन्द्रनाथ, साहिर लुधियानवी, हसरत मोहानी, उपेंद्र नाथ अश्क, सिब्ते हसन, जोश मलीहाबादी, सागर निजामी जैसे कई नाम तरक्कीपसंद तहरीक के हमनवां, हमसफर थे।
इन लेखकों की रचनाओं ने मुल्क में आजादी के हक में एक समां बना दिया। यह वह दौर था, जब प्रगतिशील लेखकों को नये दौर का रहनुमा समझा जाता था। तरक्कीपसंद तहरीक को पं. जवाहरलाल नेहरू, सरोजनी नायडू, रविंद्रनाथ टैगोर, अल्लामा इकबाल, खान अब्दुल गफ्फार खान, प्रेमचंद, वल्लथोल जैसी हस्तियों की सरपरस्ती हासिल थी। वे भी इन लेखकों के लेखन एवं काम से बेहद मुतास्सिर और पूरी तरह से मुतमइन थे।
प्रगतिशील लेखक संघ का किस तरह से गठन हुआ?, संगठन के पीछे क्या उद्देश्य थे? इस संगठन के विस्तार में क्या-क्या परेशानियां आईं?, कुल मिलाकर प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े प्रारंभिक इतिहास की सारी जानकारी सज्जाद जहीर की किताब ‘रौशनाई तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’ में मिलती हैं।
‘रौशनाई तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’, प्रगतिशील लेखक संघ का ही अकेला दस्तावेज नहीं है, बल्कि मुल्क की आजादी की जद्दोजहद और उस वक्त के सियासी, समाजी हालात का मुकम्मल खाका हमारी नजरों के सामने पेश करती है। प्रगतिशील और जनवादी विचारों से जुड़े सभी लेखक, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।