होली का गंगा-जमुनी इतिहास : जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की

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ध्रुवीकरण इनकी मजबूरी है। न करें तो और क्या करें? और कुछ आता भी तो नहीं इसके सिवा! न करें तो इनका तो राजनीतिक वजूद ही मिट जाएगा, क्योंकि घृणा ही इनके चिंतन का सर्वस्व है। फितरत ऐसी कि त्रासदियों का उत्सवीकरण और उत्सवों को त्रासदी में बदल दें। आपदा में अवसर तलाशने की प्रवृत्ति ने राजनीति का जो किया सो किया ही, सामाजिकता को नष्ट कर दिया। ये लोग कोरोना में हो रही मौतों के बीच तो ताली-थाली बजवा लेंगे और त्योहारों का नाश कर देंगे। 

इन लोगों ने घृणा के विस्तार में प्रेम के त्योहारों को भी नहीं छोड़ा। जनता मूर्ख है। वह इनका वजूद बचाने के लिए अपनी सौहार्दता की जमापूंजी को माचिस लगा रही है। 

होली जैसे गले मिलने के त्योहार पर भी ये अपनी आदत से बाज नहीं आते। इन्हें हर मामले में हिंदू-मुस्लिम करना ही है। सत्ता के नजदीक दिखने की चाहत में कुछ अधिकारी भी मर्यादा की सीमाएं लांघ रहें हैं। होली पर ऐसे ही कुछ अमर्यादित बयान आ रहें हैं, जिन्हें सुनकर शर्म आती है। रंगों के त्योहार होली को भी ये सांप्रदायिक रंग में रंगना चाहते हैं। होली तो बंधनों को तोड़ने वाला त्योहार है, यहां वर्जनाएं टूटती हैं। स्नेह में उन्मुक्तता का प्रतीक है होली, यह राग का त्योहार है। प्रेम का ऐसा प्रकटीकरण और किस त्योहार में है। 

होली सभी शासकों का प्रिय त्योहार रहा है, फिर चाहे वे मुस्लिम शासक ही क्यों न रहें हों। मुस्लिम शासकों और मुस्लिम कवियों का होली से गहरा रागात्मक संबंध रहा है। इस मेलजोल का एक लंबा इतिहास रहा है। मुहम्मद बिन तुगलक खुद होली खेलता था और इस त्योहार पर वह अपने कर्मचारियों को नई पोशाकें भी देता था। 

 अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर आज भी होली के गीत या फाग गाए जाते हैं।

यहां खुसरो का यह गीत बहुत अदब के साथ गाया जाता है। 

“आज रंग है, ऐ मा रंग है री, मोरे महबूब के घर रंग है री।

मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, जब देखो मोरे संग है री”।

कहते हैं कि एक बार हजरत निजामुद्दीन के सपने में भगवान कृष्ण आए। तब उन्होंने खुसरो को बुलाकर श्रीकृष्ण पर हिंदवी जोकि उस समय की लोक भाषा थी, में दीवान लिखने को कहा। और खुसरो ने हजरत के लिए हिंदवी में दीवान लिखा भी। इसमें खुसरो ने श्रीकृष्ण के जीवन दर्शन के साथ होली गीत भी लिखे। खुसरो होली के रंग को महारंग कहते हैं। वे गाते थे – 

“गंज शकर के लाल निजामुद्दीन चिश्त नगर में फाग रचायो,

ख्वाजा निजामुद्दीन, ख्वाजा कुतबुद्दीन प्रेम के रंग में मोहे रंग डारो

सीस मुकुट हाथन पिचकारी, मोरे अंगना होरी खेलन आयो,

खेलो रे चिश्तियो होरी खेलो, ख्वाजा निजाम के भेस मे आयो।”

मुगल काल में होली का अलग ही आकर्षण था। 

अकबर जहांगीर, शाहजहां के समय होली अपने पूरे रंग में थी। फूलों से बने रंगों से होली खेली जाती थी। इतिहासकार मुंशी जकीउल्लाह ने तो अपनी किताब ‘तारीख-ए-हिंदुस्तानी’ में लिखते हैं कि- ‘कौन कहता है, होली हिंदुओं का त्योहार है।’ जकीउल्लाह लिखते हैं कि बादशाह बाबर हिंदुओं को होली खेलते देखा तो उस पर इतनी मस्ती छाई उसने अपने बाथ टब को शराब से भरवा दिया और उसमें नहाया।

अकबर की होली तो बहुत प्रसिद्ध है। अबुल फजल अपनी किताब आईने अकबरी में अकबर के होली खेलने के शौक का ज़िक्र किया है। वे बताते है कि अकबर इसके लिए महीनों पहले तैयारियां शुरू कर देता था। बस केवल औरंगजेब को छोड़कर शेष सभी के होली खेलने का ज़िक्र मिलता है। 

जहांगीर की ऑटोबायोग्राफी ‘तुज़्क-ए-जहांगीरी’ में जिक्र आता है कि होली में जहांगीर महफिल का आयोजन किया करते थे। मुगल काल के तमाम चित्र होली खेलते हुए मिलते हैं। शाहजहां के समय तो होली को ईद ए गुलाबी भी कहा जाता था।

बहादुर शाह जफर कहते थे कि होली खेलने से हमारा धर्म प्रभावित नहीं होता। उन्होंने ब्रजभाषा में होली के गीत भी लिखे। उन्होंने लिखा – 

“क्यों मो पै रंग की मारी पिचकारी।

देखो कुंवर जी दूंगी मैं गारी।।

बहुत दिनन पे हाथ लगे हो, कैसे जाने दूं।

मैं पगवा तो सौं हाथ पकड़ कर लूं” 

अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने तो होली पर जो ठुमरी लिखी है वह तो आज जन-जन के कंठ में है। 

नवाब की खुद की लिखी यह ठुमरी है- ‘मोरे कन्हैया जो आए पलट के/अबके होली मैं खेलूंगी डटके/उनके पीछे मैं चुपके से जाके/रंग दूंगी उन्हें भी लिपटके।’

यह वह दौर था जिसकी अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में महसूस की जा सकती हैं। 

“आ मिटा दें दिलों पे जो स्याही आ गई है, 

तेरी होली मैं मनाऊं, मेरी ईद तू मना ले”

गंगा जमुनी तहजीब का सबसे बड़ा उदाहरण नवाब वाजिद अली शाह ने पेश किया था। हुआ यह कि एक बार मुहर्रम और होली एक ही दिन पड़ गया था। हिंदू समुदाय ने मुस्लिम भाइयों का ख्याल करके उस दिन होली न मनाने का निर्णय लिया। जब यह बात नवाब को पता लगी तो उन्होंने कहा इतने बड़े त्योहार को न मनाने का कोई तुक नहीं है। मुस्लिम भाइयों का भी अपने हिंदू भाइयों के प्रति कुछ फर्ज बनता है। उन्होंने उसी दिन होली मनाने की मुनादी करवा दी। और खुद भी उस मातम के दिन होली खेली। यह बहुत बड़ी बात थी।

मीर तकी मीर ने नवाब आसिफुद्दौला के होली खेलने पर होली गीत लिखा था। 

वहीं रहीम जी ने होली के दिन एक श्रमशीला की व्यथा को आवाज देते हैं- 

“लोग लुगाई हिल मिल, खेलत फाग ।

पर्यौ उड़ावन मोकौं, सब दिन काग॥”

रहीम की ये पंक्तियां निराला की वह तोड़ती पत्थर की याद दिलवा देती है।

एक अन्य कृष्णभक्त कवि रसखान को कौन भूल सकता है! जायसी के यहां भी होरी के चित्र मिल जाएंगे।

इसके अलावा नजीर अकबराबादी की रंगत के तो क्या कहने! उनकी होली पर जो लेखनी चली तो लगा कि होली का इससे बढ़िया आंखों देखा हाल किसी का क्या होगा! फिर वैसा लिखने की आने वाले कवियों के लिए चुनौती बन गई।

नज़ीर अकबराबादी का यह गीत देखें –

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की

और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की

ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की

महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।।

सूफी संत बुल्ले-शाह ने होली को इस तरह गाया – 

“होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

नाम नबी की रतन चढ़ी,

बूंद पड़ी इल्लल्लाह

रंग-रंगीली उही खिलावे,

जो सखी होवे फना-फी-अल्लाह”

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

अब बताइए यह रही है अपनी संस्कृति और आज हम नफ़रत में कहां से कहां पहुंच गए हैं। क्या हम सब दूसरे की सत्ता की निसैनी बनने के लिए ही जन्मे हैं। वो तो सोचेंगे नहीं क्योंकि उन्हें तो सत्ता मिल रही, सोचना आपको है कि कैसा समाज चाहते हैं। त्योहारों की हत्या की और नहीं, सिर्फ आपकी सोच कर रही है। 

 (संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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