इंकलाब के लिए थी हरभजन सिंह हुंदल की कलम   

विश्वविख्यात शहीद कवि पाश के गहरे हमख्याल और हमसफर सुप्रसिद्ध पंजाबी लेखक हरभजन सिंह हुंदल की जीवन संध्या का दीया 9 जुलाई की शाम बुझ गया। जुझारवादी पंजाबी कविता में उन्हें खास मुकाम हासिल था और वह इस बाबत कविता लोक में अवतार पाश, लाल सिंह दिल, अमरजीत चंदन व संतराम उदासी की परंपरा से थे। इंकलाबी अथवा क्रांतिकारी कविता गोया उनका हथियार थी। पंजाब की नक्सल लहर से उनका सक्रिय गहरा नाता था। कलम से लेकर कार्यकर्ता तक। वह पाश से लेकर उदासी तक; सबके साथ किसी न किसी फ्रंट पर साथ काम कर चुके थे।

सूबे में नक्सल लहर हार और हताशा के हवाले होकर बाहरी तौर पर तो रुखसत हो गई लेकिन बेशुमार लेखकों-बुद्धिजीवियों ने भीतर ही भीतर उसे सुलगाए रखा। अंदर के वे चिराग आज भी जनरोशनी दे रहे हैं और बेहतर दुनिया का सांचा बुनने में शिद्दत के साथ लगे हैं। इंकलाबी शख्सियत हरभजन सिंह हुंदल इनमें से पहली कतार के थे। बेशक बाद में वह सीपीएम में चले गए। उनके वैचारिक वारिसों की कमी नहीं लेकिन उनके कद सरीखा भी कोई नहीं।

पाश नक्सल आंदोलन के बाद रोजी-रोटी और कट्टरपंथियों से चिंतन-चेतना के स्तर पर लड़ने के लिए विदेश चले गए। अमरजीत चंदन भी। पुलिस की अमानवीय यातनाएं सहने के बाद संतराम उदासी एक दिन दुनिया छोड़ गए। लाल सिंह दिल भी पुलिसिया यातनाओं से अर्धविक्षिप्त होकर पंजाब से बाहर चले गए। रह गए हरभजन सिंह हुंदल। उन्होंने अपने तईं आगे का मोर्चा बखूबी संभाला। न थके न डरे न हारे। कलम के पूर्णकालीन सिपाही बन गए। लेखन को धार देते गए विभिन्न विधाओं के जरिए। रास्ता नहीं छोड़ा। उन्होंने साहित्य की लगभग हर विधा पर साधिकार लिखा और खूब लिखा। उनकी किताबों की तादाद एक सौ से ज्यादा है। अभी कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं।                         

हुंदल का जन्म 1934 में लायलपुर (पाकिस्तान) में हुआ था। उनकी पंद्रह कविता पुस्तकें प्रकाशित हैं। इंकलाबी और क्रांतिकारी जज्बे से भरपूर। यात्रा वृतांत और आत्मकथात्मक लेखों की किताबें भी हैं। दुनिया भर के क्रांतिकारी लेखकों की कृतियों का पंजाबी में अनुवाद करके पाठकों तक पहुंचाने में भी उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। इन्होंने पाब्लो नेरुदा, ब्रेख्त, मायकोवस्की और फैज अहमद फैज की रचनाओं का पंजाबी में उम्दा अनुवाद किया। उन किताबों के संस्करण रिकॉर्ड संख्या में पाठकों ने खरीदे और आज भी यह सिलसिला यथावत जारी है।

लोक संघर्ष के लिए वह किसी भी हद तक गए। नक्सल लहर में भूमिगत थे तो व्यापक तलाश के बावजूद पुलिस के हाथ नहीं लगे। आपातकाल के दौरान उन्हें चार महीने से अधिक समय तक अवैध पुलिस हिरासत में रखा गया और अमानवीय यातनाएं दी गईं। उन्हें सोवियत लैंड-नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1992 में जनवादी साहित्यधारा को तेज धार करने के मकसद से पंजाबी में ‘चिराग’ नामक त्रैमासिक पत्रिका शुरू की जो उनकी जीवन संध्या की समाप्ति तक जारी रही और शायद आगे भी रहे।

इन दिनों वह कपूरथला की तहसील के गांव फत्तू चक में अपनी किताबों के विशाल कमरे में रह रहे थे। इतनी उम्र के बाद भी अध्ययन-लेखन जमकर किया करते थे। उम्र के साथ बीमारी को भी जोड़ लीजिए। उनकी कविता मानव समुदाय की नींद के रूप में तर्कसंगत संवाद की पुष्टि करती है, एक ऐसा विश्वास जिसे वह हेगेल के साथ-शायद खुद के लिए अज्ञात-साझा करते हैं। विभिन्न आलोचक एकमत रखते हैं कि हरभजन सिंह हुंदल की कविता और उनके सिद्धांत साथ-साथ विकसित हुए हैं। इनकी समूची कविता गवाह है कि वह एक जागृत दृष्टा हैं, पलायनवादी नहीं।

बेशक हुंदल का कवि एक तरह से सपनों में छिपे दु:स्वपनों के प्रति जागता रहता है। यहां तक की पंजाबी राष्ट्रवाद, जोकि बेशुमार पंजाबी लेखकों का प्रकट रूप से हानिरहित ‘शगल’ है, इस विचारशील स्वपनद्रष्टा को मंत्रमुग्ध करने में विफल रहता है। कई लीकों को तोड़कर हरभजन सिंह हुंदल अपनी बात पर अड़े रहे और उस युग में पहचान की राजनीति के प्रोलोभनों के आगे नहीं झुके, जब यह सियासत एक महामारी की मानिंद पूरी दुनिया में फैल गई और न केवल कई लोगों की जान ले ली, बल्कि कई बुद्धिजीवियों को भी हिंसक शिकार बनाया।

उनकी कविता यकीनन क्रांति के लिए थी, इंकलाब और व्यापक बदलाव के लिए थी। ज्यादातर लोगों के लिए इंकलाब पन्नों तक सीमित रह गया या बातों तक। क्रांति दूर से दूर होती चली गई। बदलाव के संकल्प छलावे में तब्दील होते चले गए लेकिन हुंदल डगमगाए नहीं। अपने गहरे मित्र और प्रिय कवि पाश की इन काव्य पंक्तियों से उन्हें गहरा लगाव था कि,

‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ और ‘हम लड़ेंगे साथी…!’ 

कई मायनों में वह अपने समकालीनों और हमख्याल साथियों से अलहदा दिखाई देते हैं। उनका मानना था कि उत्तर-औपनिवेशिक से लेकर नव-उपनिवेश तक, दमनकारी सत्ता की व्यवस्था ने महज खुद को फिर से समायोजित किया है। उनकी पंक्तियां हैं: 

‘पिछली रात के सवालों से नींद नहीं आई है/ वे एक नई सुबह के रूप में वापस आते हैं।’  

पाश तार्किकता के साथ हरभजन सिंह हुंदल को विश्व कवि कहते थे और अक्सर उनकी तुलना लोर्का और पाब्लो नेरुदा से करते थे। यह हुंदल का हासिल है कि उनकी कविता के बगैर पंजाबी कविता की बात नहीं होती। उनका क्या, यह किसी भी कवि का सबसे बड़ा हासिल होगा! यानी प्राप्ति। उनकी एक जनप्रिय कविता है:

‘बारिश आए तो छाता बंद रखें

सत्ता सताए तो हौसला बुलंद रखें।

मजा आता है कभी-कभी भीग जाने में

क्यों आंख बंद किए हुए किसी को सताने में।

क्यों डर रहे हो भीग जाने में

यह केवल बारिश नहीं, यह एहसास है गुलाम न हो जाने में

मैं आज भी भीग रहा हूं, मुझे डर नहीं भीग जाने में

मैं सत्ता से लड़ रहा हूं, कल को जी सकूं, खुद के आशियाने में

मेरी कलम हमेशा चलेगी, अवाम को जगाने में।

यह वह बारिश है, जिसमें मजा आता है भीग जाने में।

रोहिल्ला हो जाए फना इस जमाने में,

मगर ये बारिश हमेशा जगाएगी अवाम को हर जमाने में।’                  

इस काव्य रचना को वह मंच से पढ़ा करते थे। नक्सल लहर के बाद हरभजन सिंह हुंदल सीपीएम के करीब आ गए थे और वहां महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका सब कुछ लोक हितों को समर्पित था। अलविदा कॉमरेड हरभजन सिंह हुंदल!! 

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)                    

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