प्रयागराज (इलाहाबाद) में महाकुंभ का औपचारिक आरंभ 14 जनवरी यानी मकर संक्रांति पर्व पर अमृत स्नान के साथ हो जाएगा। कहा जाता है कि यह धरती पर आयोजित होने वाला सबसे बड़ा मानव-समागम होता है। इस समागम के उत्स को लेकर कई तरह की जनश्रुतियां हैं। लेकिन, इससे पहले दो सूचनाएं-
(एक)- मिथक
महर्षि याज्ञवल्क्य ने महर्षि भारद्वाज को श्रीराम के चरित्र की कथा प्रयागराज में सुनाई थी। यह घटना रामायण में वर्णित है। (रामायण अर्थात श्रीवाल्मीकीय रामायण। यह मिथक है, लेकिन इतिहासकार, फिर भी इसे 5000 ईसा पूर्व-10,000 ईसा पूर्व मानते हैं। रामायण काल का अर्थ राम-काल नहीं, बल्कि, वह काल, जिसमें रामायण की रचना संभव हुई।)
(दो)- इतिहास
चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार भारतीय राजा हर्षवर्धन (606 से 645 ईसवी) अपनी दानशीलता के लिए जाना जाता था। बौद्ध धर्म अपनाने के बावजूद उसमें अन्य धर्मों के प्रति अगाध श्रद्धा थी। वह हर 5वें साल प्रयागराज में महामोक्षपरिषद में अपना सर्वस्व दान कर देता था। इस महामोक्षपरिषद को ही कुंभ के तौर पर देखा जा सकता है।
इतिहासकार केसी श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक ‘’प्राचीन भारत का इतिहास’’ में इस बात का उल्लेख किया है कि उसने प्रयागराज में हर 5वें साल में आयोजित होने वाले धार्मिक उत्सव को किस रूप में देखा। हर्षवर्द्धन यहां दीन-दुखियों को काफी दान देता था। अपने बहुमूल्य वस्त्रों और आभूषणों को भी दान दे देता था। और खाली हाथ वापस लौट जाता था।
हम अगर मिथक को भूल जाएं, जैसा कि भूल जाना चाहिए तो इतिहास की कहानी यह कहती है कि महाकुंभ दान का अवसर है। यहां, गरीब से गरीब व्यक्ति भी स्नान करने के साथ-साथ दान करने भी आता है। इस दृष्टिकोण से अगर प्रयागराज (इलाहाबाद) में आयोजित महाकुंभ को देखा जाए तो प्रश्न उठता है कि क्या यह सचमुच दान-नगरी है, क्या यहां सिर्फ पुण्य-स्नान होने वाला है?
तथ्य
तथ्य यह है कि इस महाकुंभ को दो हिस्सों में बांट दिया गया है। एक तरफ अमीरों का जमघट है और दूसरी तरफ सचमुच के श्रद्धालु गरीबों का। यहां पंच सितारा होटलों की तरह डीलक्स रूम हैं, जिनका किराया 16200 प्रतिदिन है। विला है, जिसका किराया 18000 रुपए प्रतिदिन है। भारत सरकार द्वारा थोपी गई 18% जीएसटी भी चुकानी होगी।
भारत के मीडिया में इस अमीरी की चर्चा नहीं है। क्या भगवान के यहां इतना अंधेर है। क्या स्नान इतनी बड़ी विलासिता है? और, ईश्वर समदर्शी है। यहां नहाने से पाप कटता है। क्या यहां सब दान करने आते है तो फिर वे लाखों-करोड़ों, जो कुछ लोगों की जेब में जा रहे हैं, वे कौन लोग हैं? क्या वे भी दान-वीर हैं या धर्म के धंधे से करोड़ों के वारे-न्यारे करने वाले नर-पिशाच!
मेले का एक और रंग है, जिसे इलाहाबाद के ही कवि कैलाश गौतम ने अपने काव्य-खंड ‘अमौसा का मेला’ में इस तरह वर्णित किया है-
भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा.
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा ।
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा।
कमरी में केहू, कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू।
यह भारत के उन धार्मिकजनों का मेला है, जो सचमुच नाना कष्ट सहते हुए इस आशा और आकांक्षा से स्नान करने प्रयागराज आते हैं कि यहां नहाने से उनके पाप क्षमा होंगे और स्वर्ग-लोक में उनका स्थान सुनिश्चित होगा। उनके लिए यह श्रद्धा और भक्ति का स्थान है। वे यहां आते हैं अपना मैल धोने और अपना सब कुछ निछावर करने।
तीर्थाटन बनाम पर्यटन
लेकिन, अगर आप इसे गौर से देखेंगे तो महाकुंभ का यह स्नान, पर्व से सर्कस में, तीर्थाटन से पर्यटन में, पुण्य-लाभ से शुभ-लाभ में, भक्ति से भावना में, करुणा से क्रोध में, सहिष्णुता से असहिष्णुता में, धर्म से राजनीति में, मंगल से दंगल में, ज्ञान से अज्ञान में, उदारता से पाखंड में, साहचर्य से उग्रता के अखाड़े में बदलता दिखाई दे रहा है।
यह सब कुछ इस सच्चाई के बावजूद है कि करोड़ों लोग आज भी सच्चे और अच्छे मन से स्नान करने आते हैं। वे सचमुच के धार्मिक हैं, इसमें भी कोई संदेह नहीं है। कड़कती ठंड में साधनहीनता के बावजूद वे न जाने किस अनाम-अज्ञात के प्रति समर्पित संगम तट में डुबकी लगाने को आतुर हैं। क्या है उन कोटि-कोटि लोगों के जन-मन में ?
शायद परलोक संवारने की कोई आस या वर्तमान के दुखभोग से मुक्ति या बेटे की बेरोजगारी और बेटी की शादी के लिए कोई मनौती या इस संसार-सागर के मायामोह से उबर जाने की कोई बदहवास कल्पना या विराट के प्रति कोई सम्मोहन या निरा अंधविश्वास या शायद…पता नहीं…क्या कुछ।
मगर, इसमें दो राय नहीं कि उन लाखों-करोड़ों भारतीयों का उछाह आसमान पर है और गिरते-पड़ते-संभलते चले जा रहे हैं पतित-पावनी घाट पर…उनके भीतर की प्रेरणा नमनीय है और उनका वह मतवालापन भी…
लेकिन इस मेले का एक और पक्ष भी है
इस बार, धार्मिक नेताओं की जगह राजनेताओं के चित्र इसकी कायापलट दे रहे हैं। वे कोई और कथा कह रहे हैं। पढ़ सको तो वे कुछ और संकेत दे रहे हैं। क्या ? उसे कहना फिलहाल, धर्म-विरोधी होना है, इसलिए समझदार लोग चुप हैं, क्योंकि कुफ्र में कौन पड़े। वह सचाई यह है कि इस पुण्यभूमि को जैसे एक रणभूमि में बदल दिया गया है। मनुष्यत्व की जगह हिंदुत्व की आहट का घंटा बजाया जा रहा है।
कुछ लोग, हां, कुछ लोग हैं जिन्हें इस मेले में शक्ति संचय का अवसर दिखाई दे रहा है। मानो वे नर-नारी न हों, कोई वोट-बैंक की फसल हों, इसलिए उसे तुरत-फुरत काट लेना चाहिए।
ऐसे लोगों की पहचान भी जरूरी है, जिन्होंने लोगों की आस्था को, लोगों के विश्वास को, लोगों के धर्म को अपनी कुर्सी बचाने का हथियार बना लिया है और वे हजार-हजार राहों से आकाश में किसी धुंध की तरह छाते जा रहे हैं।
आप उन्हें जानते हैं, और नहीं भी जानते। वे इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब को ‘एक देश, एक भाषा और एक शत्रु’ की राजनीतिक-माया के भंवर-जाल में फंसा देना चाहते हैं।
वे वहां पहुंच गए, जहां आपकी नाक है। सुप्रीमकोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने इस मेले के खर्चे पर सवाल उठाते हुए कहा है कि यह देश को अंधविश्वास, पाखंड और निजी लक्ष्यपूर्ति में ढकेलने का षडयंत्र है।
पर्व को पर्व ही रहना चाहिए। सरकार, ने इस पर करीब नौ अरब रुपए खर्च कर दिए हैं। उनका प्रश्न है कि एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में सरकारी पैसे का इतना भीषण दुरुपयोग क्यों हो रहा है?
क्योंकि, यह सिर्फ श्रद्धा-भक्ति का ही मेला नहीं है, बल्कि अपने साथी ठेकेदारों-भष्ट नौकरशाहों की तिजोरियां भरने का भी पर्व है। क्या गंगा मैया सचमुच सब देखती हैं !
(राम जन्म पाठक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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