जौन एलिया, नौजवान नस्ल के पसंदीदा शायर हैं। वे न सिर्फ़ जौन की दिल-आवेज़ शख़्सियत के दीवाने हैं, बल्कि उनके कई मशहूर शे’र, मिसाल के तौर पर ‘‘अपना ख़ाका लगता हूं/एक तमाशा लगता हूं।’’, मुहावरों और कहावतों की तरह दोहराते हैं। वाक़ई जौन एलिया की शायरी में वो जादू है, जो एक बार उन्हें पढ़ लेता है, वह हमेशा के लिए उनका दीवाना बन जाता है।
एक अहम बात और, जितना वह उन्हें पढ़ता है, उतनी ही उनके जानिब उसकी तिश्नगी (प्यास) और ज़्यादा बढ़ती चली जाती है। आमफ़हम ज़बान में जब जौन एलिया मुशायरों में अपनी ग़ज़ल पढ़ते थे, तो सामयीन को लगता था कि जैसे कोई उनसे गुफ़्तुगू कर रहा हो।
यही उनका यूनिक स्टाइल था, जो उन्हें औरों से जुदा करता था। नौजवानों में जौन एलिया की मक़बूलियत की वजह, उनका अंदाज़-ए-बयां है। ग़ज़लों में वे अपने महबूब से जिस अंदाज़ में बात करते हैं, वह उन्हें खू़ब पसंद आता है।
मुलाहिज़ा फ़रमाएं, ‘‘शर्म, वहशत, झिझक, परेशानी/नाज़ से काम क्यों नहीं लेती/आप, वो, जी, मगर ये सब क्या है/तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेती।’’ या फिर आहिस्तगी से उनका यह कहना, ‘‘मुझको आदत है रूठ जाने की/आप मुझको मना लिया कीजे।’’
उत्तर प्रदेश के अमरोहा में जन्मे जौन एलिया की इब्तिदाई तालीम अमरोहा के मदरसों में हुई। जहां उन्होंने उर्दू, अरबी और फ़ारसी सीखी। आगे चलकर अंग्रेज़ी, हिब्रू और संस्कृत पर भी दस्तरस हासिल कर ली। नौजवानी में अपने दौर के तमाम नौजवानों की तरह वे भी रेडिकल ख़यालात के थे।
इन इंक़लाबी ख़यालात में डूबी उन्होंने कई ग़ज़लें, नज़्में लिखीं। साल 1947 में मुल्क के बंटवारे के बाद जौन एलिया के परिवार ने पाकिस्तान जाने का फै़सला किया, मगर उन्होंने हिंदुस्तान नहीं छोड़ा। साल 1956 में वालिदैन के इंतक़ाल के बाद, न चाहते हुए भी उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा।
वो पाकिस्तान चले तो गए, मगर ताज़िंदगी अपने मादरी वतन हिंदोस्तां और अमरोहा को याद करते रहे। जौन एलिया औपचारिक या अनौपचारिक बैठकों में अक्सर यह जुमला दोहराते थे, ‘‘पाकिस्तान….ये पाकिस्तान….ये सब अलीगढ़ के लौंडों की शरारत थी।’’
यानी दिल से उन्होंने कभी इस तक़्सीम को तस्लीम नहीं किया। बल्कि उनका यह कहना था, ‘‘पाकिस्तान आकर मैं हिन्दुस्तानी हो गया।’’ बहरहाल, जौन एलिया ने पाकिस्तान पहुंचते ही चारों ओर अपनी शायरी के झंडे गाड़ दिए। शायरी के साथ-साथ उनके पढ़ने का ड्रामाई अंदाज़ सामयीन को खू़ब लुभाता था।
जौन एलिया की मुशायरों में शिरकत उसकी कामयाबी की ज़मानत होती थी। उस वक़्त आलम यह था कि हिंद उपमहाद्वीप के नामवर शायर भी उन मुशायरों में जाने से घबराते थे, जिनमें जौन एलिया का नाम होता था। ऐसी मक़बूलियत बहुत कम शायरों को हासिल होती है।
जौन एलिया की शख़्सियत को यदि देखें, तो उसमें ऐसा कुछ ख़ास नज़र नहीं आता। दुबला-पतला जिस्म, लंबे-लंबे बाल और रात में भी काला चश्मा लगाना। इन सब बातों से वे एक अजूबा नज़र आते। बावजूद इसके लोगों की उनके जानिब एक अलग ही दीवानगी थी।
जौन एलिया बचपन से ही आशिक मिज़ाज थे। जब महज़ आठ साल के थे, तभी उन्होंने अपना पहला इश्क़ किया और यह शे’र कहा, ”चाह में मैंने उसकी तमाचे खाए हैं/देख लो सुर्ख़ी मेरे रुख़्सार की।’’ ज़ाहिर है कि जब किसी शायर का आग़ाज़ ही ऐसा हो, तो अंज़ाम क्या होगा।
आगे भी उनकी ये आशिक़ मिज़ाजी और शायरी यूं ही साथ-साथ चलती रही। ‘‘याद है अब भी अपने ख़्वाब तुम्हें/मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या/बस मुझे यूं ही एक ख़्याल आया/सोचती हो,तो सोचती हो क्या।’’ जौन एलिया अपने अहद के अज़ीम शायर इसलिए हैं कि उन्होंने इंसान के जज़्बाती और नफ़सियाती हालात पर मानीख़ेज़ अशआर कहे।
उर्दू शायरी की पूरी रिवायत में इस तरह की कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। ‘‘बे-क़रारी-सी बे-क़रारी है/वस्ल है और फ़िराक़ तारी है/….हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो/हम हैं और उसकी यादगारी है।’’
जौन एलिया सिर्फ़ एक ‘दिलजले’ आशिक़ ही नहीं, एक इंक़लाबी शायर भी थे। अपनी शायरी के ज़रिए वे आवाम को अक्सर बेदार करने का मुश्किल काम करते थे, ‘‘ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीयाद-ए-सितम/जुज़ हरीफ़ान-ए-सितम किसको पुकारा जाये/वक़्त ने एक ही नुक्ता को किया है तालीम/हाकिम-ए-वक़्त को मसनद से उतारा जाये।’’
पाकिस्तान जहां जम्हूरियत नामलेवा रही है, हुकूमत में सेना का हमेशा दख़ल रहा है, ऐसे माहौल में इस क़दर के अशआर लिखना और पढ़ना वाक़ई एक हिम्मत का काम था। अपनी दीगर इंक़लाबी ग़ज़ल के एक शे’र में वे कहते हैं, ‘‘तारीख़ ने क़ौमों को दिया है यही पैग़ाम/हक़ मांगना तौहीन है, हक़ छीन लिया जाए।’’
जौन एलिया पाकिस्तान ज़रूर चले गए, मगर हिंदुस्तान हमेशा उनके दिल में रहा। उनके दिल से उसकी यादें नहीं गईं। अपनी एक ग़ज़ल में उनकी ये कैफ़ियत है,‘‘ऐ जान-ए-दास्तां तुझे आया कभी ख़याल/वो लोग क्या हुए जो तिरी दास्तां के थे/..मिलकर तपाक से न हमें कीजिए उदास/ख़ातिर न कीजिए कभी हम भी यहां के थे/क्या पूछते हो नाम-ओ-निशान-ए-मुसाफ़िरां/जौन अपने हिन्दोस्तां में आए हैं हिन्दोस्तां के थे।’’
पाकिस्तान में रहते हुए भी जौन एलिया को गंगा, यमुना और अमरोहा की याद आती रही। ‘‘मत पूछो कितना ग़मगीन हूं, गंगा जी और यमुना जी/ज़्यादा तुमको याद नहीं हूं, गंगा जी और यमुना जी/….अमरोहा में बान नदी के पास जो लड़का रहता था/अब वो कहां है? मैं तो वही हूं, गंगा जी और यमुना जी।’’
जौन एलिया में एक ग़ज़ब की अना थी, जो उनकी शायरी में जहां-तहां दिखलाई देती है, ‘‘मैं जो हूं ‘जौन-एलिया’ हूं जनाब/इस का बेहद लिहाज़ कीजिएगा।’’ वे बड़े ठसके से इस तरह के शे’र पढ़ जाते थे, ‘‘हां ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूं/आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूं दख़्ल दे कोई।’’, ‘‘मैं भी बहुत अजीब हूं इतना अजीब हूं कि बस/ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं।’’
जौन एलिया एक बोहेमियन और अराजकतावादी थे। यही वजह है कि शायरी में उनके ये विचार जब-तब झलक आते थे, ‘‘आख़िर हैं कौन जो किसी पल कह सके ये बात/अल्लाह और तमाम बशर ख़ैरियत से हैं।“, ‘‘किसको फ़ुरसत जो मुझसे बहस करे और साबित करे/मेरा वजूद, मेरी ज़िंदगी के लिए ज़रूरी हैं।“
जौन एलिया एक नास्तिक और तर्कवादी थे। मज़हब और धार्मिक परंपराओं से उनका कोई नाता नहीं था। फ़िरकापरस्ती और मज़हबी कट्टरता की उन्होंने हमेशा मुख़ालफ़त की।
उनका कहना था, ‘‘ये कौन लोग हैं, जो एक-दूसरे को क़त्ल कर डालते हैं…और ये क़त्ल करने वाले हमेशा मज़हब के ही क्यों होते हैं ? हम ये कहते हैं कि अक़्ल और फ़लसफे़ के लोग कभी एक-दूसरे को क़त्ल नहीं करते..फ़ित्ना-ओ-फ़साद की आग हमेशा मज़हबी लोगों के दरमियान में ही क्यों लगती है?’’
जौन एलिया की ज़िंदगानी में तो लापरवाही थी ही, अपनी शायरी के प्रकाशन की तरफ़ से भी लापरवाह थे। साल 1990 में तक़रीबन साठ साल की उम्र में अपने चाहने वालों के बार-बार इसरार के बाद उनका पहला शायरी का मजमूआ ‘शायद’ शाए हुआ।
इस किताब के दीबाचे में उन्होंने लिखा है, ‘‘ये एक नाकाम आदमी की शायरी है। ये कहने में भला क्या शर्माना कि मैं रायगां (व्यर्थ) गया, मुझे रायगां जाना भी चाहिए था।
जिस बेटे को उसके इंतिहाई ख़यालपसंद और मिसालिया-परस्त बाप ने अमली ज़िंदगी गुज़ारने का कोई तरीक़ा न सिखाया हो, बल्कि ये तन्क़ीद की हो कि इन सबसे बड़ी फ़ज़ीलत है और किताबें सबसे बड़ी दौलत, तो वो रायगां न जाता, तो और क्या होता !’’
इस किताब के बाद जौन एलिया की कई किताबें ‘गोया’, ‘लेकिन’, ‘यानी’ और ‘गुमान’ शाया हुईं, जो उस समय तो मशहूर रहीं ही, आज भी पसंद की जाती हैं। जौन एलिया बेहतरीन शायर ही नहीं थे बल्कि जर्नलिस्ट, विचारक, तर्जुमा निगार, दानिश्वर और एनारकिस्ट भी थे। जिसकी चर्चा बहुत कम होती है।
उन्होंने एक इल्मी-ओ-अदबी रिसाला ‘इंशा’ का संपादन भी किया। आगे चलकर यह रिसाला ‘आलमी डाइजेस्ट’ में तब्दील कर दिया गया। जौन एलिया ने इसके अलावा इस्लाम से पूर्व मध्य पूर्व का राजनैतिक इतिहास किताब के तौर संपादित किया।
बातिनी आंदोलन के साथ-साथ फ़लसफ़े पर अंग्रेज़ी, अरबी और फ़ारसी किताबों के तर्जुमे किए। उन्होंने कुल मिलाकर पैंतीस किताबें संपादित कीं।
जौन एलिया मुशायरों के ही नामवर शायर नहीं थे, उर्दू अदब में भी उनका बड़ा मर्तबा था। नक़्क़ाद डॉ. मुहम्मद अली सिद्दीक़ी, जौन एलिया को बीसवीं सदी के तीन सबसे माने हुए शायरों में रखते हैं। वहीं जाने-माने शायर और अफ़साना निगार अहमद नदीम क़ासमी का जौन एलिया की शायरी के बारे में ख़याल था।
‘‘जौन एलिया अपने समकालीनों से बहुत अलग और अनोखे शायर हैं। उनकी शायरी पर यक़ीनन उर्दू, फ़ारसी, अरबी शायरी की छूट पड़ रही है, मगर वो उनकी परम्पराओं का इस्तेमाल भी इतने अनोखे और रसीले अंदाज़ में करते हैं कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में होने वाली शायरी में उनकी आवाज़ निहायत आसानी से अलग पहचानी जाती है।’’
तरक़्क़ीपसंद शायर मजरूह सुल्तानपुरी भी जौन एलिया की शायरी के मुरीद थे। उन्होंने जौन को ‘‘शायरों का शायर’’ बतलाया था। ज़ाहिर है कि किसी भी शायर के लिए इससे बड़ा मर्तबा क्या होगा कि समकालीन शायर भी उसकी अज़्मत को तहे दिल से स्वीकार करें।
जौन एलिया को अपनी ज़िंदगानी में यह बुलंदियां मिली, तो रंज-ओ-ग़म ने भी उनका साथ नहीं छोड़ा। अपनी ज़िंदगी की शरीक़-ए-हयात ज़ाहिदा हिना से हुए अलगाव का ग़म जौन एलिया कभी नहीं भूल पाए। अपनी बीवी और बच्चों से अलग होना, उनके लिए एक बड़ा सदमा था।
उन्होंने अपने आपको सिगरट और शराब में डुबो लिया। लोगों से दूर हो गए। जिसका असर उनके जे़हन और जिस्म दोनों पर पड़ा। उनकी सेहत बिगड़ती चली गई। 8 नवम्बर, 2002 को जौन एलिया ने कराची पाकिस्तान में अपनी आख़िरी सांस ली। ‘‘ये शख़्स आज कुछ नहीं, पर कल ये देखियो/उसकी तरफ़ क़दम ही नहीं, सर भी आएंगे।’’
(ज़ाहिद ख़ान लेखक व साहित्यकार हैं।)
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