Friday, March 29, 2024

जन्मदिन पर विशेष: जवाहर के साथ था जेपी का घनिष्ठ रिश्ता

जवाहरलाल नेहरू (1889 -1964) और जयप्रकाश नारायण (1902 -1979) हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की दो ऐसी विभूतियाँ हैं , जिनमें समानता के अनेक तत्व हैं, हालांकि विभेद के भी अनेक बिंदु हैं। दोनों ने विदेशों में शिक्षा पायी और दोनों मार्क्सवाद – समाजवाद से प्रभावित हुए। दोनों स्वप्नदर्शी मिजाज के थे । दोनों के लिए भारत कुछ अजूबा -सा देश था और वे इसे राजनेता से अधिक एक कवि की दृष्टि से देखते थे । नेहरू ने भारत खोजने के अपने आत्मसंघर्ष को अपनी किताब ‘ डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ‘ में ख़ूबसूरत अंदाज़ में व्यक्त भी किया है। जेपी ने अपने संघर्षों के बीच भारत की खोज की। दोनों के लिए भारत का मतलब यहां की नदियां और पहाड़ नहीं ,यहाँ के लोग थे। हालांकि प्रकृति से दोनों बेइंतहा प्यार करते थे । एक और चीज जो दोनों को जोड़ती है ,वह है चाँद । चाँद दोनों को खूब ज्यादा पसंद था । खास कर दूज का चाँद । नेहरू अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ‘ का आरम्भ ही दूज के चाँद से करते हैं कि कैसे 13 अप्रैल 1944 को वह अहमदनगर किला जेल पहुंचते हैं तो अंधियारे आसमान में झिलमिल करते दूज के नए चाँद ने उनका स्वागत किया ।

जेपी की एक कहानी का शीर्षक ही है ‘ दूज का चाँद ‘। जो उनके द्वारा हिंदी में लिखी गयी संभवतः तीन कहानियों में से एक है। यह कहानी हम लोगों ने अपनी पाठ्य -पुस्तक में छठी कक्षा में पढ़ी थी । उसके बाद वह कहानी मुझे कहीं नहीं देखने को मिली ,लेकिन याद कर सकता हूँ कि उसका नायक चंद्रशेखर किसी पहाड़ी अथवा अटारी पर जाकर चुपचाप दूज के चाँद को निहारा करता था। नेहरू लिखते हैं कि चाँद जेल में हमेशा मेरा संगी रहा है और वह मुझ से घुल -मिल गया है । कुछ ऐसा ही जेपी के साथ भी है । वह चाँद को स्त्री -सौंदर्य के उपमानों से जोड़ कर देखते हैं और सब से बड़ी बात कि उनकी कहानी का नायक दूज के चाँद से बिल्कुल एकात्म हो गया है । यह एकात्मता नेहरू में भी है । उन ने अपनी प्यारी बिटिया का नाम इन्दु (चाँद ) यूँ ही नहीं रखा था । हिन्द , इंद और इंडिया के अनुक्रम को दोनों ने अपनी ही तरह से समझा था। दोनों के भीतर बैठा चाँद ,और कुछ नहीं , उनके नाजुक ,ललित और सूक्ष्म सौंदर्य बोध की सूचना देता है । इसी बोध से वह देश और दुनिया की राजनीति को देखते और परिभाषित करते रहे ।

दोनों को जोड़ने वाला एक जीवित व्यक्तित्व भी था । वह था साबरमती का संत महात्मा गाँधी ,जो दोनों की धड़कन का हिस्सा बन गया था । गाँधी के साथ नेहरू और जेपी दोनों की वैचारिक टकराहट थी ,लेकिन गांधी जानते थे कि मेरे विचारों के चाहे जितने खिलाफ हों ,मेरी भावनाओं के सबसे करीब यही दो हैं । इस आश्रम में जेपी की पत्नी प्रभावती रहती थीं और कभी-कभार नेहरू की पत्नी कमला भी वहां जाती थीं । आहिस्ता -आहिस्ता कमला और प्रभावती मित्र बन गयीं और दोनों की मैत्री जीवंत रही। जवाहर और जेपी को जोड़ने में दोनों की पत्नियों की भी इस रूप में भूमिका रही। कमला तो 1936 में दिवंगत हो गयीं ,लेकिन प्रभावती ने अपनी सखी की स्मृति को सहेज कर रखा। 1959 में उन्होंने पटना में कमला की स्मृति में एक शिशु विहार बनवाया और आजीवन उसे पालती-पोसती रहीं । यह एक विरल- मैत्री थी ।

जयप्रकाश और नेहरू की पहली मुलाकात 1929 में संभवतः वर्धा में हुई। जेपी अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अमेरिका से लौटे थे और अपनी पत्नी से मिलने के लिए गाँधी आश्रम गए थे। दोनों ने एक दूसरे से बिना किसी बिचौलिए के परिचय किया। तब नेहरू चालीस और जेपी सत्ताईस की उम्र के थे। 1930 में जब नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष थे ,उन्होंने जेपी को कांग्रेस के लेबर सेल का सचिव बनाया । उस वक़्त जेपी किसी भी आम युवा की तरह पेशा चुनने के उहापोह में थे। उनके पिता उन्हें किसी कमाऊ जगह देखना चाहते थे। जेपी भी किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाना चाहते थे । नेहरू ने यह कहते हुए उनकी झिझक समाप्त की कि अपने दिल की बात सुनो, परिवार या औरों की बात मत सुनो। लेबर सेल में काम करने के एवज में पार्टी से उन्हें डेढ़ सौ रुपये मासिक वृत्ति भी मिलनी थी। उन दिनों कांग्रेस मुख्यालय वहीं होता था ,जहाँ अध्यक्ष होता था। इस नाते यह इलाहाबाद में था। जेपी ने अपना ठिकाना इलाहाबाद में बनाया। उन्होंने साठ रुपये प्रतिमाह किराये का एक मकान लिया । 16 रुपये के किराये पर फर्नीचर। एक रोज जवाहरलाल उनके डेरे पर आये । ताम -झाम देख कर पूछा – ‘ ये फर्नीचर कहाँ से लाये ? ‘ फिर प्यार भरे उलाहने में कहा -‘ इस तरह रहोगे ,तो खर्च कैसे चलेगा ? ‘

जेपी और दूसरे समाजवादियों ने 1934 में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई ,तब नेहरू जेल में थे । गाँधी ने आचार्य नरेंद्र देव को लिखे एक पत्र में बताया है कि यदि नेहरू बाहर होते तो वह भी पटना के इस जलसे में होते। 1939 में दुनिया में विश्वयुद्ध छिड़ गया और भारत में आज़ादी की लड़ाई तेज हो गयी । कांग्रेस में सुभाषचंद्र बोस को लेकर गहमा -गहमी रही। लेकिन नेहरू-जेपी साथ रहे । दोनों ने ऐन मौके पर सुभाष को छोड़ दिया , जो कुछ लोगों के अनुसार धोखा था। दरअसल यह अवसर विचारधारा और गाँधी में से एक को चुनने का था। दोनों ने गाँधी को चुना । 1942 के भारत छोडो आंदोलन और उसके बाद की राजनीतिक सक्रियता में दोनों नेताओं ने युवकोचित उत्साह से हिस्सा लिया । जेल की दीवाल छलांग कर जेपी जब बाहर आये तब युवकों के नायक बन गए। लेकिन इन्हीं सब के बीच देश आज़ाद हुआ , देश का विभाजन हुआ ,सांप्रदायिक दंगे हुए और अंततः गाँधी जी की हत्या हुई । अब नेहरू प्रधानमंत्री थे और जेपी की राजनीति उनसे अलग हो चुकी थी । 1948 में समाजवादियों का कांग्रेस से अलगाव हो गया था । उनकी अलग पार्टी बन गयी थी सोशलिस्ट पार्टी ।

आज़ादी के बाद हुए पहले आम चुनाव में ,जो 1952 में हुआ ; सोशलिस्टों को हताशा हाथ लगी । वह बड़ी सफलता की उम्मीद किये बैठे थे ,जो नहीं मिली । चुनाव के बाद अगस्त महीने में ही सोशलिस्ट पार्टी दक्षिणपंथी पूर्व -कांग्रेस नेता जे बी कृपलानी की पार्टी किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ मिल कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बन गयी। कृपलानी वर्गसंघर्ष की विचारधारा के खिलाफ थे । सोशलिस्टों ने भी इस सिद्धांत को स्वीकार लिया। जेपी तो चुप रहे ,लेकिन आचार्य नरेन्द्रदेव ने प्रतिक्रिया दी कि वर्ग संघर्ष का ख्याल त्याग देने के बाद सोशलिस्टों के पास बचता ही क्या है ? 1953 में जेपी और नेहरू के बीच एक दफा फिर राजनैतिक संवाद हुआ। जेपी पूना के एक अस्पताल में इलाज करा रहे थे कि उन्हें नेहरू का एक पत्र मिला कि प्रसोपा को कांग्रेस के साथ हो जाना चाहिए। नेहरूअधिक सही थे । क्योंकि वर्ग संघर्ष त्याग देने के बाद बधियाकृत समाजवादी पार्टी से कांग्रेस अधिक प्रगतिशील थी। लेकिन जेपी ने अपनी आदत के अनुसार एक पत्र लिखा ,जिसमें चौदह सूत्री मांग थी । जिस समाजवाद को वह अपनी पार्टी में नहीं बचा सके ,उसका वायदा वह नेहरू से लेना चाहते थे ।

नेहरू ने उपयुक्त समय नहीं है ,कह कर बात आगे नहीं बढ़ायी। उसके बाद नेहरू-जेपी के बीच कोई राजनीतिक बात नहीं हुई । लेकिन व्यक्तिगत संबंध बने रहे ।
स्वयं जेपी का मन प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ( प्रसोपा) को एक कारगर राजनीतिक मंच के रूप में स्वीकार नहीं कर रहा था । यहां उनके तमाम मित्र और अनुयायी थे ,लेकिन उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया और विनोबा के सर्वोदय आंदोलन से जुड़ गए। यह शायद उनकी गहरी हताशा थी । इसका विश्लेषण तो कोई मनोवैज्ञानिक ही कर सकता है । इस बीच देश में अनेक राजनीतिक उथल -पुथल हुए । 1962 में भारत -चीन सीमा विवाद हुआ और 1964 में नेहरू की मृत्यु हो गयी । लेकिन जेपी चुप रहे। इस बीच वह ग्रामीण पुनर्निर्माण के कार्यों में लगे रहे ,जो उनके शेखोदेवरा आश्रम से चल रहा था । लेकिन एक बार वह फिर सक्रिय हुए जब बंगलादेश का सवाल उठा ।

इस नवोदित राष्ट्र के प्रति विश्व जनमत बनाने केलिए उन्होंने कई देशों की यात्रा की । इसके कुछ ही समय बाद उन्होंने कश्मीर पर ध्यान केंद्रित किया । कश्मीर की समस्या पर नेहरू और जेपी का समान दृष्टिकोण था । दोनों की राय थी कि कश्मीर का मतलब वहां के लोग होते हैं । शेख अब्दुल्ला सोशलिस्ट थे । उन्होंने कश्मीर में ज़मींदारी प्रथा खत्म कर किसानों के हाथ जमीन कर दी थी । इससे वहां के पूर्व ज़मींदार लोग शेख के जानी दुश्मन बन गए थे । नेहरू की मृत्यु के बाद शेख अकेले हो गए थे । उन्होंने जेपी से संपर्क किया। जेपी सक्रिय हुए और शेख एक बार फिर मुख्य धारा में आये । कश्मीर घाटी में जेपी की इसीलिए काफी इज़्ज़त है ।

प्रभावती जी की मृत्यु के बाद जेपी अकेले और उदास रहने लगे । लेकिन युवा शक्ति को लेकर लोकतंत्र को सँवारने का उनका अरमान उनके अंतर्मन में बना हुआ था । 1973 में गुजरात के छात्रों ने जब आंदोलन किया तब जेपी ने उनके नाम खुली चिट्ठी लिखी ,जिसका शीर्षक था -यूथ फॉर डेमोक्रेसी । यह सिलसिला बढ़ते हुए पूरे देश में एक आंदोलन का रूप लेने लगा । जेपी ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया । इस समय नेहरू नहीं ,उनकी बेटी देश की प्रधानमंत्री थीं । फिर जो हुआ उससे देश पूरी तरह अवगत है । शायद नियति भी कोई चीज होती है । किसने सोचा था जेपी और नेहरू की बेटी इंदिरा राजनीतिक रूप से आमने -सामने होंगे । लेकिन जेपी उन्हीं मूल्यों केलिए संघर्ष कर रहे थे ,जिन के लिए कभी नेहरू और उनने साथ-साथ संघर्ष किया था । वे थे लोकतंत्र बहाली के मूल्य, जिनके बिना बड़े से बड़े विचार और कार्यक्रम बेमानी हो जाते हैं।

(प्रेमकुमार मणि सामाजिक राजनीतिक चिंतक हैं। और आजकल पटना में रहते हैं।)

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