ललित सुरजन: लोक शिक्षण को समर्पित पत्रकारिता के पुरोधा

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पूज्य ललित सुरजन जी के जाने के बाद आज स्वयं को अनाथ, असहाय, अकेला और अस्त व्यस्त अनुभव कर रहा हूँ। पिछले दो वर्षों में अनेक बार मुख्य धारा के मीडिया द्वारा जन सरोकार के मुद्दों की नृशंस और षड्यंत्र पूर्ण उपेक्षा से आहत होता रहा; भूख, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, कुपोषण, अशिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों को हाशिए पर डालकर जनता को धार्मिक-साम्प्रदायिक उन्माद की ओर धकेलने के अभियान की कामयाबी मुझे पीड़ित-व्यथित करती रही। लगता था कि हमारा अनथक परिश्रम सब व्यर्थ है – तब हताशा के इन क्षणों में पूज्य ललित जी से अपनी पीड़ा साझा करता था। कई बार लेखन छोड़ने का विचार मन में आया। लेखन और जीवन मेरे लिए समानार्थक हैं। यदि लेखन बन्द होगा तो शायद जीवन भी ज्यादा न चल पाएगा।

वे इस बात को जानते थे। एक अवसर पर उन्होंने मेरे व्हाट्सएप संदेश का उत्तर देते हुए मुझे जो मार्गदर्शन दिया वह मेरे जीवन की अमूल्य धरोहर है। उन्होंने लिखा- “यह अभूतपूर्व, अकल्पनीय कठिन और निर्मम समय है। यह वातावरण कैसे बना इस पर बहुत बात हो सकती है। लेकिन जब विचारहीनता का साम्राज्य हो, तब लोकशिक्षण के लिए अपने वश में जितना कुछ है, वह हमें करना ही है। कोई साथ न हो, तब भी हिम्मत नहीं खोना है। तुम जितना सोचते और लिखते हो वह बहुत मूल्यवान है और उसका दीर्घकालीन महत्व है। ——इस समय हम जो कर रहे हैं अर्थात लोकशिक्षण, वही करते रहना है। सामूहिक सम्मोहन जिस दिन उतरेगा, उस दिन यही लेखन और विचार काम आएंगे। हताश नहीं होना चाहिए।”

पूज्य ललित जी का व्यक्तित्व अनूठा था। निश्छलता, पवित्रता और सत्यनिष्ठा का तेज उनके चेहरे पर सदैव विद्यमान रहता था। उनकी भोली निर्मल मुस्कान सारे ताप हर लेती थी। उन्होंने अपने जीवन में असाधारण आदर और सम्मान अर्जित किया। विद्वान, योग्य और प्रतिभावान तो बहुत से व्यक्ति होते हैं लेकिन जब कोई व्यक्ति अपने आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों को जीना प्रारंभ कर देता है, आचार और विचार के अंतर को मिटा देता है तब वह महान बन जाता है, पूजनीय और अनुकरणीय बन जाता है। वे ऐसे ही विलक्षण व्यक्ति थे। 

उन्होंने देशबंधु को एक अख़बार से बहुत आगे ले जाकर एक संस्कार में तब्दील कर  दिया। कितने ही लोग देशबंधु पढ़कर एक बेहतर मनुष्य बने। उन्होंने अपने जीवन में मानवीय संवेदना, तार्किक चिंतन और अभिव्यक्ति की शालीनता के महत्व को समझा। पत्रकारिता के पुरोधा स्वर्गीय मायाराम सुरजन जी ने “ पत्र नहीं मित्र” की संकल्पना को साकार करने के लिए देशबंधु प्रारंभ किया था और पूज्य ललित जी के प्रयासों से देशबंधु अपने पाठकों के दैनंदिन जीवन का हिस्सा बन गया। देशबंधु के प्रशासन- संचालन में अखबार मालिक और कर्मचारी के औपचारिक संबंधों के लिए कोई स्थान न था, देशबंधु से जुड़ा हर व्यक्ति देशबंधु परिवार का एक महत्वपूर्ण सदस्य था और लोक शिक्षण तथा जनरुचि के परिष्कार के मिशन के लिए समर्पित था। देशबंधु ने अनेक प्रयोग किए। आजीवन सदस्यता अभियान के माध्यम से अपने पाठकों के साथ अटूट रिश्ता कायम किया गया। देशबंधु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की स्थापना के द्वारा सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह की अपनी परंपरा को विस्तार दिया गया।

पूज्य ललित जी इन दिनों “ देशबंधु: चौथा खंभा बनने से इंकार” नामक श्रृंखला लिख रहे थे। इसका स्वरूप संस्मरणात्मक था। इस श्रृंखला को असाधारण लोकप्रियता मिल रही थी। पत्रकारिता के विकास और इतिहास में अभिरुचि रखने वाले शोधार्थियों को इस श्रृंखला के बहुमूल्य और संग्रहणीय आलेखों की आतुर प्रतीक्षा रहती थी। जबकि राजनीति शास्त्र के अध्येता उन अनछुए पहलुओं से परिचित होकर चकित-चमत्कृत हो रहे थे जिन्होंने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और देश की राजनीति को नई दिशा दी थी। किंतु जैसे जैसे श्रृंखला आगे बढ़ती गई ललित जी स्वयं के प्रति निर्मम और निष्ठुर होते चले गए। उन्होंने अकल्पनीय रूप से तटस्थ और निस्संग होकर यह बताना प्रारंभ किया कि सिद्धान्तनिष्ठा, सत्य भाषण और मूल्य आधारित पत्रकारिता की उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ी; आज के कठिन और निर्मम समय में एक ईमानदार और सिद्धांतवादी व्यक्ति को किस तरह हाशिए पर डालने की कोशिश होती है, किस तरह उसे अव्यावहारिक बताकर महत्वहीन करने की कुचेष्टा होती है।

बहरहाल यह अंत की कुछ कड़ियां मीडिया में आए घातक बदलावों और राजनीति तथा मीडिया की बढ़ती अवांछित और अनुचित नजदीकी को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। पूज्य ललित जी ने लिखा- “लेकिन मुझे संदेह होता है कि मामला इतना सीधा नहीं था। दरअसल, एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) की अवधारणा जिसने 1980 के आसपास भारतीय राजनीति में सेंध लगाना शुरू किया था, दस साल बीतते न बीतते उसका दमदार हस्तक्षेप हमारे नागरिक जीवन के लगभग हर पहलू में होने लगा था। समाचारपत्र व्यवसाय भी उसकी चपेट में आ चुका था। अखबार में संपादक नामक संस्था विलोपित हो रही थी तथा पूंजीपति मालिकों के नुमाइंदे पत्रकार बन सत्ताधीशों से रिश्ते बनाने लगे थे। राजनेता हों या अफसर, उनके दैनंदिन कार्य इन नुमाइंदों की मार्फत सध जाते थे।

उधर मालिकों के साथ उनकी व्यापारिक भागीदारी आम बात हो गई थी। दोनों पक्षों के लिए  इसमें फायदा ही फायदा था। इस अभिनव व्यवस्था में वह अखबार इनके लिए गैर उपयोगी ही था, जिसका कोई अन्य व्यवसायिक हित न हो और जिसकी रुचि इवेंट मैनेजमेंट की बजाय मुद्दों की पत्रकारिता करने में हो। कहना होगा कि दीर्घकालीन संबंधों की जगह तात्कालिक लाभ पर आधारित रिश्तों को तरजीह मिलने लगी थी। यह बदलाव हमारी समझ में तुरंत नहीं आया।(देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 22, 5 नवंबर 2020)।

12 नवंबर 2020 को प्रकाशित एक कड़ी में उन्होंने लिखा- “एक ओर ये सारे उदाहरण थे तो दूसरी ओर यह सच्चाई भी थी कि देशबन्धु को सरकारी विज्ञापन देने में वही पुराना रवैया चलता रहा। हमारा कोई दूसरा व्यापार तो था नहीं, जिससे रकम निकाल कर यहां के घाटे की भरपाई कर लेते। धीरे-धीरे कर हमारी वित्तीय स्थिति डांवाडोल होती गई। इस परिस्थिति में देशबन्धु का सतना संस्करण बंद करने का निर्णय हमें लेना पड़ा। मध्यप्रदेश वित्त निगम के ऋण की किश्तें समय पर पटा नहीं पाने के कारण एक दिन भोपाल दफ्तर पर वित्त निगम ने अपना ताला लगा दिया।

किसी तरह मामला सुलझा तो भी एक दिन यह नौबत आ गई कि मैंने खुद भोपाल संस्करण स्थगित करने का फैसला ले लिया। एक बार 1979 में जनसंघ (जनता पार्टी) के राज में भोपाल का अखबार बंद करना पड़ा था तो इस बार कांग्रेस के राज में वैसी ही स्थिति फिर बन गई। उधर जिस कानूनी अड़चन में हमें फंसा दिया गया था, उससे उबरने में अपार मानसिक यातना व भागदौड़ से गुजरना पड़ा। जो आर्थिक आपदा आई, उसके चलते अखबार की प्रगति की कौन कहे, बल्कि हम शायद बीस साल पीछे चले गए। ऐसी विषम परिस्थिति बनने के लिए संस्थान का मुखिया होने के नाते मैं खुद को ही दोषी मानता हूं। 

दरअसल, मैं रायपुर में बैठकर कामकाज संभालता था। भोपाल जाना कम ही होता था। राजधानी का कारोबार कैसे चलता है, मैं उससे लगभग अनभिज्ञ था।  देशबन्धु की कार्यप्रणाली भी संभवतः जरूरत से ज्यादा जनतांत्रिक थी। मैं पत्रकारिता की समयसिद्ध परंपरा के अनुरूप मान रहा था कि प्रधान संपादक को मुख्यमंत्री आदि से विशेष अवसरों पर ही मिलना चाहिए। मैंने हमेशा खुले मन से अपने सहयोगियों को प्रोत्साहित किया व उन्हें अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के अवसर दिए। यह भी किसी कदर मेरी नासमझी थी जिसका खामियाजा अखबार को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से भुगतना पड़ा। इसी सिलसिले में एक संक्षिप्त प्रसंग अनायास स्मरण हो आता है। एक नवोदित राजनेता से, जिनके साथ अच्छे संबंध थे, लंबे समय बाद मुलाकात हुई। मैंने सहज भाव से पूछा – बहुत दिनों बाद मिल रहे हो। उनका उत्तर था- आपके संवाददाता (नाम लेकर) से तो मिल लेते हैं। अब आपसे भी मिलना पड़ेगा क्या? इस उत्तर का मर्म आप समझ गए हों तो अच्छा है। न समझे हों तो भी अच्छा है।

इसी कड़ी में वे आगे बताते हैं कि किस प्रकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि चमकाने के इच्छुक राजनेताओं के लिए “देशबन्धु जैसे पूंजीविरत, लॉबिंग करने में असमर्थ, मूलत: प्रादेशिक समाचार पत्र की कोई उपयोगिता नहीं थी। ——- दूसरी तरह से कहना हो तो यही कहूंगा कि व्यक्ति केंद्रित राजनीति के नए युग में परंपरा, संबंध, सिद्धांतों की बात करना बेमानी था। यही आज का भी सत्य है।“(देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 23, 12नवंबर 2020)।

 इस श्रृंखला की इन नवीनतम(और अब संभवतः अंतिम) कड़ियों को पढ़कर मैं बहुत व्यथित हो गया। मैंने उन्हें एक विस्तृत व्हाट्सएप संदेश भेजा जिसमें मैंने उनसे निवेदन किया कि स्वयं के प्रति इतना निर्मम मत बनिए। देशबंधु की रगों में वैज्ञानिक चिंतन के प्रति दृढ़ विश्वास,  देश की सामासिक संस्कृति के प्रति अटूट आस्था और मानव केंद्रित विमर्श के प्रति प्रतिबद्धता जैसे गुण रक्त की भाँति प्रवाहित हो रहे हैं। आज  कॉर्पोरेट संस्कृति पर आधारित अखबारों का संवेदनहीन यांत्रिक संयोजन और धार्मिक असहिष्णुता, साम्प्रदायिक विद्वेष तथा निर्लज्ज व्यक्तिपूजा के रसायन से रचे गए समाचार जब किसी सुधी और सुहृदय पाठक को आहत कर देते हैं तो वह देशबंधु के पन्नों में ही पनाह हासिल करता है।

अराजक बौद्धिकता के षड्यंत्रपूर्ण साम्राज्य से अछूता देशबंधु किसी शांति और प्रेम के द्वीप की भाँति  लगता है जिसने दुर्लभ होती जा रही मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों को संजोकर रखा है। मैंने उन्हें लिखा कि देशबंधु एक जीवन शैली है जो कभी विलुप्त नहीं हो सकती। हो सकता है कि आज की मूल्यहीनता के दौर में हम जीवित अतीत बन जाएं किंतु गौरवशाली अतीत का हिस्सा बनना पतित वर्तमान का भाग बनने से कहीं बेहतर है।

इन अंतिम कड़ियों को पढ़कर मुझे यह आवश्यक लगा कि उन्हें यह आश्वासन देना चाहिए कि अपने वैचारिक संघर्ष में वे अकेले नहीं हैं, उनके सारे शिष्य और प्रशंसक उनके साथ खड़े हैं। किंतु अब मुझे अपनी भूल का अहसास हो रहा है, उनका एकाकीपन वैचारिक नहीं था, वे यह महसूस कर रहे थे कि उनका जीर्ण होता शरीर अब अधिक दिन उनका साथ नहीं दे पाएगा। यही कारण था कि उन्होंने किसी सच्चे मार्गदर्शक की भांति सच्चाई की राह में आने वाली कठिनाइयों की बेबाकी से चर्चा की ताकि हम रुमानियत के शिकार न हो जाएं और सच के लिए हमारा संघर्ष यथार्थ की कठोर बुनियाद पर टिका हो।

पूज्य ललित जी के देशबंधु को पत्रकारों की पाठशाला कहा जाता है। अब भी मेरे प्रदेश में जब कोई ऐसा पत्रकार मिलता है जिसकी खबरें तथ्यों पर आधारित होती हैं, जिसे सनसनी से परहेज है, जो जनसरोकार की पत्रकारिता करता है, जिसकी खबरें बुनियादी मुद्दों पर केंद्रित होती हैं और जिसकी अभिव्यक्ति में शालीनता होती है तो उससे पूछना ही पड़ता है कि तुमने पत्रकारिता कहाँ से सीखी? और उसका उत्तर प्रायः यही होता है कि वह या तो देशबंधु से प्रत्यक्षतः जुड़ा रहा है या देशबंधु का नियमित पाठक रहा है। आज राष्ट्रीय फलक पर चर्चित और प्रशंसित होने वाले अनेक पत्रकार देशबंधु के माध्यम से ही प्रशिक्षित हुए किंतु ललित सुरजन जी की इससे भी बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने देशबंधु के माध्यम से  वैज्ञानिक चेतना संपन्न एक विशाल पाठक वर्ग तैयार किया जो इतना समर्थ और सक्षम है कि उसे धर्म और संप्रदाय के आभासी मुद्दों द्वारा भरमाया नहीं जा सकता। 

देशबंधु ललित जी की आत्मा में रचा बसा था, आज वे तो नहीं हैं किंतु जब तक देशबंधु के माध्यम से शोषित-पीड़ित और दबे-कुचलों की आवाज़ बुलंदी से उठाई जाती रहेगी, जब तक साम्प्रदायिक षड्यंत्रों को बेनकाब कर मुहब्बत,अमन और भाई चारे का पैगाम फैलाया जाता रहेगा तब तक हम अपने आसपास पूज्य ललित जी की स्नेहिल और आश्वासनदायी उपस्थिति का अनुभव करते रहेंगे।

(डॉ राजू पाण्डेय लेखक और चिंतक हैं आप आजकल रायगढ़ में रहते हैं।)

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