Sunday, March 26, 2023

जीते जी किसी के सामने न झुकने वाले मज़रूह को मौत के बाद झुकाने की कोशिश

डॉ. मोहम्मद आरिफ
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मजरूह सुल्तानपुरी के गृह जनपद सुल्तानपुर जिसके कुशभवनपुर होंने की चर्चा आम है, में एक पार्क इस इंक़लाबी शायर के नाम पर है। तस्वीर में पार्क में घास-फूस का जंगल उगा हुआ है तो जनाब के नाम का लगा हुआ बोर्ड भी जमीदोज है।
इस मौके पर ग़ालिब का एक शेर पेश ए खिदमत है—

उग रहा है दर ओ दीवार पर सब्ज़ा ग़ालिब,
हम बयांबां में हैं और घर पर बहार आई है/

पर ये बहार भी क्या बहार है जो सब कुछ बहा कर ले चली है चाहे वो साहित्य हो,अस्मिता हो,साझापन हो या संस्कृति।

सुल्तानपुर मेरा आबाई शहर है और हमनें सूरज की पहली किरण यहां देखी। जैसे-जैसे होश आता गया इस इंक़लाबी शायर के साथ रिश्ता गहराता गया। कभी मजरूह हमारे वालिद के मेहमान हुआ करते थे और हमारे पसन्दीदा चचा। मजरूह सुल्तानपुरी के काम को न सिर्फ पसंद किया गया, बल्कि उसे सम्मानित भी किया गया। मजरूह पहले ऐसे गीतकार थे, जिन्हें दादासाहब फाल्के सम्मान दिया गया। यह सम्मान उन्हें फिल्म दोस्ती के गीत ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे, फिर भी कभी अब नाम को तेरे..आवाज मैं न दूंगा..’ के लिए दिया गया। ‘रहें न रहें हम….महका करेंगे…बनके कली, बनके सबा…बाग़-ए वका में…’ जैसे गीत लिखकर

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मजरूह सुल्तानपुरी 24 मई, 2000 को 80 साल की उम्र में इस दुनिया से रुख्सत हो गए।
मैंने मजरूह के तेवर देखें हैं और महसूस भी किया है। जिन्हें महाराष्ट्र में शिवसेना की पहली सरकार याद होगी उन्हें बाला साहब ठाकरे का अघोषित रुतबा भी याद ही होगा। किसकी मजाल जो उन्हें चुनौती दे सके। पर इसी मजरूह ने अपनी बुढ़ौती में न केवल उनकी उपेक्षा की बल्कि यह कहकर खुली बगावत भी कर दी की जिन ताक़तों का मैंने जिंदगी भर मुखालिफत की उनके हाथ से किसी तरह का न तो अवार्ड लूंगा और न ही मंच शेयर करूँगा अवसर था फिल्मी दुनिया के किसी बड़े अवार्ड समारोह का जिसमें बाल ठाकरे के हाथों इन्हें सम्मानित होना था।
आज वही अज़ीम शख्सियत अपने शहर में पांव तले पड़ा छटपटा रहा है।

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मजरूह का ये शेर शायद इसी दिन के लिए था—

ज़बां हमारी न समझा यहां कोई “मजरूह”,
हम अपने वतन में रहे किसी अजनबी की तरह/

चौंकिये नहीं दोस्त, मजरूह की झोली में आपके लिए भी एक शेर है उसका लुत्फ उठाइये और मजरूह को यूं ही छोड़ दीजिए—

जफ़ा के ज़िक्र पर तुम क्यूँ संभल के बैठ गए,
तुम्हारी बात नहीं बात है जमाने की/
एक बानगी और देखिए शायद वो शिकायती लहजे में अपनी बात कह दे रहे हैं–

रहते थे कभी उनके दिल में, हम जान से प्यारों की तरह,
बैठें है उन्हीं के कूंचे में हम,आज गुनाहगारों की तरह/

हमारे बीच में मजरूह अपने को कहां पाते हैं—

मजरूह लिख रहे हैं अहले वफ़ा के नाम,
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह/

छोड़िये मजरूह को उनके हाल पर मजरूह की तो आदत ही बगावत की है। मदरसे में पढ़ाई के दौरान बारहा मना करने के बावजूद फुटबाल खेलनें की ज़िद पर अड़े रहे और फिर निकाले गए। नेहरू की पालिसी से नाराज हुए तो उनके खिलाफ़ नज़्म लिख ही नहीं डाली बल्कि घूम-घूम कर पढ़ दी—

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“मन में जहर डॉलर के बसा के

फिरती है भारत की अहिंसा

खादी के केंचुल को पहनकर

ये केंचुल लहराने न पाए

अमन का झंडा इस धरती पर

किसने कहा लहराने न पाए

कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू

मार ले साथी जाने न पाए”

नतीजतन दो साल जेल की लम्बी हवा खानी पड़ी पर लाख समझाने पर भी माफी नहीं मांगी। कहा कि जो लिख दिया सो लिख दिया, गफलत में नहीं सोच-समझ कर लिखा है तो माफी क्यों मांगू और अपना बगावती तेवर बरकरार रखा।

सुतून ए दार पर रखते चलो सरों के चराग़,
जहां तलक ये सितम की सियाह रात चले/

किस्सा ख़त्म होता है। मजरूह फिर उठेंगे, स्थापित होंगे और कारवां बना लेंगे क्योंकि उन्हें तो अकेले चलने की आदत सी है–

मैं अकेला ही चला था ज़ानिब ए मंज़िल मगर,
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया/

पर मजरूह से बाबस्ता लोग फिक्रमंद हैं कि–

अब सोचते हैं लाएंगे तुझसा कहां से हम,
उठने को उठ तो आये तिरे आस्ता से हम/

(डॉ. मोहम्मद आरिफ इतिहासकार हैं और आजकल वाराणसी में रहते हैं।)

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