मैथिली-हिन्दी की सिरमौर साहित्यकार उषा किरण खान के गुजर जाने के मायने

मैथिली और हिन्दी की सिरमौर साहित्यकार उषा किरण खान भी गुजर गईं। उनके लेखन में कुछ तो है जो हमको इस लेख के माध्यम से उनको श्रद्धांजलि देने की जरूरत महसूस हुई। हमने ब्रिटिश हुक्मरानी के खिलाफ 1857 के सशस्त्र विद्रोह के बारे में अपने शोध में उषा दी के पूर्ववर्ती चंपानगर बनैली राज के ससुराल वालों की साकारात्मक भूमिका के सूत्र पाए हैं। इस विद्रोह की विफलताओं के बावजूद हिंदुस्तान के देशी शासकों के बीच अंतर धार्मिक भाईचारे के रिश्ते थे।

अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र के पोते गोरगन को अंग्रेज हुकूमत ने उनके दोनों शहजादों की तरह मौत के घाट नहीं उतारा था। पर हुक्म दिया था कि वह तीन महीने से ज्यादा किसी जगह नहीं रह सकते। उन्हें उत्तर प्रदेश के काशी नरेश के पास रहते तीन माह गुजरे तो दरभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह (25 सितंबर 1858 : 16 नवंबर 1898 ) उनको अपने राज्य ले आए। वह बाद में बनैली राज आ गए जहां दिवंगत प्रख्यात इतिहासकार रामशरण शर्मा और डीएन झा भी रहे थे। बांग्ला साहित्यकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय बनैली राज के अमीन रहे थे और कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का भी कुछ अरसा बनैली राज में गुजरा था।

उषा दी की बड़ी विवाहित बेटी अनुराधा अभी मध्य प्रदेश की अपर पुलिस महानिदेशक हैं। उषा दी के एक मैथिली उपन्यास ‘अगनहिंडोला’ का एक चरित्र अब्दुर्रहीम खानखाना के रिश्ते में नाना हसन खां मेवाती का है जिन्होंने 16 मार्च 1527 में पहले मुगल बादशाह जहीरुद्दीन बाबर और राजस्थान में चित्तौड़ के राणा सांगा के बीच खानवा की लड़ाई में बाबर के खिलाफ मोर्चा लिया था।

गोरगन का वास्तविक नाम जुबैरुद्दीन गोरगन था जिसे मुगलिया वंश का आखरी चिराग माना गया था। उनकी लिखी एक किताब का नाम मौजे सुल्तानी है। अंग्रेज हुक्मरानों ने गोरगन को पकड़ने के लिए दरभंगा महाराज को महाराजाधिराज की उपाधि देने लोभ दिया। पर उन्होंने सन्देश भेज दिया कि गोरगन को वचन दे चुके हैं और वह आजीवन उनके पास ही रहेंगे। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह और हैदराबाद के निज़ाम के बीच टकराव में गोरगन के हस्तक्षेप का जिक्र मिलता है।

उषा दी को साहित्य में उनके योगदान के लिए पद्मश्री से नवाजा गया था। उन्होंने बच्चों पर लिखा, ‘हीरा डोम’ जैसे नाटक लिखे, कहानियां, उपन्यास और अपने संस्मरण भी लिखे। बाबा नागार्जुन उनके पिता के मित्रवत थे। हालांकि उनका विवाह अल्पवय में हो गया था उन्होंने अपनी नई गृहस्थी संभालने के साथ ही पढ़ाई जारी रखी और साहित्य अनुरागी औरतों के लिए ‘आयाम’ नामक संगठन भी बनाया।

मोदी हुकूमत में हैदराबाद में तेलंगाना विश्वविद्यालय के मेधावी दलित छात्र रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करने के लिए आयाम की तरफ से एक चौराहे पर कविता पाठ किया गया। उनकी एक कहानी ‘पीड़ा के दंश’ में पुरुष प्रधान हिन्दुस्तानी समाज में औरतों की योन दशा का लखनऊ की इस्मत चुगताई की उर्दू कहानी लिहाफ जैसा चित्रण है। उनकी कहानियां लीक से हट कर हैं जिनमें शहरी परिवेश ही नहीं गांवों की सरल जिंदगियों और प्यार मोहब्बत के रंग भी है।

उषा दी का निधन 79 बरस की उम्र में 11 फरवरी 2024 को पटना के एक अस्पताल में हुआ। उनका जन्म दरभंगा के उपनगर लहेरियासराय के घर 24 अक्टूबर 1945 को हुआ था। वह अपनी 5 बहनों में दूसरी सबसे बड़ी थी। उषा दी के पति रामचन्द्र खां इंडियन पुलिस सर्विस में थे जिनका निधन पिछले बरस हुआ था। दोनों की चार संतानें हुई। उषा दी को उनके मैथिली उपन्यास ‘भामति एक अविस्मरणीय प्रेमकथा’ साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उनका 2012 में छापा उपन्यास ‘सृजनहार‘ भी चर्चित है।

(चंद्र प्रकाश झा वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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