हमारा नीरो क़िस्सागो है!

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एक बार की बात है, जम्बूद्वीप में एक राजा था। बड़ा ही किस्सागो। जैसा की चलन है कि हर राजा में कुछ न कुछ विशेष होना ही चाहिए, जैसे रोम के राजा को बांसुरी बजाने में महारत थी। जर्मनी के राजा को मानव सभ्यता के इतिहास में खुद के श्रेष्ठ मानने की धुन सवार रहती थी। ब्रिटेन के राजा-रानियों को पूरी दुनिया को बाग-बगीचा बनाकर घूमने और अमेरिका के राजाओं को दरोगाबाजी की लत थी। उसी तरह जम्बूद्वीप के राजा को किस्सागोई में महारत हासिल थी। उनकी किस्सागोई के चर्चे उत्तरी ध्रुव के पिघलते ग्लेशियरों से लेकर अरब के फैलते रेगिस्तानों में उड़ती रेत के कण-कण तक पहुंच चुके थे। कुछ किस्सों को यूनिवर्सिटी में पढ़ाया जाने लगा और उन पर शोध होने लगे। दुनिया के व्यापारियों ने किस्सागोई को किसी भी घाटे को पाटने के लिए प्रबंधन का श्रेष्ठतर उपाय माना और किस्सागो पर निवेश को सबसे सुरक्षित बताया।

इसी बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किस्सागोई को किसी भी महामारी से निपटने की सबसे कारगर वैक्सीन घोषित कर दी। श्रेष्ठता के अहं में जी रहे कुछ पूर्वी-पश्चिमी देशों के राजाओं को राजा की किस्सागोई के चर्चा से इर्ष्या होने लगी। उनकी शह पर पड़ोसी देश के खिलाड़ी राजा ने किस्सागो के अंतरराष्ट्रीय संगठन में वादियों, घाटियों में झगड़े-झंझट और गलत बंटवारे की बहुत ही उबाऊ कहानियां सुनाकर खुद को स्थापित किस्सागो घोषित करने की मांग कर डाली। पर उसकी मांग को उसके ही देश के चुटकुलेबाज नेताओं ने खारिज कर दिया और नई कहानी लिखने मुल्क छोड़ कर लंदन चले गए।

राजा ने अपनी किस्सागोई से राज्य की जनता को विश्वास दिला दिया कि संविधान जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, वास्तव में वह किस्सागोई की स्वतंत्रता है। जनप्रतिनिधियों की सभा अपनी खुद की गरीबी दूर करने के मामले को छोड़ कर किस्सागोई की स्वतंत्रता की रक्षा में व्यस्त रहती थी। जनता से संवाद बना रहे इसके लिए किस्सागोई को विधेयक कहने की भी परंपरा थी।

सभा की कार्रवाइयों में दर्ज है कि सभी सदस्यों को किस्सागोई का बराबर अवसर दिया जाता था। किसी-किसी का किस्सा इतना ज्यादा बोझिल और पुराना हो जाता था कि सभापति महोदय उबासी लेते जनप्रतिनिधियों को ध्वनिमत समझ कर किस्से को पास कर देते थे। कुछ अति उत्साही प्रतिनिधि इसमें ख़लल डालने के लिए कभी-कभी हल्ला-गुहार मचाते और मारपीट कर डालते, इससे किस्सागोई में रोचकता बनी रहती थी।

गरीब उद्योगपतियों की मदद के लिए सरकारी फैक्ट्री दान देने की ‘निजीकरण’ की परंपरा के पालन, धन के रंग को बदलने, किसानों को ‘बंधनमुक्त’ करने जैसे कुछ किस्से इसी तरह उबासियों की यात्रा कर सदन से बाहर देशवासियों तक पहुंचे हैं। वैसे प्रतिनिधियों की सभा में विपक्षी जैसे कुछ था नहीं, पर कुछ असंतुष्ट लोग थे जो कमजोर किस्सागो थे और अपनी कमजोर होती राजनीतिक और आर्थिक ताकत से बेचैन रहते थे। ऐसे लोग राजा की किस्सागोई में बाधा पहुंचाते थे। राजा ने उन्हें पहचान लिया था और नकली चुटकुले बनाने के जुर्म में मुकदमें शुरू करा, उनके ठिकानों पर छापेमारी करवाई।

इसी दौरान राज्य में एक और घटना घटी। राज्य में एक विदेशी मोटरसाइकिल बनाने की कंपनी ने अपनी फैक्ट्री लगाई थी। इस कंपनी की एक मोटरसाइकिल की कीमत ठीकठाक घूसखोर अफसर की साल भर की कमाई के बराबर थी। विदेशी कंपनी ने राज्य के आत्मनिर्भर हो जाने की अंतरराष्ट्रीय घटना से प्रभावित होकर फैक्ट्री बंद कर दी। कंपनी ने काम बंद करने से पहले फैक्ट्री में बचे-खुचे पुर्जों से कुछ मोटरसाइकिल बनाईं। उसने राज्य के मूर्तिन्याय सहित, प्रभावशाली लोगों को एक-एक मोटरसाइकिल भेंट की।

सभी ने अपनी-अपनी मोटरसाइकिल पर चढ़कर फोटो खिंचाई। एक आंदोलनबाज वकील ने मूर्तिन्याय की मोटरसाइकिल वाली फोटो पर अति लघुकथा लिख दी, इससे नाराज होकर मूर्तिन्याय ने सौ पैसे का जुर्माना ठोंक दिया। हालात इतने ख़राब हो गए कि जुर्माना जमा करने के लिए आंदोलनबाज वकील को अपने एक साथी वकील से ‘न लौटाने वाला’ उधार लेना पड़ा। इस घटना से राज्य की जनता पर बड़ा गहरा असर पड़ा और जनता को पैसों के साथ-साथ किस्सागोई की अहमियत समझ में आ गई।

ठीक इसी कालखंड में राज्य में महामारी फैल गई। बेरोजगारी और महंगाई जाने क्यों महामारी से कंपटीशन करने लगीं कि वह ज्यादा तेजी से बढ़ सकती हैं, और तो और महामारी के कारण राज्य के किसान भी अपना अच्छा-बुरा सोचने की क्षमता खो बैठे। ऐसे में राजा ने तय किया कि लोगों को महामारी, गरीबी, बेरोजगारी और किसानों को बाजार से मुक्ति दिलाने और बड़ी-बड़ी कंपनियों को किसानों के घर के सामने झोला लेकर खड़े करने के लिए अपनी किस्सागोई की क्षमता का इस्तेमाल करेंगे।

राजा के आदेश पर राज्य में हिंसा, बलात्कार की घटनाओं से निपटने के लिए भी किस्सगोई ही कारगर हथियार माना गया। हालांकि राजा को उनकी पालनहार राष्ट्रीय संस्था ने प्रशिक्षित किया था कि सत्ता में रहो तो ध्यानाकर्षण में और विपक्ष में रहो तो ध्यान भटकाने पर पूरा ध्यान रखना ही शासन का मूलमंत्र है। इस मूलमंत्र का ध्यान करते हुए राजा ने जनता का ध्यान भटकाने के उपायों पर अपना मन एकाग्र किया। इसका नतीजा यह हुआ कि किस्सागोई को देश की समस्याओं से निपटने के लिए सभी मोर्चों पर तैनात कर दिया गया।

वैसे राजा अतिलघु कथाओं के जरिए लगातार जनता का मनोरंजन करता रहता था। वह किस्सागोई के लिए जनसंचार के वृहद साधनों का इस्तेमाल करता था। राजा को चीख-पुकार और पीछा करने वाली लोकप्रिय मीडिया का समर्थन और विरोधियों को राजद्रोही बताने वाले उपाहन संस्कार में दक्ष समर्थकों का अपार सहयोग लगातार मिलता था। राजा किस्सागोई के लिए नए-नए विषयों पर सोचता और अपने ‘मन की बात’ को जनता से साझा करता रहता था। वह नहाने-धोने, साफ-सफ़ाई के फायदों जैसी मानव सभ्यता को त्रासदी से उबारने वाली कहानियों, आपदा को अवसर में बदलने की कलाओं, खिलौनों की आवश्यकताओं आदि विषयों पर लगातार किस्सागोई कर चुके थे। अब देश की बिगड़ती हालत को देखकर राजा ने अपनी किस्सागोई की विशेषज्ञता से लोगों को रूबरू कराने का निर्णय लिया।

किस्सागोई के बारे में राजा ने भ्राता-भगिनी की अनूठी संवादशैली में अपनी मन की बात को जनता के सामने रखा। राजा ने घोषित किया की देश किस्सागोई में काफी प्रगति कर चुका है, देश की जनता बेरोजगारी और महंगाई के रोजाना किस्से, लघुकथाएं और चुटकुलों की खुराक से ही जिंदा है। हर कोई अपनी कहानी कह रहा है या दूसरे की कहानी अपनी ओर से कह रहा है। सबके अपने-अपने कथालय हैं। देश में चल रही तमाम न्यूज़ वेबसाइट किस्सागोई के अभियान को आगे बढ़ाने वाली वेबसाइट ही हैं। मीडिया को किस्सागोई का नशा है और नशे को किस्सागोई की शरण मिल रही है।

राज्य पर आई आपदा से निपटने के लिए की गई किस्सागोई में राजा ने बड़े आत्मविश्वास से बताया कि कोरोना के समय में परिवार में बड़े-बुजुर्ग और परिवार के वरिष्ठ ने जरूर कोई न कोई कहानी सुनाई होगी। 70 साल के गैर राजनीतिक बुजर्ग ने जो भी कहानी सुनाई होगी उसमें वह अपने परिवार के लिए हीरो और सरकार के लिए 70 साल की नाकामी का गवाह माना जाएगा। राजा ने बताया की राज्य में मुकुटधारी बैगन का इकबाल बुलंद है और मुकुटधारी बैगन के पास कई बावर्ची हैं।

किसानों के बंधनों से आजाद होने और एक 23 साल के जुनूनी भगत सिंह के जज़्बे को सर्जिकल स्ट्राइक के सैनिकों से जोड़ते हुए राजा ने हमेशा की तरह किस्सागोई को देश प्रेम से जोड़ ही दिया। इसके बाद वह गांधी जी की शरण में गए और गांधी जी के आर्थिक चिंतन की आत्मा को राज्य के लिए जरूरी बताते हुए शोक व्यक्त किया और देश को बताया कि पिछले 70 साल में गांधी जी के आर्थिक चिंतन की आत्मा भटकती रही और उसे किसी ने पकड़ा नहीं।

आत्मनिर्भर भारत अभियान लाकर भटकती आत्मा को शांति दी गई है। राजा ने जनता को सलाह दी कि लोग 1857 से 1947 तक के इतिहास की हर छोटी-बड़ी घटना की कहानियां सुनें और सुनाएं। मानसिक शून्यता के पैराकार स्वंसेवा संगठनों के बावर्ची सोचने लगे कि अगर जनता ने ऐसी कहानियां सुननी-सुनानी शुरू कर दीं तो सबसे ज्यादा नुकसान किसका होगा?

अंततोगत्वा जनता ने समझ लिया कि ‘जहां कहीं भी आत्मा है, वहीं कहानी है।’ यानी बिना कहानी के आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं। हर कहानी की अपनी एक आत्मा है और हर आत्मा की एक कहानी है। कई जगह कहानी ही आत्मा है और आत्मा खुद ही कहानी है। ऐसे में देश पर आई आपदा कहानी और इस आपदा को अवसर में बदलने की व्यवस्था देश की आत्मा बन चुकी है।

जब किसानों की कहानी को मिटाने की कोशिश हो रही हो, मेहनतकश मजदूरों को भीड़ मान लिया गया हो तो किसी वायुसेना अफसर की बीवी, मनोचिकित्सक, इंजीनियर, उद्योगपति ‘स्टोरी टेलर’ बनते हैं और प्रेमचंद की आत्मा कहानी बन जाती है। एक-दूसरे से दूर होते लोगों को, महामारी से बचाव के लिए सामाजिक दूरी की सलाह के साथ खत्म हुए राजा के भाषण ने जनता को बहुत प्रभावित किया। जनता इतनी प्रभावित हुई कि वह दास मलूक को विस्मृत करते हुए फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर के मालिकों की अंखियों की दास बन गई।
• संदीप दुबे
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और मीडिया स्कालर हैं।)

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