नेहरू जयंती पर विशेष: पंडित नेहरू और शेख अब्दुल्ला के कारण ही कश्मीर बन सका भारत का हिस्सा

भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत कई व्यक्ति व संगठन जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर समस्या के लिए जिम्मेदार मानते हैं। परंतु इसके विपरीत पूरे विश्वास से यह दावा किया जा सकता है कि यदि जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला नहीं होते तो जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं बन पाता। भारत को आजादी देने के लिए ब्रिटिश संसद ने जो कानून बनाया था उसके अनुसार इंडिया को दो राष्ट्रों में विभाजित किया जाना था। भारत की सभी रियासतों को तीन विकल्प दिए गए थे। वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकते थे या आजाद भी रह सकते थे। उन्हें यह फैसला दोनों राष्ट्रों के बनने के पहले लेना था। फैसला लेने का अधिकार संबंधित रियासत के राजा/नवाब को दिया गया था।

बहुसंख्यक रियासतों के शासकों ने सन् 1947 के अगस्त माह के पहले ही निर्णय ले लिया था। परंतु कुछ राज्यों ने, जिनमें कश्मीर, हैदराबाद व भोपाल शामिल थे, भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय न लेते हुए यह स्पष्ट कर दिया था कि वे आजाद रहना चाहेंगे। कश्मीर के राजा हरिसिंह ने घोषणा कर दी कि वे कश्मीर को एशिया का स्विटजरलैंड बनाना चाहेंगे। उन्होंने पाकिस्तान से एक समझौता कर यह गारंटी ले ली कि वह हरिसिंह के निर्णय का साथ देगा।

परंतु इन रियासतों की जनता भारत में शामिल होना चाहती थी। उस दौरान शेख अब्दुल्ला जम्मू व कश्मीर के सर्वमान्य नेता थे। वे चाहते थे कि कश्मीर का विलय भारत में हो। उनके इस निर्णय के पीछे उनके वे सिद्धांत व आदर्श थे जिनमें उनकी गहरी आस्था थी। आजादी के संघर्ष के दौरान जिसे ब्रिटिश राज कहते थे, वहां संघर्ष का नेतृत्व कांग्रेस के हाथ में था और राजे-रजवाड़ों में आजादी के आंदोलन का नेतृत्व प्रजामंडल के हाथ में था। प्रजामंडल के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे। शेख अब्दुल्ला इसके एक प्रमुख नेता थे। प्रजामंडल के आदर्श और सिद्धांत वही थे जो कांग्रेस के थे अर्थात धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, भूमि सुधार, संसदीय प्रजातंत्र इत्यादि। इसके अतिरिक्त शेख अब्दुल्ला नेहरू को अपना नेता मानते थे।

शेख अब्दुल्ला के कारण जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग कश्मीर में अपनी जड़ें नहीं जमा पाई थी। जब जिन्ना ने सारे देश के मुसलमानों से डायरेक्ट एक्शन का आव्हान किया था तब मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र होने के बावजूद कश्मीर में जिन्ना और लीग को जीरो रिस्पांस मिला।

जब सारा भारत आजाद हुआ तब तक कश्मीर के राजा हरिसिंह यह निर्णय नहीं ले पाए थे कि वे अपनी रियासत का विलय भारत या पाकिस्तान में करेंगे। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए पाकिस्तान ने कश्मीर में अपनी फौज भेज दी। लेकिन ये फौजी आदिवासियों (कबाईलियों) की वेशभूषा में थे। कश्मीर में कोई भी इन आक्रमणकारियों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं था। जब पाकिस्तानी फौज श्रीनगर से चन्द मील दूर रह गई तब हरिसिंह श्रीनगर छोड़कर भाग गए और उन्होंने जम्मू में शरण ले ली। इस दरम्यान उन्होंने भारत से सहायता मांगी। भारत में उस समय तक अंग्रेजों का शासन था और माउंटबेटन वायसराय थे।

माउंटबेटन ने शर्त रखी कि वे तभी सहायता करेंगे जब हरिसिंह भारत में कश्मीर के विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर देंगे। घबराये हुए हरिसिंह को बताया गया कि वी. पी. मेनन विलय के दस्तावेज लेकर आ रहे हैं। हरिसिंह ने अपने एडीसी से कहा कि मेरे तकिए के नीचे पिस्तौल रखी है। यदि तीन बजे तक मेनन नहीं आए तो मेरी पिस्तौल से ही मेरी हत्या कर देना। समय रहते मेनन आ गए और विलय के दस्तावेज पर हरिसिंह के हस्ताक्षर करवा लिए गए। विलय जिन शर्तों पर किया गया था, उन्होंने ही आगे चलकर धारा 370 का रूप लिया।

यह आरोप भी लगाया जाता है कि शेख की शह पर पाक फौज जीपों व ट्रकों पर सवार होकर कश्मीर में चढ़ी चली आई। यह आरोप पूरी तरह से बेबुनियाद है। यदि इस आरोप में कोई दम है तो शेख बहुत आसानी से कश्मीर पाकिस्तान को सौंप सकते थे। परंतु ऐसा नहीं था क्योंकि शेख ने कश्मीर की जनता को अपने विचारों में ढाल लिया था। इस हमले की निंदा करते हुए कश्मीर के सर्वमान्य नेता शेख अब्दुल्ला ने कहा कि ये हमलावर हथियारों से सुसज्जित थे। इन हमलावरों ने भयानक तबाही मचाई – लोगों को लूटा, महिलाओं के साथ बदसलूकी की। ये अपराधी थे जिन्हें कुछ लोगों ने कश्मीर को आजाद कराने वाला शहीद बताया। इन्होंने बच्चों को मारा और कुरान तक का अपमान किया। ब्रिटेन के अप्रत्यक्ष समर्थन से हुए पठानों के इस हमले से भी जब कश्मीर को पाकिस्तान में नहीं मिलाया जा सका तो जनमत संग्रह की बात की जाने लगी। परंतु माउंटबेटन को लगा कि यदि उस कश्मीर में जनमत संग्रह होगा जिसका विलय भारत में हो चुका है तो उसका नतीजा भारत के हक में ही होगा।

भारत के विभाजन के पूर्व ब्रिटेन के आखिरी वायसराय और गर्वनर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने पूरा प्रयास किया कि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाए। जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, इस बीच कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने यह घोषणा कर दी कि वे कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बनाकर उसे एशिया का स्विटजरलैंड बनाना चाहेंगे। इसी बीच ब्रिटेन की जानकारी के चलते पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। हमला फौज ने नहीं बल्कि कबीलाई पठानों ने किया। इसके बाद माउंटबेटन लाहौर गए और वहां उन्होंने जिन्ना से मुलाकात की। जिन्ना ने सुझाव दिया कि दोनों देशों की सेनाओं को कश्मीर से हट जाना चाहिए। इस पर माउंटबेटन ने पूछा कि आक्रमणकारी पठानों को वहां से कैसे हटाया जाएगा। इस पर जिन्ना ने कहा कि यदि आप उन्हें हटाएंगे तो समझो कि अब किसी भी प्रकार की बात नहीं होगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत के विभाजन के पहले जिन्ना कश्मीर गए थे। वहां उन्होंने यह कोशिश की थी कि कश्मीर के मुसलमान उनका साथ दें। परंतु कश्मीर के मुसलमानों ने स्पष्ट कर दिया कि वे भारत के आजादी के आंदोलन के साथ हैं तथा दो राष्ट्रों के सिद्धांत के विरोधी हैं।

लाहौर से वापस आने पर माउंटबेटन ने सुझाव दिया कि सारा मामला संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दिया जाए। 1 जनवरी 1948 को सारा मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद को सौंप दिया गया। जैसे ही मामला सुरक्षा परिषद को सौंपा गया ब्रिटेन ने भारत के विरूद्ध बोलना प्रारंभ कर दिया। इस बीच ब्रिटेन व अमेरिका ने भारत की हमले की शिकायत को भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद का रूप दे दिया। सुरक्षा परिषद की बैठक में ब्रिटेन ने भारत की तीव्र शब्दों में निंदा की। इस बीच ब्रिटेन ने भारत पर युद्धविराम का प्रस्ताव मंजूर करने का दबाव बनाया। ऐसा उस समय किया गया जब भारतीय सेना आक्रमणकारियों को पूरी तरह से खदेड़ने की स्थिति में थी। परंतु ब्रिटेन व अमेरिका जानते थे कि यदि भारत ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया तो कश्मीर की समस्या सदा के लिए समाप्त हो जाएगी। इसलिए उन्होंने जबरदस्त दबाव बनाकर युद्धविराम करवा दिया।

युद्धविराम का नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में बना रहा। इस बीच जनमत संग्रह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। परंतु उसके साथ यह शर्त रखी गई कि पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना हटा लेगा। इसके साथ ही यह शर्त भी रखी गई कि पाकिस्तान उन कबीलाइयों और पाकिस्तान के उन नागरिकों को वहां से हटाने का प्रयास करेगा जो वहां पाकिस्तान की ओर से युद्ध कर रहे थे। पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव को स्वीकार तो कर लिया परंतु ब्रिटेन व अमेरिका ने पाकिस्तान पर इस पर अमल करने के लिए दबाव नहीं बनाया। इसका कारण यह था कि ये दोनों देश जानते थे कि यदि पाकिस्तान द्वारा कश्मीर से अपनी फौज हटा ली जाएगी तो वहां होने वाले जनमत संग्रह के नतीजे भारत के पक्ष में होंगे।

जब यह स्पष्ट हो गया कि जनमत संग्रह के माध्यम से ब्रिटेन व अमेरिका कश्मीर पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना दबदबा नहीं रख पाएंगे तो उन्होंने एक नई चाल चली। दोनों देशों ने सुझाव दिया कि कश्मीर के मामले का हल मध्यस्थता के माध्यम से निकाला जाए। इस संबंध में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली और अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमेन ने औपचारिक प्रस्ताव भेजा। दोनों देशों ने नेहरूजी पर इतना दबाव बनाया कि उन्हें सार्वजनिक रूप से अपनी असहमति जाहिर करनी पड़ी। नेहरू ने यह आरोप लगाया कि ये दोनों देश समस्या को सुलझाना नहीं चाहते बल्कि अपने कुछ छिपे इरादों को पूरा करना चाहते हैं। बाद में यह भी पता लगा कि मध्यस्थता के माध्यम से ब्रिटेन और अमेरिका कश्मीर में विदेशी सेना भेजना चाहते थे। इस मामले की गंभीरता को समझते हुए सोवियत संघ ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना आवयश्यक समझा। सन् 1952 के प्रारंभ में सुरक्षा परिषद को संबोधित करते हुए सोवियत संघ के प्रतिनिधि याकोव मौलिक ने कहा कि पिछले चार वर्षों से कश्मीर की समस्या इसलिए हल नहीं हो पा रही है क्योंकि ब्रिटेन व अमेरिका अपने साम्राज्यवादी इरादों को पूरा करने के लिए कश्मीर को अपने कब्जे में रखना चाहते हैं, इसलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ के माध्यम से ऐसे प्रस्ताव रख रहे हैं जिनसे कश्मीर इनका फौजी अड्डा बन जाए। इसके बाद सोवियत संघ ने ब्रिटेन और अमेरिका के उन प्रस्तावों को वीटो का उपयोग करते हुए निरस्त करवा दिया जिनके माध्यम से ये दोनों देश कश्मीर को अपना उपनिवेश बनाना चाहते थे।

सन् 1957 में पुनः सुरक्षा परिषद में कश्मीर के प्रश्न पर एक लंबी बहस हुई। बहस में भाग लेते हुए सोवियत प्रतिनिधि ए ए सोवोलेव ने दावा किया कि कश्मीर की समस्या बहुत पहले अंतिम रूप से हल हो चुकी है। समस्या का हल वहां की जनता ने निकाल लिया है और तय कर लिया है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।

इस बीच अनेक ऐसे मौके आए जब जवाहरलाल नेहरू ने कड़े शब्दों में ब्रिटेन व अमेरिका की निंदा की। इस दरम्यान अमेरिका ने पाकिस्तान को भारी भरकम सैन्य सहायता देना प्रारंभ कर दिया। नेहरू ने बार-बार कहा कि वे किसी हालत में इन साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव में नहीं आएंगे न अगले वर्ष और ना ही भविष्य में कभी।

इस बीच एक ऐसी घटना हुई जिसकी कल्पना कम से कम जवाहरलाल नेहरू ने नहीं की थी। वर्ष 1962 के अक्टूबर में चीन ने भारत पर हमला कर दिया। चीनी हमले के बाद अमेरिका व ब्रिटेन ने भारत को नाम मात्र की ही सहायता दी और वह भी इस शर्त के साथ कि भारत कश्मीर समस्या हल कर ले। अमेरिका के सवेरोल हैरीमेन और ब्रिटेन के डनकन सेन्डर्स दिल्ली आए। दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होंने चीनी हमले की चर्चा कम की और कश्मीर की ज्यादा। भारत की मुसीबत का लाभ उठाते हुए अमेरिका ने मांग की कि भारत में वाइस ऑफ़ अमेरिका का ट्रांसमीटर स्थापित करने की अनुमति दी जाए और सोवियत संघ से की गई संधि को तोड़ दिया जाए।

कुल मिलाकर अमेरिका और ब्रिटेन ने कश्मीर के प्रश्न पर भारत का साथ न देकर पाकिस्तान का साथ दिया। अमेरिका व ब्रिटेन प्रजातांत्रिक देश हैं परंतु अपने संकुचित स्वार्थों की खातिर इन दोनों देशों ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का साथ न देकर एक तानाशाही देश का साथ दिया। यदि ये दोनों देश भारत का साथ देते तो कश्मीर की समस्या कब की हल हो गई होती।  

सारी दिक्कतों और कमजोरियों के बाद भी नेहरू अमरीका व ब्रिटेन के सामने नहीं झुके। नेहरू की दृढ़ता की अटल बिहारी वाजपेयी ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। नेहरूजी की मृत्यु के बाद वाजपेयी ने एक अत्यंत भावनाओं से ओतप्रोत भाषण दिया था। नेहरू की दृढ़ता का उल्लेख करते हुए वाजपेयी ने कहा था:

“मुझे याद है चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें तब एक दिन मैंने नेहरूजी को बड़ा क्रुद्ध पाया। जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो वे बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे। वे किसी दबाव में आकर बातचीत करने के खिलाफ थे। पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण का प्रतीक थी। उसमें उदारता भी थी और दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा।”

बार-बार यह बात कही जाती है कि यदि पटेल के हाथ में कश्मीर का मसला होता तो स्थिति कुछ और होती। कश्मीर का मसला सुरक्षा परिषद में जाने के बाद नेहरू को उसे अपने हाथ में लेना पड़ा। उसके पहले तक पटेल इसमें पूरी दिलचस्पी ले रहे थे। पटेल के कई बार बुलाने के बाद भी हरिसिंह दिल्ली नहीं आए। जब वे दिल्ली नहीं आए तो पटेल ने संदेश भेजा कि मैं स्वयं वहां आता हूं। इस पर हरिसिंह ने कहा कि यदि आप श्रीनगर आए तो मैं आपको गिरफ्तार कर लूंगा। इस पर नेहरू ने कहा कि मैं आता हूं। इस पर हरिसिंह ने कहा कि “मैं आपको गिरफ्तार कर लूंगा”। तब पटेल ने माउंटबेटन से कहा कि अभी तो आप ही कश्मीर के मालिक हैं। इसपर माउंटबेटन ने पूछा कि मैं हरिसिंह से क्या कहूं। इसपर पटेल ने कहा कि आप हरिसिंह से कहें कि यदि वह भारत में शामिल नहीं होना चाहते तो पाकिस्तान में शामिल हो जाएं। आजाद होने का सपना न देखें। यदि आप आजाद रहोगे तो सबको तकलीफ होगी। पर हरिसिंह नहीं माने। इसके बाद पाकिस्तान ने हमला कर दिया। विलय के बाद पाकिस्तानी हमले का मुकाबला करने की जो तैयारी की गई उसमें पटेल का पूरा सहयोग रहा।

तैयारी के दौरान पटेल और नेहरू की जो बातचीत हुई उसे एक पुस्तक लिबर्टी अपडेट’ में उद्धृत किया गया है। पटेल ने पाकिस्तानी हमलावरों को खदेड़ने की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली। डिफेन्स मीटिंग में पटेल ने महसूस किया कि नेहरू अभी तक कुछ तय नहीं कर पाए हैं। पटेल ने जरा गुस्से भरे स्वर में कहा “जवाहरलाल तुम कश्मीर को बचाना चाहते हो या नहीं”। नेहरू ने कहा कि “मैं हर हालत में कश्मीर चाहता हूं। कश्मीर तो मेरे सीने पर लिखा है”। इस पर सरदार ने सेना के अधिकारियों से कहा “देखो अब प्रधानमंत्री का आदेश हो गया है”। इसके बाद पटेल ने आल इंडिया रेडियो के माध्यम से सभी निजी विमान कंपनियों से कहा कि वे अपने हवाई जहाज शीघ्र भेजें। इसके बाद सैनिकों और हथियारों से लदे हवाई जहाज श्रीनगर के लिए रवाना कर दिए गए।

गांधीजी ने कश्मीर में भारतीय सैन्य हस्तक्षेप को उचित ठहराते हुए कहा कि बर्बर घुसपैठियों से कश्मीर की निहत्थी जनता की रक्षा करने के लिए यह आवश्यक है।

16 मार्च 1950 को लिखे गए एक पत्र में सरदार पटेल लिखते हैं “However, as you say, the Kashmir problem can only be solved peacefully to a partial dissatisfaction of both sides. We on our part realise it but a recognition of this has to come from other side.” इसी तरह 25 फ़रवरी 1950को पटेल नेहरु को संबोधित करते हुए पत्र में लिखते हैं “As you have pointed the question of Kashmir is before the security council. Having invoked a forum of settlement open to both India and Pakistan, as member of the United Nations Organisation, nothing further need be done in the way settlement of disputes”.  यह पत्र इस बात का प्रतीक है कि यूएन को कश्मीर का मामला सबकी सहमति से लिया गया था। 

जहां नेहरू को अंतर्राष्ट्रीय दबाव का सामना करना पड़ रहा था वहीं देश के भीतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा आदि संगठनों ने धारा 370 के विरूद्ध आंदोलन छेड़ दिया। जम्मू में आंदोलन ने व्यापक रूप ले लिया। आंदोलन का नारा था “दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे”। दिल्ली में भी आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। नेहरू और शेख दोनों आंदोलनकारियों के निशाने पर थे। आंदोलन का नेतृत्व डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी कर रहे थे। डॉ मुखर्जी नेहरूजी के नेतृत्व वाली अंतरिम मंत्रिपरिषद के सदस्य रह चुके थे, जिसने कश्मीर की समस्या के संबंध में प्रारंभिक नीति बनाई थी। डॉ मुखर्जी हिन्दू महासभा के नेता थे। बाद में उनके नेतृत्व में जनसंघ की स्थापना हुई। डॉ मुखर्जी आंदोलन के दौरान कश्मीर गए जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में वे बीमार हो गए और जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। सेना के विमान से उनका शव कलकत्ता ले जाया गया जहां विशाल जनसमूह ने उन्हें अंतिम विदाई दी।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह सारा घटनाक्रम भारत के आजाद होने के काल का है। नव स्वतंत्र भारत उस समय भयानक साम्प्रदायिक दंगों, करोड़ों शरणार्थियों के आगमन, सत्ता हस्तांतरण, कश्मीर के अलावा अन्य कई रियासतों के भारत में विलय और कई अन्य जटिल समस्याओं से जूझ रहा था। उसी दौरान भारतीय संविधान भी तैयार हो रहा था। इसी बीच गांधीजी की हत्या की विपत्ति ने भी दुनिया को हिला दिया। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में हिमालय जैसी समस्याओं का मुकाबला करते हुए यदि कश्मीर के मामले में नेहरूजी ने कोई छोटा-मोटा गलत निर्णय ले लिया हो या कोई निर्णय लेने में देर कर दी हो तो उसे उदारतापूर्वक नजरअंदाज किया जाना चाहिए। 

इसी बीच कश्मीर में शेख के खिलाफ षड़यंत्र प्रारंभ हो गए। यह बात जोरशोर से फैलाई जाने लगी कि शेख कश्मीर को स्वतंत्र देश घोषित करने वाले हैं। इस तरह की अफवाहें उन्हीं की पार्टी के कुछ लोग फैला रहे थे। इस बीच शेख की एक प्रमुख अमरीकी नेता से मुलाकात हुई। इन्हीं अफवाहों के बीच तत्कालीन सदर-ए-रियासत युवराज कर्णसिंह ने आधी रात को पहले शेख को प्रधानमंत्री के पद से बर्खास्त किया और थोड़े समय बाद उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। कई किताबों में लिखा गया है कि शेख की गिरफ्तारी नेहरूजी को बताए बिना की गई थी। शेख को हटाने के बाद बख्शी गुलाम मोहम्मद को कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया गया। बख्शी के शासनकाल में कश्मीर में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया। उस समय कश्मीर में बख्शी के शासन को बीबीसी अर्थात “बख्शी ब्रदर्स करप्शन” कहा जाता था।

प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा अपनी पुस्तक “इंडिया आफ्टर गांधी” में लिखते हैं “प्रांरभ में हरिसिंह की अनिश्चितता की स्थिति से कश्मीर के हालात बिगड़े और बाद में शेख तथाकथित महत्वाकांक्षा और डॉ. मुखर्जी के अपरिपक्व एवं अदूरदर्शी आंदोलन ने कश्मीर में अराजकता की स्थिति पैदा कर दी। एक अंग्रेज फौजी अफसर जो शेख और बख्शी दोनों से परिचित थे, ने लिखा था कि “शेख कश्मीर और कश्मीर की जनता से बेहद ईमानदारी से बेइंतहा मोहब्बत करते थे। वहीं बख्शी एक बेईमान और अक्षम व्यक्ति थे।” गुहा एक पत्रकार की राय का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि मुखर्जी की यह मांग कि युद्ध छेड़कर कश्मीर का वह क्षेत्र वापस ले लेना चाहिए लगभग असंभव मांग थी। ऐसा प्रयास होता तो उसका अर्थ विश्व युद्ध होता। कुल मिलाकर कुछ गंभीर गैर-जिम्मेदाराना हरकतों के कारण, कश्मीर जिसे धरती पर स्वर्ग कहते थे, नर्क में तब्दील हो गया।

जब जगमोहन वहां के राज्यपाल थे उस दौरान मुझे कश्मीर जाने का मौका मिला था। उसके बाद भी मैं एक-दो बार कश्मीर गया। उस दौरान मैंने वहां के युवकों से बातचीत की। मैंने उनसे जानना चाहा कि वे भारत से क्यों नाराज हैं? उनका कहना था कि “आपने हमारे सबसे बड़े नेता पर भरोसा नहीं किया, उस नेता पर जिसके आदेश पर हम मुसलमान होने के बावजूद पाकिस्तान के स्थान पर भारत में शामिल हुए। ऐसी स्थिति के चलते हम क्यों आप पर विश्वास करेंगे”। उनकी इस दर्द भरी बात को सुनने के बाद हमें आत्म विश्लेषण करना चाहिए कि आखिर गलती किसने की और क्यों की।

धारा 370 को लेकर सभी ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए गतिविधियां कीं। यदि भारतीय जनता पार्टी धारा 370 को हटाने के बारे में गंभीर थी तो महबूबा मुफ्ती के साथ मिलकर सरकार क्यों बनाई इसके बावजूद कि महबूबा धारा 370 की कट्टर समर्थक थीं। इसी तरह 370 को हटाने को कटिबद्ध भाजपा ने 370 की समर्थक महबूबा के साथ क्यों सरकार बनाई? स्पष्ट है कि ये दोनों अवसरवादी हैं। 

(एल. एस. हरदेनिया लेखक और एक्टिविस्ट हैं।)

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