Saturday, April 20, 2024

सालारजंग संग्रहालय: आंखों के सामने जिंदा हो जाता है इतिहास-ए-निज़ाम

इनको देखा तो ये ख्याल आया कि हम इन म्यूजियमों को क्यों देखें?

म्यूजियम बीते समय यानी इतिहास के ध्वंसाशेष के अलावा क्या है? खासकर राजा – महाराजाओं, नवाबों, बादशाहों की उस शानोशौकत को संजोकर रखे गए इन म्यूजियमों को हम क्यों देखें?

वो जो साधारण लोग हैं,  वो जो मिट्टी से महल बनाने की प्रक्रिया में हिस्सेदार रहे हैं, जिन्होंने इन बड़े- बड़े महलों, किलाओं की ऊंची – ऊंची प्राचीरो की नींवें खोदी इन्हें गगनचुंबी बुलंदी दी जिनके हाथों ने महलों की दीवारों पर खुबसूरत नक्काशी की, जिन्होंने इन्हें  सजाया – संवारा, वो जो दुनिया को शून्य से शिखर तक ले कर आए हैं। उनके श्रमशक्ति के जज्बातों, उनके हुनर के कमालों  की कथा कहने वाला, उन्हें  संजोकर दिखाने वाला म्यूजियम कहीं है क्या? 

जाहिर है काट लिए गए हाथ, तराश ली गई जुबानें, या फिर एक ही समय में इक  तरफ अय्याशी तो दूसरी तरफ भूखमरी से  नरकंकाल  सी जिंदगी को म्यूजियम में रखने और उनके बारे में बताने से राजा –  रजवाड़ों, नवाबों, बादशाहों के चमकीले इतिहास पर (जो हमें बताया जाता है।) कालिख पुती नजर आएगी।

राजा, नवाब – बादशाह आखिर कैसे बने? शासन करने वाला शोषक कैसे महान हो जाता है? कैसे किसी कालखंड विशेष में राज करने वाले इनके इतिहास को आज भी स्वर्णिम बना रखने की कोशिश की गई है? और उसी काल खंड के लाखों लोगो के श्रम कथा का कहीं कोई जिक्र तक नहीं मिलता। म्यूजियम यानी संग्राहलयो को देखने के बाद अक्सर यही महसूस होता है।

आज हैदराबाद के सालार जंग म्यूजियम और चौमहला पैलेस स्थानीय भाषा में (चौमेला पैलेस)  में घंटों घूमकर अलग- अलग दीर्घाओं को देखा। नवाबों, राजा-महाराजों के बड़े -बड़े तलवार, भाले,  बंदूकें, उनकी बड़ी- बड़ी तस्वीरें, उनकी बेगमों, बच्चों के शानोशौकत के न जाने क्या – क्या  समान यहां मौजूद हैं लेकिन उसी दौर में मेहनत से जीने वाले लोगों का जिक्र म्यूजियम या महल के किसी कोने में नहीं दिखाई दिया।

हैदराबाद की स्थापना कुली कुतुब शाह ने सन् 1591 में की। इनके शासन यानी कुतुब शाही  का दौर आलमगीर यानी औरंगजेब के गोलकुंडा के किले पर 1687 में कब्जा और निजामशाही के शासन की शुरुआत के साथ खत्म होता है। निजाम का गौरवशाली ऐतिहासिक अतीत और शानोशौकत म्यूजियमों में लोग टिकट खरीद कर  देखते हैं। वाह- वाह भी करते हैं। उनकी शानोशौकत की चीजों के सामने खड़े होकर सेल्फी ले खुद को उस गौरव से जोड़ कर देखते हैं। 

पर वो काला अध्याय जिसकी आंच की गवाही 1946 में लंबे समय से निजाम के सामंती शोषण के खिलाफ हुए किसान विद्रोह में तेलंगाना आंदोलन में तप उठे तकरीबन चार हजार गांव में दिखा था उसे भूल जाते हैं। ठीक इसी जगह सत्ता की बारीक कारसाजी समझ में आती है जो शोषितों से भी शोषकों की वाहवाही करा जाती है।

यानी क्या दिखाकर क्या समझाना है सत्ता बाखूबी जानती है। लोग भूल जाते हैं। भूल जाते हैं धूल में भी फूल खिलाने से लेकर मिट्टी से महल बनाने की ताकत आवाम में होती है सत्ता में नहीं।

समझने की बात है कि जागीर और दीवानी काश्तकारी हैदराबाद राज्य के क्षेत्र में क्रमशः 30 और 60 फिसदी थी। तेलंगाना में सामंती व्यवस्था कठोर थी। किसानों के परिवारों को बंधुआ दास्तां के लिए मजबूर किया जाता था। तत्कालीन निजाम मीर उस्मान अली के लगातार दमन के खिलाफ तेलंगाना किसान विद्रोह था। 

ये वही उस्मान अली थे जिन्होंने तेलंगाना के विद्रोही किसानों के हक को अपनी गीतों और ग़ज़लों से ताप देने वाले शायर मोइनुद्दीन मख़्दूम को मार देने वाले को उस दौर में 5 हजार रुपए का इनाम देने की घोषणा की थी।

निजाम अंग्रेजी हुकूमत के कितने बड़े दलाल थे इस बात की गवाही चौमेला पैलेस की दीवारों पर लगी तस्वीरें देती हैं। ये तस्वीरें  बताती है किस तरह निजामशाही अंग्रेजों की कदमबोसी करता था। उनके साथ बैठकर उनकी शान में दावतों का आयोजन करता था। योर हाई नेस कह अपनी सारी सुविधाएं मुकर्रर रखता था। बदले में रियाया के श्रम और रियासत के संसाधनों को लूट कर उसका पैसा विदेशी बैंकों में जमा करने की छूट अंग्रेज देते थे।

तभी तो निजाम उस्मान अली के ब्रिटेन में जमा 35 मिलियन पाउंड की संपत्ति पर भारत के पक्ष में फैसला होते ही उनके  पोते नवाब नज़फ अली ने दावा किया कि इसमें उनका भी हिस्सा है। बात सिर्फ निज़ामशाही ही नहीं मुल्क में ऐसे ढेरों राजे – रजवाड़े, बादशाहों, नवाबों की कमी नहीं रही जिनकी शानोशौकत में कभी कोई कमी नहीं आई। जिन्होंने बरतानिया हुकूमत के कदम चूमे। रिआया पर ज़ुल्म ढाए फिर भी राजा, बादशाह, नवाब कहलाए।

आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी ऐसा एक भी म्यूजियम इस मुल्क में नहीं दिखाई देता जो अनाम लोगों के श्रम के गढ़ने की कहानी बयां करता हो। जहां जाकर साधरण लोग खुद पर गर्व कर सकें कि उनके पुरखों के पास गजब का हुनर और  हालात को मात देने वाला जज्बा था। जिनके कंधों पर सवार होकर दुनियां यहां तक पहुंची।

राजाओं, बादशाहों और नवाबों के किस्से – कहानियों में खुद के वजूद को महसूस करना समता- समानता के मूल्यों के लिए लड़ी गई जंगे आजादी के कुर्बानियों की तौहीन करना है। लेकिन सवाल फिर वही है कौन सुनाए हमें वो कहानी जिसमें राजा न हो कोई रानी। हमें इंतजार रहेगा ऐसे ही किसी म्यूजियम का।

हैदराबाद से वरिष्ठ पत्रकार भाष्कर गुहा नियोगी का आलेख।

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