Saturday, April 27, 2024

किस्सा बसवा का, चेहरा भारत का!

“मुझे सब कुछ शॉकिंग लगा। गांव में आज भी ऐसा होता है?” हैरत भरे सवाल से भरी यह टिप्पणी एक पैंतीस वर्षीय महानगरी युवक की है, जिसका ग्रामीण सच्चाई से सामना पहली दफा हुआ। इस टिप्पणी की पृष्ठभूमि इस प्रकार है।

मेरा गांव बसवा, अब तो बड़ा क़स्बा है, दिल्ली से करीब दो सौ किलोमीटर दूर दिल्ली- अहमदाबाद रेल मार्ग पर स्थित है। मेरा छोटा-मोटा खंडहर में बदला मकान था। सोचा, इसे बेच कर प्राप्त राशि को सरकारी हाई सेकेंडरी स्कूल को दान दी जाए। इस स्कूल में पांचवें दशक में मैं भी पढ़ा था। भावनात्मक रिश्ता था। यादें जुड़ी हुई थीं। पिछले साल अनुसूचित जनजाति मीणा समाज के एक प्रौढ़ युवक सामने आये और दौड़ धूप के बाद मकान से सम्बंधित ज़रूरी कागज़ात भी जमा कर लिए।

पिछले महीने सब कुछ तय हो गया और निर्धारित तिथि को खंडहर रुपी मकान को सौंपने के लिए मैं परिवार सहित बसवा पहुंच गया। युवक मीणा पहले से ही वहीं थे। जैसे ही ज़मीन की पैमाईश की जाने लगी, अब तक- शांत मोहल्ले की भूमि को चीरता हुआ विवाद का विस्फोट हो गया।

विस्फोट का सतही कारण तो था ‘अतिक्रमण’ और विवादित दावा-प्रतिदावा। लेकिन, ज़मीन के नीचे विवाद की कारण-धारा दूसरी ही बह रही थी। उक्त अंतर्धारा को देख कर मैं भी कुछ अचम्भित हुआ। जिस मोहल्ले में पुरखों का मकान था, वह परंपरागत ढंग से लगभग सौ फ़ीसदी ऊंची जातियों का रहा है। जिसमें भी नब्बे प्रतिशत ब्राह्मणों का।

यह बख्शियों के मोहल्ले के नाम से जाना जाता है। ब्राह्मण प्रधान मोहल्ले में एक गैर- ब्राह्मण का बसना और वह भी अनुसूचित जन जाति समाज के व्यक्ति का, गले नहीं उतर रहा था।

कतिपय ब्राह्मणों ने शिकायत भरे ऊंचे स्वरों में कहा भी, ‘आपने हमारे माथे पर कील ठोंक दी है। यह अच्छा नहीं किया। ब्राह्मण समाज को ही बेचना चाहिए था। हम खरीद लेते।’ मुझे ऐसे वाक्यों की कतई उम्मीद नहीं थी। खैर, जैसे -तैसे मामला शांत किया।

लेकिन, मीणा समाज का उक्त सुसंस्कृत युवक ज़मीन का विधिवत मालिकाना हक़ नहीं ले सका। पुलिस तक मामला पहुंचा। सारा काम ठप्प हो गया। तनाव का माहौल बना रहा। दबाव बनता रहा कि मैं इस सौदे को रद्द कर वापिस आस-पड़ोस के किसी ब्राह्मण परिवार को ही बेच दूं। इसके लिए मैं तैयार नहीं था। मेरा एक ही उत्तर था,’ अब यह संपत्ति मीणा भाई की हो गई है। वे चाहें तो किसी को भी बेच सकते हैं। मुझे कोई ऐतराज़ नहीं होगा।’

सम्बंधित क्रेता पर भी विभिन्न माध्यमों से दबाव पड़ने लगे। उनके ब्राह्मण मित्र के व्यवहार में उदासीनता दिखाई देने लगी। समाज के दबाव की वज़ह से उन्होंने मिलना-जुलना बंद कर दिया। पृष्ठभूमि में बीच-बीच में दोनों पक्षों के मध्य समझौते को लेकर प्रयास भी चलते रहे। पूरा एक महीना विवाद, दबाव और तनाव में गुज़रता रहा। पूरा माहौल कलुषित-सा लगने लगा।

खैर! इक्कीस दिन बाद नए सिरे से पहल शुरू हुई। मुझे अचानक क्रेता मीणा का फोन आया और अनुरोध किया कि एक रोज़ के लिए मैं बसवा चलूं। इस बार सब कुछ ठीक हो जायेगा। कुछ सोचने के बाद मैं अगले दिन जाने के लिए तैयार हो गया। साथ में मधु और बेटा अमन भी चले। वे मुझे अकेले जाने देने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना की आशंका थी। मैं इसे टाल नहीं सका और हम तीनों मीणा जी की कार में बसवा की ओर रवाना हो लिए।

चार घंटे की यात्रा के बाद क़स्बा बसवा पहुंचे। दोनों पक्षों ने अपने-अपने वरिष्ठजनों को एकत्रित कर रखा था। निठल्ले युवकों की ज़मात भी थी। सारांश में, क्रेता और प्रतिदावेदार, दोनों पक्ष हर स्थिति के लिए पूरी तरह से तैयार थे।

दोनों पक्षों ने अपने-अपने समाजों की घूंघटधारी महिलाओं को भी जमा कर लिया था। महानगरी वातावरणजीवी अमन को घूंघटधारी महिलाओं का जमावड़ा विचित्र लग रहा था। उसने पूछा ,’पापा, क्या गांव में घूंघट अब भी मौज़ूद है? इसका विरोध नहीं होता है ?” ‘इतनी आसानी से भारत बदलता कहां है?’ मैंने प्रतिउत्तर में अपना ज़वाब दिया।

इससे यह तो स्पष्ट होता है कि हमारे महानगर के युवा देहाती-ग्रामीण भारत के यथार्थ से परिचित नहीं हैं। जातिवाद चट्टान की तरह खड़ा हुआ है, इससे भी अनभिज्ञ हैं। क्योंकि शहरी भारत को जकड़े करियरवाद ने युवा वर्ग को भारत के सामंती यथार्थ से भलीभांति परिचित ही नहीं होने दिया है। इसलिए इस वर्ग को हैरत होती है जातिप्रथा और घूंघट से। अमन जमावड़े के आकार-प्रकार को गौर से देखने-समझने की कोशिश करने लगा।

अब दोनों पक्षों के जमावड़े के साथ-साथ सरपंच और दूसरे स्वायत्त संस्थाओं के निर्वाचित सदस्य भी मौज़ूद थे। कांग्रेस और भाजपा, दोनों के सदस्य भी थे। लेकिन इस दफा जमावड़े में आक्रामक तेवरों वाला कोई मोदी भक्त दिखाई नहीं दिया। फिर से पुरानी जाति प्रधानता की कथा को दोहराया जाने लगा। वरिष्ठ लोगों ने अपनी अपनी बात भी कही। एक पत्रकार-लेखक के रूप में मेरा स्वागत भी किया और सम्पूर्ण बसवा के लिए गर्व की बात बतलाई।

अंत में मैंने अपना पक्ष रखा। “देखिये, पहली बात समझ लें। मैं जातिवाद के विरुद्ध जीवनभर लड़ता रहा हूं। हमारी तीनों संतानों ने जाति बाहर शादियां की हैं जिनमें शामिल हैं जाट, ओबीसी, भाटिया। हमारा परिवार एक लघु भारत है। इसलिए जाति या ब्राह्मण समाज के सवाल पर कतई समझौता नहीं हो सकता। अपने फैसले से पीछे नहीं हटूंगा। हमें नया भारत बनाना है जो कि समरसी हो। इसी इरादे से हमने मीणा समाज के इस सदस्य को यह जगह दी है। एक मिला-जुला इंद्रधनुषी मोहल्ला बनाने में अपना योगदान दें और सारा धन सभी मिलजुल कर स्कूल में विद्यार्थियों के कल्याण के लिए देते हैं। इससे आपको पुण्य भी मिलेगा और भारत मज़बूत होगा।”

ख़ुशी हुई, बस्ती के सभी प्रभावशाली सज्जनों और महिलाओं ने मेरी भावनाओं और फैसले का स्वागत किया। दोनों पक्षों ने ज़मीन की नए सिरे से पैमाईश की। दोनों पक्षों ने समझदारी दिखाई और तत्काल स्टाम्प ड्यूटी पेपर मंगा कर समझौते की इबारत लिखी। हस्ताक्षर करने के बाद दोनों ने समझौते में वर्णित शर्तों के पालन का भरोसा दिलाया। वरिष्ठों ने भी ‘पंचपरमेश्वर’ के रूप में उन्हें निर्देश दिए।

समझौते से पहले कुछ देर के लिए अप्रिय क्षण भी पैदा हो गए थे। हिंसा की धमकियां आने लगी थीं। लेकिन, वरिष्ठजनों के साहसी और विवेकसम्मत हस्तक्षेप से अनहोनी टल गई। समझौते के पश्चात बसवा की पहचान मिठाई ‘गूंजी’ से सभी के मुंह में मिठास घोला गया। इससे पहले बहस के दौरान यह भी सुझाव आया कि इस विवाद को ‘दीवानी अदालत ‘ यानी रेवेन्यू कोर्ट को दे दिया जाए और फैसले तक ज़मीन पर कोई भी कार्रवाई स्थगित रहे।

गांव में शांति बनाये रखने की दृष्टि से स्थानीय पुलिस दोनों पक्षों के बीच वांछित समझौते के पक्ष में थी। बड़ों की सलाह थी कि कोर्ट में सालों मामला घिसटता रहेगा। दोनों पक्षों का बेतहाशा पैसा खर्च होता जाएगा। किसी को कुछ नहीं मिलेगा। बेहतर यही रहेगा कि गांव का पंच समाज, जिसमें सभी जाति के प्रतिनिधि हैं, फैसला दे और दोनों पक्ष उसे मंजूर करें। और अंत में दोनों की रजामंदी से यही हुआ।

इस समय देश की विभिन्न जिला अदालतों में ग्रामीण भारत के विभिन्न विवादों से सम्बंधित 2 करोड़ 22 लाख से अधिक मामले पिछले कई से अंतिम फैसले का इंतज़ार कर रहे हैं। लाखों गरीब लोग इन केसों में उलझे हुए हैं। सिविल मुक़दमेबाज़ी में प्रति दिन प्रति व्यक्ति करीब 500 रुपए खर्च होते हैं।

बेंगलुरू स्थित दक्ष संस्था द्वारा किये गए एक सर्वे के अनुसार देश की कुल जीडीपी का 0. 5 प्रतिशत मुक़दमेबाज़ी पर खर्च किया जाता है। परिवार बर्बाद हो जाते हैं। वकीलों को छोड़ किसी को आसानी से फायदा नहीं होता है। इस दृष्टि से हमारे मोहल्ले के लोगों ने अक़्लमंदी से काम लिया और समझौता करके देश-समाज के सामने एक आदर्श नज़ीर पेश की।

देश के अन्य ग्रामों में भी इसी समझदारी से काम लिया जाय और स्थानीय स्तर पर ही पंचों के फैसले से अतिक्रमण और दूसरे विवादों का निपटारा किया जाय। जन-अदालतों का विस्तार किया जाए और जातिवाद के विरुद्ध नए सिरे से मुहिम छेड़ी जानी चाहिए।

पिछले कुछ सालों से जातिवाद मज़बूत हुआ है, अधिकांश लोगों का ऐसा मत था। चुनाव के दौरान भाजपा, कांग्रेस दोनों ही दल जातिवादी शस्त्रों के सहारे चुनाव लड़ते हैं। अब इसमें और तेज़ी आ गई है। अधिकारी रहे, पुलिस रहे या तहसील या पंचायत और शिक्षक, सभी की संरचना को जाति के सांचे में देखनी की प्रवृत्तियां बढ़ी हैं। तब ऐसा नहीं था, जब मैं यहां था। लोगबाग इससे सहमत थे। इसके साथ ही वरिष्ठजनों का यह भी मानना था कि मुकदमेंबाज़ी से दूर रहने से समय, धन और शक्ति, तीनों ही बचेंगे।

स्वस्थ विकास और लोकतंत्र को मज़बूत करने में योगदान मिलेगा। अलबत्ता, इसके लिए सभी को जातिगत और धार्मिक-मज़हबी पूर्वाग्रहों से ऊपर उठना पड़ेगा। जितनी ज़रुरत देश की सीमाओं की रक्षा की है, उससे कहीं बड़ी ज़रुरत जाति और धार्मिक संकीर्णता की सीमाओं को तोड़ने की भी है। समझौते में ‘भाईचारा’ पर विशेष ज़ोर दिया। मधु की टिप्पणी थी, ‘भारत की यही शक्ति है। अंत में, भारत सभी प्रकार के सौहार्द का पालन करता आया है।’ अमन कब पीछे रहनेवाला था,’ भारत का असली चेहरा यही है’। इस कथा पर विराम लगाते हुए मेरी टिप्पणी थी- इसे ही कहते हैं IDEA OF INDIA। मेरी इस कथा के शिक्षित व जागरूक नायक हैं- भगवान सहाय मीणा।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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हरि शंकर जोशी
हरि शंकर जोशी
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1 month ago

अंधेरों को चीरती हुई जब रोशनी की किरण दिखाई देती है तब विश्वास और गहरा होता है कि अंधियारा अधिक समय जीवित नहीं रह सकता।

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