‘आदिवासियों का सब कुछ लूटकर की जा रही उनके उत्थान की बात’

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‘स्त्री- कल, आज और कल’ विषय पर परिचर्चा हुई। परिचर्चा में टाटा स्टील की पूर्व अधिकारी और वर्तमान में डीक्यूएस की सस्टैनबिलिटी कंसल्टेंट प्रिया रंजन ने कहा कि डायन, दहेज, भ्रूम हत्या, बहु-बेटियों के साथ भेद रखना, उन पर अत्याचार करना और रेप जैसी अनेक सामाजिक बुराइयों को दूर करना होगा। लड़कियों को बराबरी का हक़, स्नेह और शिक्षा दिए बिना हमारा देश तरक्की नहीं कर सकता है।

इससे पहले परिचर्चा में विषय प्रवेश करते हुए टाटा मोटर्स के पूर्व डीजीएम और साझा संवाद के संस्थापक सदस्य रामबल्लव साहू ने कहा कि साझा संवाद एक सामाजिक संगठन है, इसका मुख्य उद्देश्य है, साझी संस्कृति एवं साझा इतिहास की रक्षा करना और साझा संवाद स्थापित करना। मौजूदा दौर में भी हमारे समाज में महिलाओं को उनका अधिकार, स्वाभिमान और पुरुष प्रधान समाज के बंदिश से मुक्ति नहीं मिल सकी है। साझा संवाद इस प्रयास में महिलाओं के हक़ और सम्मान के लिए प्रतिबद्ध है।

एशिया की पहली कैब ड्राइवर और उद्यमी, रेवती रॉय ने कहा कि मुझे मेरे पति की बीमारी का इलाज कराने और परिवार चलाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा है। ऐसे में मैंने ड्राइविंग के शौक को रोजगार का साधन बनाने का फैसला किया। मुझे टैक्सी लेकर मुंबई की सड़कों पर 10 महीनों तक संघर्ष करना पड़ा और पुरूष ड्राइवरों के उत्पीड़न को सहन करना पड़ा। मजबूत कामगार यूनियन के खिलाफ लंबी लड़ाई के बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय से मुझे न्याय मिला।

उन्होंने कहा कि 8 मार्च 2016 को मैंने ‘हे दीदी’ नाम से ‘ई कॉमर्स पार्सल डिलीवरी’ का काम शुरू किया। इसमें नॉन मैट्रिक से लेकर उच्च शिक्षित जरूरतमंद महिलाओं को भी गाड़ी चलाने से लेकर सेल्फ डिफेंस और कस्टमर केयर का प्रशिक्षण देकर आत्म निर्भर करते हुए रोजगार प्रदान करते हैं। इसमें महिलाएं स्वाभिमान के साथ अपना रोजगार कर रही हैं। रेवती रॉय ने कहा, ”अंत में मैं महिलाओं से अपील करती हूं कि वे अपनी सोच को घर की चाहरदीवारी और सामाजिक बंदिशों से बाहर निकालें और आत्म निर्भर बनें।”

सत्तर के दशक के बिहार आंदोलन की अगुआ और वरिष्ठ पत्रकार किरण शाहीन ने कहा कि 1975 में अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष खत्म हुआ था और देश में आपातकाल होने के बावजूद स्त्री अधिकारों को लेकर कुछ चेतना आने लगी थी। लड़कों के साथ-साथ कई नौजवान लड़कियां पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर बिहार आंदोलन में कूद पड़ी थीं। उसमें मैं भी एक लड़की थी। कट्टर परंपरागत परिवार में जन्म लेने के कारण मेरे पास दो ही रास्ता था, पहला- घर की सुरक्षित दीवारों में बंद हो जाऊं, या फिर अपनी और सबकी मुक्ति का रास्ता चुनूं, मैंने दूसरा रास्ता चुना।”

उन्होंने कहा कि आज की यह परिचर्चा मैं बहादुर बहन सोनी सोरी को समर्पित करती हूं, जिसने पुलिसिया और राजकीय दमन का जिस बहादुरी से मुकाबला किया वो शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता है। सोनी उस हर आदिवासी स्त्री की प्रतीक हैं जो ज़ुल्म और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं। उन्हें न केवल गिरफ्तार किया जाता है, बल्कि शरीर में पत्थर के टुकड़े भर दिए जाते हैं।

उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि क्या कारण है इसका? क्योंकि सोनी सोरी कहती हैं कि ‘हमसे हमारी जल, जंगल, जमीन, झरना, हमारी पहचान और आज़ादी मत छीनों। हमें तुम्हारा विकास नहीं चाहिए है। पूंजीपतियों एवं राजसत्ता द्वारा खेले जा रहे तथाकथित विकास के इस खेल में आदिवासियों को शतरंज की मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। जिनका सब कुछ है, उन्हें ही गरीबी के कारण पलायन के लिए मजबूर किया जा रहा है और पलायन भी ऐसे बाजार में उठाकर फेंक देता है, जहां उनकी देह ही पूंजी के रूप में इस्तेमाल की जाती है। ह्यूमन ट्रैफिकिंग, सेक्स वर्कर और घरेलू कामगार के रूप में उत्पीड़न। पूंजी की निर्मम दुनिया आदिवासी स्त्रियों को यही देती है।

उन्होंने कहा कि आदिवासियों को आमतौर पर सबसे अलग-थलग समझा जाता है और उन्हें मुख्यधारा में लाने की बात बार-बार कही जाती है, जैसे कि हाशिये पर रहने वाले प्राणी हों और कथित रूप से सभ्य नागरिक समाज उन्हें अशिक्षित, पिछड़ा और जंगली मानता है। आदिवासी स्त्री का जीवन इन हाशिये पर भी सबसे निचले पायदान पर है। किरण शाहीन ने कहा कि हमारा संविधान कहता है कि प्रत्येक नागरिक बराबर हैं, लेकिन जाति, धर्म और वर्ग में बंटा हमारा समाज कहता है आदिवासी पिछड़े हैं, वे समान नहीं है, वे हम जैसे नहीं है, उन्हें मुख्यधारा में लाने की ज़रूरत है। ये अजीब विंडंबना की बात है, क्योंकि इनका सब कुछ लूटकर और शोषण करके उनके ही उत्थान की बात करते हैं।

उन्होंने कहा कि देश के पांच करोड़ घरेलू कामगारों में 90 प्रतिशत कामगार आदिवासी, दलित और अन्य उत्पीड़ित समाज से आते हैं। कानून हैं, परंतु उन्हें लागू कराने की इच्छाशक्ति नहीं है। विधवा और एकल आदिवासी महिला ‘डायन’ के नाम पर मार दी जाती हैं। वेदांता, अडानी एवं अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जमीन के असल मालिक को रौंदने की इजाजत दे दी जाती है। कल-कारखानों से निकलने वाले ज़हरीले रसायन से न केवल वातावरण और पानी प्रदूषित होता है, बल्कि आम गांव के लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। ऐसी पूंजीवादी व्यवस्था में अपने ही जमीन में असहाय आदिवासी मजदूर हो जाता है।

उन्होंने कहा कि जंगल कट जाते हैं, पहाड़ रौंद दिए जाते हैं और जहरीला पानी गर्भ में ही शिशुओं को अपंग बनाता है। आदिवासी विकास के नाम पर वे बेदखल कर दिए जाते हैं। बातें कहने को बहुत हैं पर आदिवासी स्त्री की वेदना, प्रताड़ना, संघर्ष और उनके डटे रहने को दिल से महसूस करना होगा और सिर्फ कागज़ी हमदर्दी दिखाने के बजाए उनके साथ कंधे से कंधा और कदम से कदम मिलाकर अपने कर्तव्यों का निदान करना होगा।

इसके संयोजक इश्तियाक अहमद जौहर ने बताया कि परिचर्चा का यह दूसरा भाग था। इसका आयोजन साझा संवाद ने वेबिनार श्रृंखला के तहत किया। परिचर्चा में मुख्य रूप से अरविंद अंजुम, मंथन बेबाक, शिबली फ़ातमी, अबुल आरिफ़, दीपक रंजीत, अजित तिर्की डेमका सोय, लक्ष्मी पुर्ती, पुरुषोत्तम विश्वनाथ, महेश्वर मरांडी आदि लोगों ने भी अपने विचार रखे। संयोजक इश्तेयाक अहमद जौहर ने आभार व्यक्त किया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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