उस छाते-कैमरे वाले की हवा में लहराती मुट्ठी

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तरुण भारतीय (18 दिसंबर 1970-25 जनवरी 2025) के लिए।

शिलॉन्ग शहर के बीचो-बीच फायर-ब्रिगेड के सामने स्थित पार्क में रेवरन्ड नाथन डिंगदोह (Nathan Diengdoh) मज़दूरों के मज़बूत इरादों का गीत गा रहे हैं – “We Shall Not Be Moved…” इस आवाज़ में पानी सी करुणा है और चट्टान सी पुख़्तगी। एक पास्टर यूनियन का गीत गा रहा है। मेरे लिए यह अनूठा अनुभव है। पास्टर मज़दूरों को मार्क्स के उदाहरण देते हुए एकजुट होने का आह्वान कर रहा है।

कह रहा है कि हम स्वीपर हों, क्लीनर हों, कोई भी काम करने वाले हों, हमें गरिमा के साथ बेहतर जीवन जीने का हक़ है। इस हक़ को हासिल करने के लिए यूनियन और संघर्ष ज़रूरी हैं। देखते ही देखते मज़दूरों का समूह उसकी आवाज़ में आवाज़ मिला लेता है। पास्टर ने जन-संघर्षों में बार-बार दोहराए जाते रहे मशहूर अमेरिकी फ़ोक सॉन्ग को अपने कन्सर्न के लिहाज़ से ढाल लिया है –

We shall not be moved

We shall not be moved

Just like the tree

That standing by the water

We shall not be moved

The union is behind us

We shall not be moved

We’ll stand and fight together

We shall not be moved…

मज़दूरों की संख्या बढ़ती जा रही है। आसमान में बादल गहराते जा रहे हैं। बूँदें गिरने लगी हैं और लगता है कि अब आयोजन का समापन होने वाला है। मज़दूरों का समूह जुलूस में बदल चुका है। बारिश तेज़ होती जा रही है और जुलूस में यूनियनों के जत्थे के जत्थे जुड़ते जा रहे हैं। जिलों के लोकल रिपोर्टर वाली अपनी आदत के मुताबिक, मैं भी इस जुलूस के टुकड़ों को संजोते हुए साथ बहने लगता हूँ। कुछ तस्वीरों और वीडियो क्लिप्स के साथ उस दिन दर्ज करता हूँ।

1 मई 2018: मेघालय के लिए ऐतिहासिक दिन। संगठित और असंगठित क्षेत्र की यूनियनों की एकजुटता और प्रतिबद्धता। खासी, गारो, जयंतिया हिल्स के मज़दूरों का प्रतिनिधित्व। बंगाली, असमी, नेपाली, बिहारी और देश के विभिन्न हिस्सों के मज़दूरों की भागीदारी। अद्भुत! पुरानी यूनियनों के मायूस हो चुके बुजुर्ग नेता भी सलाम करने पहुँचे। इन यूनियनों का खड़ा होना ही एक अलग और अनूठी कहानी है। जनसंघर्षों की बारिश की कुछ बूंदें इस बहाने मुझे भी नसीब हुईं।

इसके लिए सबसे ज़्यादा तो एंजला रांगेड और उनके सभी साथियों का शुक्रिया। विभिन्न विभागों-संस्थानों में ट्रेड वर्कर्स यूनियन अस्तित्व में आने का अविश्वसनीय सा कारनामा शिलॉन्ग की जुझारू, प्रोग्रेसिव जमात Thma U Rangli-Juki (TUR) `थमा उ रांगली-जुकी` (तुर) की पहलकदमी पर हुआ है। हॉकर्स, स्ट्रीट वेंडर्स, घरेलू काम करने वाली महिलाएँ और पुरुष, सिक्योरिटी गार्ड्स और दूसरे असंगठित क्षेत्र के मज़दूर भी यूनियन के रूप में खड़े हैं।

मई दिवस का वही जुलूस सात साल बाद 27 जनवरी 2025 को वापस फायर ब्रिगेड के सामने लौट आया लगता है और बगल के रास्ते से ऊपर Motinagar Lumpyngngad की उस गली की तरफ़ बढ़ रहा है जिसमें एंजला और तरुण रहते हैं। उस दिन मई दिवस के जुलूस में तरुण भारतीय हर कहीं थे। कभी पीछे अपने कॉमरेडों से बात करते हुए, कभी बीच में बारिश में भीगते हुए नारे बुलंद करते हुए और कभी अपने कैमरे से आंदोलन की छवियाँ क्लिक करते हुए। उस दिन मैंने एक तस्वीर खींची थी जो मेरे ख़याल से उनकी प्रतिनिधि छवि है, जिसमें उनका लंबा छाता है, उनका कैमरा है और संघर्षों के साथी अपने प्यारे साथियों के बीच इंक़लाबी नारे के साथ हवा में लहराती उनकी मुट्ठी है। आज TUR का यह यथार्थवादी-स्वप्नशील शिल्पकार योजनाकार विचारक एक्टिविस्ट शांत लेटा हुआ है।

इस बेहतरीन फ़िल्मकार, फ़िल्म एडिटर, फ़ोटोग्राफ़र, कवि, संपादक, अनुवादक, अध्यापक, रिसर्चर, म्यूजिशन, ज़मीनी इतिहासकार इंटलेक्चुअल को अलविदा कहने देश के कई हिस्सों से यहाँ आए आर्टिस्ट और इंटलेक्चुअल देख रहे हैं कि किस तरह अस्पतालों के स्वास्थ्यकर्मी, फुटपाथों के सब्ज़ी विक्रेता, फैक्ट्रियों के मज़दूर, यूनिवर्सिटी और दफ़्तरों के यूनियन वर्कर और दूसरे मेहनतकश इकट्ठा हो रहे हैं। इसी बीच ब्लूज़ रॉक-स्टार तिपरिती खारबंगार अपना गिटार लिए हुए धीमे क़दमों से चलते हुए माइक पर आती हैं। खासी और अंग्रेजी में वे तरुण के लिए जिस तरह गाती हैं, दिल बिंध जाते हैं, आँखें नम हो जाती हैं।

(हॉकर्स यूनियन का प्रदर्शन, फ़ोटो – तरुण भारतीय)

ओह! तरुण को विदा करने आए लोगों में यूनियनों के मेहनतकश हैं और मेहनतकश लोगों के मसलों से सरोकार रखने वाले बुद्धिजीवी और आर्टिस्ट हैं। लगता है कि तरुण इसी लेगेसी में जीवित हैं, हमेशा से ज़्यादा। खासी समुदाय का यह सच्चा प्यार तरुण ने अर्जित किया है। पिछले सालों में देखता हूँ, वे हमेशा अपने स्टूडियो से ज़्यादा सड़कों पर हैं। वे और एंजला, दोनों। फुटपाथों से वेंडर्स और हॉकर्स को खदेड़ने का अभियान चल रहा है। एंजला और उनके कॉमरेड बाज़ारों में जगह-जगह हॉकर्स-वेंडर्स के समर्थन में पिकेटिंग कर रहे हैं। एंजला की पुलिस अधिकारियों से आए दिन तीखी नोक-झोंक होती रहती है। तरुण और एंजला इस बारे में क़ानूनों और देश के विभिन्न शहरों में ऐसे मामलों में आए नतीज़ों का अध्ययन कर रहे हैं। सड़कों पर और कोर्ट में लड़ाई जारी है।

एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया है लेकिन जैसा कि होता है, खासी मध्यवर्ग और उच्च वर्ग अपने ही ग़रीब लोगों के साथ नहीं है। ग़रीब हॉकर उनके लिए फुटपाथ घेरने वाले, बाज़ारों में भीड़ बढ़ाने वाले तत्व हैं। तरुण सोशल मीडिया पर बहसों में मुब्तिला हैं और सड़कों पर अपने साथियों के बीच आंदोलन में शामिल हैं। इस लड़ाई में जीत होती है, मेघालय एनर्जी कॉ-ऑपरेशन लि. के कर्मचारियों के संघर्ष में भी। शिक्षा विभाग के एक घोटाले के मामले में TUR नेताओं के हस्तक्षेप के बाद कोर्ट अध्यापकों की अवैध नियुक्तियों को रद्द करने और सीबीआई जाँच कराने का आदेश आता है। लेकिन, ग़रीबों की लड़ाइयों में जीत हासिल ही हो, यह ज़रूरी नहीं। तरुण हमेशा उनके ‘लड़े जाने की ज़रूरत’ के क़ायल मिलते हैं। सबसे बुरे वक़्तों में सबसे बुरे नतीज़ों की आशंका को ठीक-ठीक पहचानते हुए भी। ऐसी सब लड़ी जा चुकी और लड़ी जा रही लड़ाइयों में तरुण इस क़दर हैं कि उन्हें याद करते हुए ये सब बातें और इनमें शामिल शक्लें याद आती जाती हैं।

तरुण के शोक में उपस्थित सन से सुफ़ेद-सुनहले बालों वाली एक महिला मुझे जानी-पहचानी लग रही हैं। मैं टूटी-फूटी अंग्रेजी में बताता हूँ कि मैं उन्हें शक्ल से पहचानता हूँ। कैसे, उनके इस सवाल का संतोषजनक जवाब मेरे पास नहीं है। कहता हूँ कि तरुण-एंजला के साथ ही देखा होगा, किसी प्रदर्शन में। विदा लेते हुए एंजला से ज़िक्र करता हूँ तो हैरान रह जाता हूँ।

वे एग्नेस हैं, कोंग एग्नेस। जानी-मानी एक्टिविस्ट एग्नेस खारशियेंग। 2018 में 8 नवंबर को एग्नेस, उनकी साथी अमिता संगमा और उनके ड्राइवर पर ईस्ट जयंतिया हिल्स जिले के तुबेर सोशरे में उस समय हमला हुआ था जब वे कोल माइनिंग साइट पर जाकर अवैध खनन के सबूत जुटाने के लिए वीडियो बना रही थीं। एग्नेस और उनकी साथी अमिता को मरा हुआ जानकर जंगल में फेंक दिया गया था। इस वारदात में मेघालय की सत्तारूढ़ पार्टी के एक बड़े नेता का नाम भी उछला था। मैं एग्नेस को उस समय लिखी गई अपनी एक रिपोर्ट 

दिखाता हूँ जिसमें तरुण भी शामिल हैं; एंजला, तरुण और TUR के बहुत से कॉमरेड। याद आता है, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के मसले हों, मानवाधिकार के मुद्दे हों, यौन-शोषण के केस हों, सत्ता केंद्रों में व्याप्त करप्शन की बात हो, यूरेनियम माइनिंग जैसा हाई प्रोफाइल इशु हो, वंचित तबकों की रोजी-रोटी और आवास के सवाल हों, गाँव-गाँव में पीडीएस के तहत सामग्री का ईमानदारी से वितरण सुनिश्चित कराने की ज़रूरत हो, सिविल सोसायटी वीमेन्स ऑर्गेनाइजेशन (सीएसडब्लूओ) की अध्यक्ष एग्नेस और एंजला, तरुण और TUR के दूसरे एक्टिविस्ट फाइलें लिए सरकारी दफ़्तरों से लेकर कोर्ट-कचहरियों के चक्कर काटते हुए, आरटीआई लगाते हुए, जुलूस निकालते हुए, उत्पीड़ितों के बचाव में गाँवों तक दौड़ते हुए हमेशा साथ खड़े नज़र आते रहे हैं। तरुण यहीं हैं, अपने इन्हीं प्यारे बेलौस ख़ुद्दार साथियों के बीच।

रवीश कुमार और मेघालय से बाहर के कई जाने-माने बुद्धिजीवी बड़ी आत्मीयता और सम्मान के साथ तरुण को याद कर रहे हैं। कैमरे पर उनकी पकड़ और वीडियो एडिटिंग में उनकी असाधारण प्रतिभा, अध्ययनशीलता और सेकुलर मूल्यों के लिए उनकी प्रतिबद्धता की मिसालें दी जा रही हैं। मसलन, बाबरी मस्जिद विध्वंस की वारदात के दौरान छात्र तरुण किस तरह दिल्ली छोड़कर शांति अभियान में सहयोग के लिए अयोध्या निकल जाते हैं, प्रतिष्ठित दस्तावेजी फ़िल्मकार तरुण कैसे साहस के साथ राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाकर असहिष्णुता के विरुद्ध सेकुलर बुद्धिजीवियों की मुहिम के साथ खड़े होते हैं।

मेघालय के सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के लिए तरुण ऐसे शख़्स हैं जो खासी समाज को समझने के लिए जिज्ञासु हैं और अंतत: खासी समाज, संस्कृति, उसके अतीत और वर्तमान की प्रमाणिक और जटिल सच्चाइयों से संज़ीदगी के साथ विशेषज्ञ सी हैसियत से वाबस्ता हैं। ‘बाहरी’ कहकर अपमानजनक हमलों से नकारे जाने की भद्दी कोशिशें खासी समाज से उनके रिश्ते को कमज़ोर नहीं कर पाती हैं। खासी और नॉर्थ-ईस्ट के दूसरे जनजातीय समुदायों के प्रति अपने सरोकारों के ज़रिये, कमज़ोर तबकों के पक्ष में प्रतिरोध खड़े करने की अपनी कुव्वत के ज़रिये, लगातार संवादरत रहने की सलाहियत के ज़रिये, फ़ासिस्ट राजनीति की साजिशों के प्रति ख़बरदार करते रहने के विवेक के ज़रिये, स्थानीय जन-संगठनों को देशभर के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों-एक्टिविस्टों का सानिध्य उपलब्ध कराने के ज़रिये और फ़ासिस्ट राजनीति का किसी भी हद तक जाकर विरोध करने के हौसले के ज़रिये वे जनपक्षधर बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और कमज़ोर तबकों के दिलों में बस जाते हैं।

(तस्वीर तरुण की फ़ेसबुक पोस्ट से साभार जिसमें में गुजराती कवि सरूप ध्रुव  के साथ तरुण और एंजला, पृष्ठभूमि में कॉन्ग स्पेलिटी की तस्वीर है)

जनवरी के पहले हफ़्ते में तरुण अहमदाबाद में चल रहे नेशनल फ़ोटोग्राफी फेस्टिवल-2025 में अपने छाया-चित्रों के बीच हैं। अपनी जीवन-साथी और मेघालय में जनसंघर्षों की नायिका एंजला और तीनों बच्चों आबिया, मय्यान और किन्तांग के साथ। काले-सफ़ेद फ़ोटुओं में मेघालय की पहाड़ियों का जन-जीवन, हर्ष-विषाद, दमन-दोहन, जन-प्रतिरोध उभर आया है। डॉमियासियाट् की महामाता (मैट्रिआर्क) कॉन्ग स्पेलिटी लिंगडोह-लांगरिनउन की अविश्वसनीय सी लगने वाली गाथा इन तस्वीरों में होनी ही है। वे काफ़ी ख़ुश-ख़ुश शिलॉन्ग लौटे हैं लेकिन उनके मन में कॉन्ग स्पेलिटी की याद की छटपटाहट है। उनके लिए फोटो-प्रदर्शनी की क़ामयाबी का मलतब उनके आर्टिस्ट को एक और जगह तस्लीम कर लिया जाना नहीं है, वे अपने मेघालय के लोगों के, नॉर्थ-ईस्ट के ट्राइबल समाजों के अंबेसडर हैं, यहाँ के आम लोगों की और यहाँ के जन-संघर्षों की सच्ची छवियों का दुनिया से परिचय कराने वाले। कॉन्ग स्पेलिटी उनके लिए सबजेक्ट नहीं हैं, सबसे बड़ी प्रेरणा हैं।

वे अपनी फोटो-प्रदर्शनी मेघालय के पश्चिमी खासी हिल्स के उसी इलाक़े में ले जाना चाहते हैं, जहाँ इस महानियका ने “प्रति वर्ष डेढ़ करोड़ रुपये के हिसाब से तीस सालों तक मिलने वाली पैंतालीस करोड़ रुपये की पेशकश के बावजूद अपनी ज़मीन यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (यूसीआईएल) को लीज पर देने से मना कर दिया।” इस गाँव को बिजली-पानी-स्कूल से वंचित कर दिया गया। लालच और ताक़त के दबाव में ढह जाने वाले समाज के बीच वे और सात घरों वाला उनका गाँव अकेला पड़ गया लेकिन यूरेनियम खनन से प्राणियों और पर्यावरण की बर्बादी रोकने के अपने इरादे से वे डिगी नहीं। तरुण का उनके साथ लंबा रिश्ता है। वे कठिन रास्ता तय कर 20-25 साल तक बार-बार डॉमियासियाट जाकर उन्हें फिल्माते रहे। उनकी बात को दुनिया तक पहुँचाते रहे।

“पैसे से मेरी आज़ादी नहीं ख़रीदी जा सकती,” उस फ़ौलादी इरादों वाली बुज़ुर्ग खासी महिला स्पेलिटी के इस वाक्य को अपने जीवन की सबसे प्रेरणास्पद बात के तौर पर दोहराते हुए तरुण भारतीय सिर्फ़ दस्तावेजीकरण करने वाले फोटोग्राफर-फिल्मकार नहीं हैं, उनके समर्थन में खड़े हुए आंदोलन के सूत्रधार और भागीदार भी हैं। एंजला और उनके साथी इस कठिन लड़ाई में शामिल हैं। 28 अक्तूबर 2020 को 95 वर्ष की उम्र में कॉन्ग स्पेलिटी का निधन हो चुका है और उनके संघर्ष की सबसे प्रमाणिक और सिलसिलेवार सामग्री तरुण की क्लिप्स ही हैं जिनका जाने कितनी बार, कितने लोग इस्तेमाल कर चुके हैं।

ऐसे उदाहरण भाव-विभोर होने भर की बातें नहीं हैं, यह उनके व्यक्तित्व और उनकी समझ में, उनकी नज़र में शामिल बातें हैं। उन्हीं के शब्दों को दोहराते हुए इस बात को महसूस किया जा सकता है- “किसी मारवाड़ी, बंगाली या बिहारी की समझ और किसी मुंडा, खासी या नागा की समझ के बीच के द्वंद्व के पीछे है उनके इतिहास का अलग-अलग होना। ज़मीन के निजीकरण, उसे हड़पे जाने, श्रम के जिंस (कमोडिटी) में बदलते जाने और ऊंच-नीच (हायरार्की) के पवित्रीकरण के साथ रहते आए लोगों के लिए कॉन्ग स्पेलिटी को समझ पाना मुश्किल है। जो लोग यह सोचते हैं कि एक बीघा ज़मीन आख़िर हमें आज़ाद करती है और जो यह सोचते हैं कि चंद पहाड़ियों से आप अमीर नहीं हो जाते, यह उनके बीच की तफ़ावत है। यह उत्पादकता की दुनिया बनाम साझी जगहों के जिए जाने वाले सपने की बात है। यह घनी आबादी वाले समाजों के खिलाफ विरल जनसँख्या वाले समुदायों की बात है।”

यह सही है कि तरुण एक राजनीतिक-बौद्धिक परिवेश में जन्म लेते हैं। 18 दिसंबर 1970 को बिहार के पटना शहर में जहाँ उन दिनों एक बड़े राजनीतिक आंदोलन की ज़मीन तैयार हो रही है। तरुण के पिता महेंद्र नाथ कर्ण और माँ उर्मिला कर्ण बिहार आंदोलन के नेता जयप्रकाश नारायण के पारिवारिक मित्र और राजनीतिक संघर्षों के साथी हैं। यह गाँधीवादी-समाजवादी विरासत तरुण के दादा बीरेंद्र कुमार दास से चली आती है। महेंद्र नाथ कर्ण 1980 में नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी (नेहु) में बतौर अध्यापक शिलॉन्ग आते हैं। तरुण और उनके भाई-बहनों की स्कूली शिक्षा इसी शहर के सेंट्रल स्कूल में होती है।

यहाँ से उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज, एजेके मास कम्युनिकेशन रीसर्च सेंटर, जामिया (एमसीआरसी), एनडीटीवी और विदेश होते हुए वे फिर शिलॉन्ग लौटते हैं। खासी समाज को कथित श्रेष्ठता की कुंठित नज़र से न देखने की सीख पिता से विरासत में मिली है। फिर एंजला के साथ शादी और कॉमरेडशिप और उस समाज के संघर्षों से गहरी संलग्नता की बदौलत उनकी शख़्सियत को वह नज़र हासिल होती है जो हिन्दी पट्टी से आने वाले कवियों-लेखकों को अमूमन नसीब नहीं होती है। तरुण की सहज विशेषताएं हैं –  चीज़ों को जानने-समझने के लिए गहन अध्ययन, मुख़्तलिफ़ लोगों से संवाद का अंतहीन सिलसिला, सुदूर ट्राइबल इलाक़ों में भ्रमण और ज़मीनी रिसर्च, ट्राइबल समाज की जटिलताओं और ख़ूबियों की पहचान और उनका दस्तावेजीकरण, दुनिया में हर प्रगतिशील विचार के साथ रिश्ता, दमन के हर रूप का विरोध।

फेसबुक पर तरुण का परिचय है-  ‘cussed middle-aged maithil marxist based in shillong. film, photo, poetry. homemaker otherwise.’ ‘बेस्ड इन शिलॉन्ग’-  यही वह बेस है जो मैथिल का मतलब क्रोनिक अपर-कास्ट मानसिकता का सेलिब्रेशन नहीं होने देता। ट्राइबल सोसाइटी का संग-साथ उन्हें वर्णाश्रमी पदानुक्रम और श्रेष्ठता दम्भ पर टिकी हिन्दी पट्टी की सवर्ण संस्कृति से अलग करता है। अकारण नहीं कि बातचीत और बहसों में बेहद लोकतांत्रिक रहने वाले तरुण सबसे ज़्यादा आक्रामक तब होते हैं जब कोई नॉर्थ-ईस्ट की संस्कृति को, यहाँ के लोगों के अधिकारों को हेय, दया या सत्तावादी नज़र से देखने की कोशिश करता हो, या तब जब सामने फ़ासिस्ट अप्रोच के कारण बातचीत की गुंजाइश न हो।

हिन्दी लेखकों की बनावटी मुद्राओं और जातिवादी मक्कारियों को लेकर भी वे तीखी टिप्पणियाँ करने से ख़ुद को रोक नहीं पाते हैं। यह एक ऐसा इलाक़ा है जहाँ प्रगतिशील से प्रगतिशील सवर्ण पुरोधा कभी अपने संस्कारों की वजह से और कभी अपनी वर्णवादी मित्रताओं की हिमायत या लिहाज़ में गिरकर दिखाते रहते हैं। तरुण ऐसे मौक़ों पर हिन्दी संसार के अपने प्रगतिशील ‘मित्रों’ की पेशबंदियों से मुख़्तलिफ़ खड़े मिलते हैं। “Casteist idiots of Hindi Literary establishment Namwar Singh & Kedarnath Singh,” उर्मिलेश के जेएनयू के अनुभव पढ़कर वे अपने गुस्से का इज़हार इन शब्दों में करते हैं।

सवर्ण हेजेमनी से तीखे वैचारिक टकराव के कवि-विचारक मोहन मुक्त जिन्हें हिन्दी की कथित मुख्य-धारा अनजान बने रहकर ख़ारिज़ करने का तरीक़ा बेहतर समझती है, तरुण को इस क़दर उद्वेलित करते हैं –  “One of the most remarkable books of poetry I have been reading recently is a book called Himalaya Dalit Hai by a poet called Mohan Mukta from Uttarakhand. Got it as a unsolicited gift from Dheeresh Saini . What a disruptive book – poems that challenge the hindi icons, offer astute poetic reading of some of Hindi world’s moments of pride. Like in this poem a reading of Mangalesh Dabral’s poetic persona and caste inheritance from the experiences of historical oppression. Hindi poetry won’t be same again for me after this book.”

जाहिर है, तरुण न बनी-बनाई अभिरुचियों के ग़ुलाम हैं, न कविता पढ़ने की प्रदत्त प्रणालियों के और न पसंदीदा लोगों के प्रति आलोचनात्मक नहीं होने की नसीहतों के। अदनान कफ़ील दरवेश के स्वर को नियंत्रित करने के मक़सद से जब प्रगतिशील खेमे से ही हमले कराए जा रहे थे तो तरुण 6 अगस्त 2023 को कविता के ज़रिये इस कवि के लिए अपना समर्थन व्यक्त करते हैं। यह कविता (अ क द के लिए) उन सात कविताओं में भी शामिल है, जो उन्होंने अलविदा कहने से चार-पाँच दिन पहले हिन्दी की दुनिया के अपने दोस्तों को भेजी थीं और जिन पर असद ज़ैदी ने ‘समकालीन जनमत’ के साथ बड़ी मानीख़ेज़ बातें की हैं।

तरुण की कविताएँ पहल (अंक 70) से लेकर तमाम प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपती रही हैं। उत्तर पूर्व की विभिन्न भाषाओं की कविताओं के उनके द्वारा किए गए हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद भी और ख़ुद उनकी अंग्रेजी कविताओं के हिन्दी तर्जुमे भी। लेकिन तरुण का कवि-परिचय अधिकतर लोगों के पास उनकी आख़िरी कविताओं के रूप में वायरल हुईं सात कविताओं के ज़रिये ही पहुँचा। ‘उस देश को भूल जाओ/जैसे उस मस्जिद को भूल गए हो,’ जैसी मर्मभेदी पंक्तियाँ पढ़कर ज़्यादातर के मन में एक आह के साथ यही सवाल उठा कि तरुण की कविताओं का कोई संग्रह क्यों नहीं है।

लेकिन कविता या कोई भी आर्ट उनके लिए किसी करियर की क़ामयाबी का ज़रिया नहीं थी बल्कि एक विद्रोही अंतर्मन की अभिव्यक्ति, कमज़ोर लोगों की ज़रूरी बात का इंद्राज, प्रतिरोध के लिए आगे की जगह बनाने का विवेक थी; आम इंसानों के प्रति प्यार की सच्ची तड़प से प्रेरित राजनीति। उनकी फ़िल्में भी आम इंसानों के जीवन से उनके इसी गहरे प्यार और पक्षधरता की सच्ची तस्वीरें हैं। LA MANA फ़िल्म शिलॉन्ग और खासकर खासी ट्राइब्स की संस्कृति और रिश्तों की गहरे लगाव के साथ तीख़ी आलोचनात्मक नज़र से पड़ताल करती है। इनसाइडर दृष्टि से और इसमें बीचो-बीच जद्दोजहद करते एक बिहारी संस्कृतिकर्मी जिसे खासी लड़की का साथ मिला है, की नज़र से। ‘Brief Life Of Insects’ मोटे तौर पर एक जनजातीय गाँव के छोटे किसानों के जीवन में घुले-मिले लोकगीत-संगीत और उससे जुड़े इतिहास के दस्तावेज़ीकरण की फ़िल्म है लेकिन तरुण जिस सहज लेकिन क्लासिक और आत्मीय नज़र से उनकी ‘ज़िंदगी के टुकड़े चुनते’ हैं, उनकी आँखों में झलकतीं ख़ुशियाँ और उदासियाँ हमारे दिलों में उतर जाती हैं।

मेहनतकशों का हाल कैमरे से उनकी आँखों में झाँककर महसूस करने-कराने की तरुण की ख़ासियत को ‘श्रमजीवी’ फ़िल्म निर्माण में उनके सहयोगी रहे आशीष पालीवाल शिद्दत से याद करते हैं। ‘श्रमजीवी’ की शूटिंग देश की टैक्सटाइल इंडस्ट्री के सबसे बड़े केंद्रों में शुमार दिल्ली-हरियाणा के सीमावर्ती उद्योग विहार, कापसहेड़ा आदि इलाक़ों में हुई थी। इस फ़िल्म पर लिखते हुए मैंने दिल भेद देने वाले ख़ामोश दृश्यों का ख़ासतौर से ज़िक्र किया था।

मसलन, सुबह कंपनियों की तरफ़ बढ़ते जाते क़दमों का सिलसिला, आगे बढ़ते लाचार सिर ही सिर, वापसी की थकान भरे पाँव, गलियों का रात का सूना सन्नाटा, उदास रौशनियाँ, पाँवों में आते-जाते पम्फलेट, चादर फैलाए घूमते फ़क़ीर, मज़दूरों की कोठरियां वगैराह का। आशीष बताते हैं कि वे निढाल पाँवों को महसूस कर रहे थे लेकिन तरुण ने आँखों की तरफ़ ध्यान दिलाया तो वे सन्न रह गए कि सारी थकान और सारी बेबसी तो वहाँ बोलती थी। फ़िलहाल, आशीष पालीवाल शिलॉन्ग में तरुण के लिए बेकल-मायूस लोगों की आँखों में कैमरे से झाँकते हुए उनके दिलों को संजो रहे हैं।

तरुण के कैमरे की बौद्धिक आभा और संवेदनशीलता का स्रोत साधारण लोगों से उनके जुड़ाव में है, यह महसूस करते हुए। ख़ुद को लो-प्रॉफाइल रखने की उनकी नैतिक अदा की जड़ भी। पाली से तरुण की महारत के बारे में सुनना अच्छा लगता है। वे तरुण को एक दोस्त की तरह याद कर रहे हैं और बड़ी संज़ीदगी और विनम्रता के साथ उस एकाएक बिछुड़ गए उस्ताद शिल्पी के रूप में जिसके साथ और काम न कर पाने की कसक बनी रहनी है। रवीश याद आते हैं। हिन्दी पट्टी के जिन लोगों ने रवीश का वह टुकड़ा पढ़ा-देखा होगा, हैरत में रहे होंगे कि अपने फ़न का यह सितारा किस ख़ाकसारी के साथ उनके लिए ‘एक अनजान से’ तरुण भारतीय को उस्ताद कहकर याद कर रहा है।

एंजला-तरुण के घर से निकलकर मुख्य रास्ते से एक छोटा रास्ता सीढ़ियों के ज़रिये निकल कर टेढ़ी-मेढ़ी छोटी गलियों से होते हुए नोंगथमाई में मेन रोड पर पहुँचता है। सर्द रातों में इन गलियों की नम दीवारों पर नन्हे मुस्कराते फूल थकान हर लिया करते थे। मैं इन्हीं गलियों से होकर लौट रहा हूँ। न दीवारों पर वो नमी है, न सब्ज़ा, न फूल। नोंगथमाई से थोड़ा चलकर फिर वही फायर ब्रिगेड के सामने का पार्क आता है जहाँ मज़दूरों के उस जुलूस से साबक़ा हुआ था। इस वक़्त वहाँ ठंड़ी हवाओं वाली शाम का सन्नाटा पसरा है। मैं इस उदास मंज़र को साथ लिए टैक्सी में बैठ जाता हूँ। ड्राइवर बिहार से है। ग़ज़ल चल रही है-

इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें

हर शख़्स  तेरा नाम ले  हर शख़्स  दीवाना तिरा।

(धीरेश सैनी पत्रकार और लेखक हैं।)

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