कनॉट प्लेस: 100 साल पहले जहां गांव थे, वहां कैसे बसा एक शहर?

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जहां कनॉट प्लेस तथा संसद मार्ग आबाद है वहां लगभग 100 साल पहले तक माधवगंज, जयसिंह पुरा और राजा बाजार नाम के गांव थे। इन गांवों के बाशिंदों को हटाकर कनॉट प्लेस, संसद मार्ग, जनपथ आदि बने। कनॉट प्लेस तथा इसके आसपास के इलाकों में कीकर के घने पेड़ हुआ करते थे, जंगली सूअर और हिरण यहां घूमते थे।

जी हां, यह हकीकत है। कहा जाता है कि दिल्ली कई बार उजड़ी और बसी। राजा देहलू ने एक नगर बसाया जिसका नाम देहलू पड़ गया और फिर उसे लोग देहली कहने लगे। यह नगर 792 वर्षों तक उजाड़ रहा। राजा अनंगपाल ने 1052 ईस्वी में इसे अपने राजधानी बनाकर आबाद किया। दिल्ली के उजड़ने बसने की दास्तान तो चलती ही रहेगी पर कनॉट प्लेस जो अब राजीव चौक नाम का नया लिबास पहन चुका है, उसका हालचाल जानते हैं।

यूं तो दिल्ली शहर के इतिहास पर अनेकों किताबें, रिसाले मुख्तलिफ जबानों में शाया हो चुकी हैं, पर लेखक, पत्रकार विवेक शुक्ला ने 131 पन्नों में “दिल्ली का पहला प्यार कनॉट प्लेस” लिखकर एक नई बानगी पेश कर दी है। लेखक ने बहुत ही मुख्तसर रूप से किताब लिखने के मकसद को यूं बयां किया है।

“बात सिर्फ इसकी दीवारों, बरामदों, शोरूम, विंडो शॉपिंग तक ही सीमित ना रह जाए इसलिए कनॉट प्लेस के पेड़ों, परिंदों, शख्सियतों और सड़कों वगैरह के साथ भी इंसाफ किया जाए। मुझे यह किताब लिखने का मन इसलिए भी हुआ क्योंकि इसके आर्किटेक्ट रॉबर्ट टोर रसेल (1888-1972) की कहीं कोई बात नहीं होती। वह अप्रतिम आर्किटेक्ट थे। उन्होंने दिल्ली को सबसे शानदार लैंडमार्क दिया, पर वह गुमनामी में रहे। उन्हें गुमनामी के अंधेरे से निकालने की भी चाहत थी”। 

पहले से लिखी किताबों, रिसालों और अखबारों की कतरनों की चिंदियों को जोड़कर लिखे गए तवारीख के पन्नों में वह तहजीब, खुशी और गम, उत्थान और पतन, उसके किरदारों की रूह, रोजमर्रा की जिंदगी के किस्सों की हकीकत और खुशबू नहीं आती। जो उसका हिस्सा बनकर उतार-चढ़ाव, उसकी खूबियों, खराबियों, दुश्वारियों, उसकी परत दर परत तामीर का चश्मदीद होकर कलमबंद करने से आती है।

यह करिश्मा किताब के लेखक विवेक शुक्ला ने कर दिखाया है। लेखक इसी इलाके के बाशिंदा रहे हैं। पढ़ना लिखना, नौकरी करना, घूमना फिरना, फिल्में देखना इनकी जिंदगी का हिस्सा रहा। विवेक शुक्ला बचपन में कनॉट प्लेस में अपने मां-बाप की बातचीत का जिक्र करते है।

“सुनो जी, यह कौन सी बिल्डिंग बन रही है? बहुत सुंदर है। पापाजी ने मां को बताया था कि ‘यह बैंक ऑफ बड़ौदा की बिल्डिंग है।” सच में उस दौर में बैंक ऑफ बड़ौदा को कनॉट प्लेस की सबसे भव्य और बेहतरीन बिल्डिंग माना जाता था।

विवेक शुक्ला की किताब ‘दिल्ली का पहला प्यार कनॉट प्लेस’ का कवर

29 अध्यायों में कनॉट प्लेस के मुख्तलिफ आयामों को इस किताब में आंखों देखा हाल की तर्ज पर बयां किया गया है। शुरुआत में ही किसके नाम पर कनॉट प्लेस का नामकरण किया गया? सवालिया निशान लगाकर उसका खुलासा करते हुए लिखा गया-

“दरअसल प्रिंस आर्थर ड्यूक ऑफ कनॉट का सम्राट जॉर्ज पंचम से करीबी रिश्ता था। वह जॉर्ज पंचम के अंकल लगते थे। प्रिंस आर्थर ड्यूक ऑफ कनॉट (1 मई 1850-16 जनवरी 1942) क्वीन विक्टोरिया और प्रिंस अल्बर्ट की सातवीं संतान और तीसरे बेटे थे। यह नामकरण उन्हीं प्रिंस आर्थर, ड्यूक आफ कनॉट और स्ट्रैथन के नाम पर है।”

दरअसल कनॉट प्लेस के आर्किटेक्ट रॉबर्ट टोर रसेल ने इसका डिजाइन तैयार करके अपने बॉस और नई दिल्ली के चीफ आर्किटेक्ट एडमिन लुटियंस को सौंप दिया था। जब कनॉट प्लेस का डिजाइन तैयार हो गया तो इसको खड़ा करना था। मशहूर लेखक खुशवंत सिंह के पिता सरदार सोबा सिंह को कनॉट प्लेस को बनाने की जिम्मेदारी मिली थी।

खुशवंत सिंह ने ‘रोमांस आफ दिल्ली’ में पिता के मातहत काम करने वाले मजदूरों तथा कारीगरों के इतिहास को लिखा है। मजदूर मुख्य रूप से राजस्थान से यहां आए थे तो संगतरास आगरा और मिर्जापुर से थे। कुछ भरतपुर से भी थे। यह सब पत्थरों पर नक्काशी और जालियों को बनाने के काम में उस्ताद थे। इनके पूर्वजों ने ही ताजमहल, लाल किला, जामा मस्जिद जैसे महत्वपूर्ण स्मारकों का निर्माण किया था।

कनॉट प्लेस का डिजाइन ग्रेगोरियन स्टाइल का है। उसमें डिजाइन सिमिट्रिकल यानी एक-सा रखा जाता है। आप नोटिस कर सकते हैं कि सारे कनॉट प्लेस का डिजाइन एक समान है। अपनी भव्यता और उम्दा डिजाइन के चलते कनॉट प्लेस के सामने अब भी कोई शॉपिंग सेंटर खड़ा नहीं होता। गोलाकार स्तंभों पर खड़ा कनॉट प्लेस अपूर्व और खूबसूरत है।

जैसा कि अक्सर होता है कि मालिक की तमन्ना होती है कि वो औरों से अलग दिखे, यही काम सोबा सिंह ने कनॉट प्लेस में किया। लेखक की पारखी नजर बताती है कि पूरे कनॉट प्लेस का नक्शा एक तरह का है, परंतु सोवा सिंह की मिल्कियत वाला रीगल ब्लॉक कनॉट प्लेस में होते हुए भी उससे अलग है। जिसे उन्होंने अपने प्रिय डिजाइनर वाल्टर स्काईज जॉर्ज से डिजाइन करवाया था।

इस किताब की बड़ी खूबी यह भी रही कि वह दुकानों और व्यापार बिल्डिंगों पर तस्किरा करते हुए इतिहास की परतें भी खोलते हुए चलती है। मिसाल के तौर पर लेखक ‘बैंक ही बैंक’ में लिखता है कि कनॉट प्लेस 1960 के मध्य के बाद बैंकिंग की दुनिया का हब बनकर उभरा। आपको कनॉट प्लेस के चप्पे-चप्पे पर बैंकों की शाखाएं, एटीएम और दूसरे विभागों के दफ्तर मिलेंगे।

इसी खुलासे के बीच वह बेहद ही रोचक जानकारी जो बहुत कम लोगों को होगी, देते है। हिंदुस्तान के खजाने का हिसाब किताब, उसको चलाने और हिफाजत की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है, इस बात से हर कोई वाकिफ है, परंतु किताब बताती है कि संसद मार्ग स्थित रिजर्व बैंक के मुख्य गेट पर 14 फीट की यक्ष और यक्षिणी की जो मूर्तियां स्थापित हैं, इन दोनों मूर्तियों को बनाया था महान मूर्ति शिल्पी रामकिंकर बैज ने।

यह मान्यता है कि कुबेर के खजाने की रक्षा यक्ष और यक्षिणी करते हैं। इस विचार के आधार पर टाटा समूह के तत्कालीन चेयरमैन जेआरडी टाटा ने भारत सरकार को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की इमारत के बाहर यक्ष और यक्षिणी की मूर्तियां स्थापित करने का सुझाव दिया था। जब टाटा ने यह सलाह दी थी तब वह भी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के बोर्ड में थे। किताब में मशहूर नागर वाला बैंक घोटाला, जिसमें 70 लाख रूपये का घोटाला हुआ था, उसको भी तफ्सील से लिखा गया है।

कनॉट प्लेस का हनुमान रोड, प्रसिद्ध हनुमान मंदिर के पीछे है। हनुमान रोड और उसके बाशिंदों की खूबियों को दिखाते हुए किताब में एक महत्वपूर्ण जानकारी भी मिलती है। हिंदुस्तान की गद्दी पर राज करती भाजपा, जिसका जन्म काल का नाम भारतीय जनसंघ था, की स्थापना कहां हुई थी? किताब बताती है कि हनुमान रोड पर स्थित रघुमल आर्य कन्या विद्यालय, जो नई दिल्ली में लड़कियों का पहला स्कूल माना जाता है। इसी स्कूल में 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ का पहला सम्मेलन और स्थापना हुई थी।

एक और रोचक जानकारी किताब में मिलती है कि हमारे राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का डिजाइन किसने तैयार किया था? राष्ट्रीय ध्वज का भी कनॉट प्लेस से संबंध रहा है। इसे 26 जनवरी 1950 को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया गया। संविधान सभा ने जब तिरंगे में अशोक धर्म चक्र को रखने के प्रस्ताव पर मोहर लगा दी तो संविधान सभा के मेंबर सेक्रेटरी तथा आईसीएस अफसर बदरुद्दीन तैयब से कहा गया कि वह एक नमूना झंडा बनवा कर संविधान सभा के सदस्यों को दिखायें।

बदरुद्दीन तैयब ने यह झंडा कनॉट प्लेस के मशहूर एससी शर्मा टेलर से बनवाया। तैयब ने तिरंगे को पहले कागज पर अपनी चित्रकार पत्नी सुरैया तैयब से बनवाया उसके बाद उसे एससी शर्मा टेलर्स के पास लेकर गए। करीब 23 घंटे में जब तिरंगा झंडा कागज के कपड़े पर आया तो उसे वे संविधानसभा ले कर गए।

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की हैट पहने फोटो किसने खींची थी? इस रहस्य को भी पुस्तक में खोला गया है। कनॉट प्लेस से जुड़े कश्मीरी गेट के मशहूर फोटोग्राफरों का भी तफसील से वर्णन मिलता है। दिल्ली वालों के फैमिली एल्बम में इनकी खींची हुई फोटो अक्सर लाजमी तौर पर मिलती हैं।

विवेक शुक्ला लिखते हैं कि ‘भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की हैट में फोटो लेने वाला रामनाथ फोटो स्टूडियो कश्मीरी गेट में सेंट जेम्स चर्च के पास होता था। बहुत साफ है कि शहीद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त बम फेंकने के लिए बारास्ता केंद्रीय असेंबली कनॉट प्लेस से ही गए होंगे।

किताब में कनॉट प्लेस के पेट्रोल पंपों पर रोशनी डालते हुए उसके कामगारों के हालात का वर्णन तो है ही। दिल्ली के सबसे पुराने पेट्रोल पंप, जिसका लाइसेंस नंबर 1 है, वह कनॉट प्लेस के एम ब्लॉक में है। वह मुख्य रूप से गोरों, अंग्रेजों की कार में पेट्रोल भरता था।

एक दौर था जब कनॉट प्लेस और शिमला का बेहद करीबी रिश्ता हुआ करता था। कनॉट प्लेस के शुरुआती दौर के शोरूम मालिकों के शिमला में भी शोरूम हुआ करते थे और उन शोरूम के नाम भी एक जैसे- उदाहरण के रूप में- गेंदा मल हेमराज डिपार्टमेंटल स्टोर, किनसे ब्दर्स, फोटो स्टूडियो, शिमला स्टूडियो, दीवान चंद ड्रैपर्स वगैरा-वगैरा थे क्योंकि दिल्ली के सरकारी दफ्तर अप्रैल से अक्टूबर तक बंद रहते थे या यह कहें कि स्विफ्ट होकर शिमला चले जाते थे।

सुनने में अजीब लगेगा परंतु एक मजेदार तथ्य “हिप्पी ट्रेल लंदन से सीपी तक” पढ़ने को मिलता है। दिल्ली में 1960 के दशक से लेकर 1979 तक हजारों किलोमीटर नापते बसें, सामान्य की तुलना में कहीं अधिक बड़ी-भीमकाय यह बसें कनॉट प्लेस की छोटी सी सड़क पर खड़ी हुआ करती थीं, जिसके एक तरफ पालिका बाजार और दूसरी तरफ पालिका पार्किंग है।

हिप्पी ट्रेल की बसों से आने वालों की वजह से कनॉट प्लेस और उसके आसपास का माहौल काफी रंगीन हो गया था। कनॉट प्लेस में आने वाले सैलानियों का मकसद यहां की रौनक, आधुनिकता तथा सैर सपाटे के साथ-साथ रेस्टोरेंट-होटलों में खाना पीना भी होता था। उसके बारे में भी अच्छी खासी जानकारी किताब में मिलती है। कनॉट प्लेस के किसी रेस्टोरेंट में दोस्तों के साथ बैठकर गपशप करने का अपना सुख रहा है।

कई पीढ़ियों ने कनॉट प्लेस के वोल्गा, निरूलास, गैलार्ड, दि सेलर मद्रास होटल, एंबेसी, दि रेबल कॉफी हाउस, यूनाइटेड कॉफी हाउस जैसे रेस्टोरेंट में बैठकर अपनी जिंदगी के यादगार पल बिताए हैं। इन रेस्टोरेंट के इतिहास के साथ इनके मालिकों की भी पूरी जानकारी किताब में दी गई है। यूं तो कनॉट प्लेस और इसके आसपास के इलाके में ढेरों रेस्टोरेंट, होटल, ढाबे वगैरह हैं, जिनमें हर इंसान के बजट के मुताबिक वेज-नॉन वेज फूड मिलता है।

इंडियन कॉफी हाउस, टेंट हाउस वाला इंडियन कॉफी हाउस उसके बाद मोहन सिंह पैलेस पर बना कॉफी हाउस तथा बाद में हनुमान मंदिर के सामने दिल्ली कॉफी हाउस में राजनीतिज्ञों की बैठक और बहस-बाजी का रोचक वर्णन किताब में मिलता है।

खासतौर से सोशलिस्ट लीडर डॉ राम मनोहर लोहिया, जिनके साथ विश्व प्रसिद्ध पेंटर मकबूल फिदा हुसैन, अनेकों साहित्यकार, पत्रकार के साथ-साथ राजनीतिक नेताओं का जमघट भी लगा रहता था। भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, इंद्र कुमार गुजराल सहित कई नेताओं के कनॉट प्लेस से रिश्ते के बारे में भी हमें पढ़ने को मिलता है।

हनुमान मंदिर के बाहर करारी खस्ता कचौड़ी के साथ जंतर-मंतर पर कुट्टी का डोसा, इडली-बड़ा जैसे साउथ इंडियन डिशेज, कम पैसों में रोजमर्रा हो रहे धरने, प्रदर्शनों, सभाओं के हजारों कार्यकर्ताओं की भूख को शांत करते हैं।

कनॉट प्लेस के पान वाले पनवाड़ीओं का ग्राहकों से रिश्ता उसकी नजाकत तथा अब अच्छा पान न मिलने की शिकायत भी इसमें दर्ज है।

लेखक विवेक शुक्ला महज एक दर्शक की हैसियत से ही चीजों को नहीं निहारते। उनकी संवेदना भी साथ साथ चलती है। कनॉट प्लेस के मद्रास होटल के बंद होने पर वो लिखते हैं- ‘मद्रास होटल साल 2005 में बंद हो गया, उसे अपनी किराए की जगह खाली करनी पड़ी। कनॉट प्लेस का हमेशा आबाद रहने वाला हिस्सा उजाड़ हो गया। आखरी बार मद्रास होटल के मालिक राव साहब होटल से निकले तो बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोए’।

किताब में केवल बड़ी इमारतों, होटलों, रईसों, सिनेमाघरों का ही जिक्र नहीं है। कनॉट प्लेस में गरीब बूट पॉलिश करने वाले तथा मोचियों के फर्क के बारे में बात की गई है। राजधानी के कनॉट प्लेस के अलावा किसी अन्य बाजार में बूट पॉलिश करने वाले नहीं मिलते। करोल बाग, चांदनी चौक, लाजपत नगर, सेंट्रल मार्केट वगैरह में जूते मरम्मत करने वाले मोची तो मिलेंगे पर सिर्फ बूट पॉलिश करने वाले शायद ही मिलें।

मगर एक बहुत जरूरी सवाल है कि क्या किसी बस्ती तथा शहर को अट्टालिकाओं, गगनचुंबी इमारतों, शान शौकत, मौज मस्ती के साधनों, चमक दमक से ही महानता मिल जाती है? इस सवाल का जवाब भी विवेक शुक्ला देते हैं- जब वो सेंट्रल न्यूज एजेंसी के मालिक आरपी पुरी के मार्फत 1942 में गांधी जी के “करो या मरो” आंदोलन में कनॉट प्लेस के खौफनाक मंजर का जिक्र करते हैं।

एक तरफ धूं-धू कर जलते अंग्रेजों के शोरूम तथा दूसरी तरफ चीनी मूल के लोगों की दुकान को कोई नुकसान नहीं, क्योंकि उन्हें अब हिंदुस्तानी ही मान लिया गया था। यह चीनी भी किसी भारतीय से कम देशभक्त नहीं हैं। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद कनॉट प्लेस में भयंकर आगजनी, जिनमें सिखों के शोरूम जलाए गए, उन्हें बेशर्मी से लूटा गया, इन हृदय विदारक किस्सों को भी कलम बंद किया गया है।

9 दिसंबर 1947 को गांधी अंतिम बार दिल्ली आए थे और पंचकुइया रोड स्थित बाल्मीकि मंदिर में ठहरे थे, इसका भी किताब में जिक्र है। 13 दिसंबर 2008 को कनॉट प्लेस में हुए बम विस्फोट के खौफनाक मंजर को भी किताब में लिखा गया है।

मौज मस्ती, सैर-सपाटा के साथ‐साथ बौद्धिक एवं सांस्कृतिक वातावरण जिस बस्ती में नहीं होता वह कभी भी आदर्श स्थिति में नहीं पहुंच पाती। ‘पी ब्लॉक का वह हॉकर जिसने आगे चलकर अखबारों पत्रिकाओं और किताबों की बेहद मकबूल बुक शॉप सेंट्रल न्यूज एजेंसी (सीएनए) शुरू की, उनका नाम था आर पी पुरी। यहां निर्मल वर्मा, खुशवंत सिंह, इंद्र कुमार गुजराल और विष्णु प्रभाकर जैसे हजारों लाखों शब्दों के शैदाई बार-बार आते रहे।

पुरी दिन में कनॉट प्लेस के खाली बरामदे में अखबार, मैगजीन बेचते थे। इसी दुकान से भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री समेत तमाम मंत्रियों के घरों और दफ्तरों में पत्र-पत्रिकाओं की सप्लाई होती थी। भारत के देश से बाहर स्थित सभी दूतावासों, उच्चायोगों और राजधानी में स्थित विदेशी उच्चायोगों-दूतावासों में पत्र पत्रिकाएं सीएनए द्वारा ही भेजी जाती थीं। सीएनए जैसी दुकानों से ही कनॉट प्लेस खास बनता है।

फर्म के मालिक पुरी साहब से लेखकों की अक्सर गपशप होती थी। एक दिन उन्होंने विवेक को बहुत ही ऐतिहासिक किस्सा सुनाया- ‘3 अगस्त 1947 को मिंटो रोड के एक घर में सुबह अखबार डालकर साइकिल से आगे जाने लगा तो पीछे से किसी ने आवाज दी, मैंने साइकिल रोकी, तो वहां सरकारी फ्लैट में रहने वाले मुशर्रफउद्दीन खड़े थे, मैं उनके पास गया, उनके चेहरे के भाव काफी गंभीर नजर आ रहे थे।’

मुशर्रफउद्दीन कहने लगे कि पुरी साहब अब हमारे घर में अखबार डालना बंद कर दें। आपके साथ हमारा बहुत अच्छा मेलजोल रहा लेकिन अब हम यहां से पाकिस्तान जा रहे हैं। पुरी ने आगे बताया कि ‘जब परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने तो पता चला वह उनका ही बेटा है।’

इसी तरह की किताब की एक दुकान शंकर मार्केट में रामगोपाल शर्मा एंड संस के नाम से है। जिसके बारे में किताब में लिखा गया है कि रामगोपाल शर्मा एंड संस ने दिल्ली-एनसीआर की कई पीढ़ियों को इंग्लिश-हिंदी उपन्यासों और पत्रिकाओं को पढ़ने का शौक लगाया। खास बात यह है यहां से कोई भी किताब किराए पर ले जाकर और फिर पढ़कर लौटा सकते थे।

राजधानी की सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र भी कनॉट प्लेस हुआ करता था। गांधर्व महाविद्यालय, त्रिवेणी कला संगम, शंकर मार्केट का इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन का दफ्तर, भारतीय कला केंद्र जो बाद में श्री राम कला केंद्र कहा जाने लगा, दिल्ली के एंग्लो इंडियन समाज का ऐतिहासिक गिडनी क्लब, जनपथ पर वेस्टर्न कोर्ट का सरकारी अस्थाई निवास जिसके एक कमरे में देश के कई नामी-गिरामी राजनेता अस्थाई रूप से रहते थे, उसका रोचक वर्णन भी किताब में लिपिबद्ध हुआ है।

वेस्टर्न कोर्ट में समाजवादी नेता, चिंतक, 4 बार लोकसभा के सदस्य रहे मधु लिमए रहते थे, जिनसे विचार-विमर्श करने के लिए भारत के कई प्रधानमंत्रियों- चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर सहित विभिन्न क्षेत्रों की प्रमुख हस्तियां, लेखक, पत्रकार, कलाकार, समाचार पत्रों के संपादक यहीं आते थे।

संसद सदस्य लाडली मोहन के निधन के बाद वेस्टर्न कोर्ट के बरामदे में ही भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश जगदीश वर्मा ने जमीन पर बैठकर शिरकत की थी। इसी एक कमरे के निवास में संविधान सभा के सदस्य रहे हरि विष्णु कामत, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एवं देश के भूतपूर्व गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त, बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री जैसी चर्चित हस्तियां भी कभी रही थीं।

हालांकि कनॉट प्लेस का नाम सरकारी तौर पर राजीव चौक हो गया है परंतु दिल्ली की मुख्तलिफ यूनिवर्सिटिओं के कैंपस में लड़के लड़कियों को यह कहते हुए सुनेंगे कि “लैट्स गो टू सीपी”। आम बोलचाल की भाषा, मुहावरों-किस्सागोई की तर्ज पर कनॉट प्लेस के इतिहास, उसकी रोजमर्रा की जिंदगी और सैलानियों के आवागमन का जो वर्णन लेखक विवेक शुक्ला ने किया है उससे यह पूरी किताब काफी रोचक हो गई है।

किताब का मुख्यपृष्ठ भी कम आकर्षक नहीं है। अगर आप ध्यान से देखें तो पुरानी इमारतों के साथ गगनचुंबी बहुमंजिला बिल्डिंग की तामीर भी साफ साफ दिखाई देती है। तमन्ना है कि विवेक शुक्ला इसी तरह दिल्ली 6 पर भी लिखें तो वह ऐतिहासिकता के साथ-साथ रोमांच भी पैदा करेगा।

(पत्रकार विवेक शुक्ला की किताब “दिल्ली का पहला प्यार कनॉट प्लेस” की समीक्षा प्रोफेसर राजकुमार जैन ने की है)

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