मोदी राज के 9 साल: मानवीय त्रासदी के मुहाने पर भारत

भारत में अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी ने कोलकाता के अमेरिकी सेंटर में एक पत्रकार के सवाल का जवाब देते हुए कहा कि मणिपुर मानवीय त्रासदी से गुजर रहा है। गार्सेटी का कहना है कि बच्चों-औरतों की हो रही मौत पर संवेदना व्यक्त करने के लिए सिर्फ भारतीय होना जरूरी नहीं है। इसके लिए मनुष्य होना पहली शर्त है। वहां जो कुछ हो रहा है उससे हम चिंतित हैं। वैसे यह भारत का आंतरिक मामला है। लेकिन हम इस स्थिति पर मौन रह कर अनदेखी नहीं कर सकते। क्योंकि यह बहुत बड़े मानवीय संकट का परिचायक है। वहां निर्दोष लोग मारे जा रहे हैं।

एरिक गार्सेटी ने कहा कि पूर्वोत्तर भारत अमेरिका के लिए बहुत महत्व रखता है। यहां की भौगोलिक स्थिति, प्रचुर खनिज संपदा और इस इलाके की जो जियोग्राफी है। उसको देखते हुए अमेरिका के लिए पूर्वोत्तर का बहुत महत्व है और हम इसे गंभीरता से ले रहे हैं। मणिपुर का संकट भारत का आंतरिक सवाल होते हुए भी उनके अनुसार दुनिया में मानवाधिकारों और मानवीय त्रासदी के प्रति सचेत सभी लोगों के कर्तव्यों के प्रति ध्यान आकर्षित करता है।

गुरुवार को इस बयान के आने के पहले अमेरिका के एक मानवाधिकार संगठन को भारत सरकार ने भारत आने की इजाजत नहीं दी थी। जो कश्मीर सहित पूर्वोत्तर भारत में मानवाधिकार और अल्पसंख्यकों की स्थिति पर अध्ययन के लिए आ रहा था। उस समय भारत सरकार का कहना था कि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां नागरिकों के मौलिक अधिकार सुरक्षित हैं।

जून के आखिरी हफ्ते में प्रधानमंत्री अमेरिका यात्रा पर थे। वहां एक प्रेस वार्ता में उनसे यही सवाल पूछा गया था। जिस पर उन्होंने एक लंबा प्रागमैटिक जवाब दिया। भारत लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र हमारे रगों में बहता है। भारत और अमेरिका का डीएनए एक है। लोकतंत्र हमारी सांसों और जीवन प्रणाली में रचा बसा है। भारत में सभी धर्मों के लोग सदियों से रहते आ रहे हैं। यहां धर्म जाति लिंग भाषा, क्षेत्र और नस्ल के आधार पर किसी के साथ किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं होता। हम लोकतंत्र को जीते हैं और उसके बुनियादी उसूलों का पूरी तरह से अनुपालन करते हैं। आश्चर्य इस बात का है कि प्रधानमंत्री ने अपने स्वभाव के अनुकूल यह नहीं कहा कि भारत “मदर ऑफ डेमोक्रेसी है”। क्योंकि वह अमेरिकी मंच था। जहां अमेरिकी राष्ट्रपति उनके साथ साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे।

इसके पहले अमेरिका सहित संयुक्त राष्ट्र संघ की कई संस्थाओं ने भारत में लोकतंत्र की स्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त की थी। अल जजीरा से लेकर यूरोप और अमेरिका तक अनेक नागरिक और मानवाधिकार संगठन समय-समय पर भारत में घट रही घटनाओं को देखते हुए नरसंहार की आशंका व्यक्त करते रहे हैं। उनका मानना है कि भारत में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव और दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार हो रहा है। उनके धार्मिक स्थानों पर हमले बढ़े हैं। संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों ने भारत में एंटी मुस्लिम या अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति को स्थाई मुद्दा बना दिया है। इसमें ईसाइयों को बहुत पहले ही खींच लाया गया था और अब यूसीसी द्वारा सिख समाज भी तनाव के दरवाजे पर है।

फ्रांस आधारित अंतर्राष्ट्रीय गैर-लाभकारी संगठन “रिपोर्टर विदाउट वार्डर्स” ने वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम के सवाल पर भारत की लगातार गिरती रैंकिंग को नोट किया है। उसके अनुसार सिर्फ 1 साल में यह 10 पायदान गिरकर 180 देशों में 161वें स्थान पर पहुंच गई है। इस संस्था के अनुसार यह चिंताजनक स्थिति है। भारत को म्यांमार, उत्तर कोरिया, चीन, सऊदी अरब, तुर्की, सीरिया जैसे देशों की श्रेणी में रखा गया है।

इसके मूल कारणों में एक- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कॉर्पोरेट घरानों का कब्जा होना बताया गया। दूसरा भाजपा सरकार की असहिष्णुता की नीतियां। असहमति की आवाजों का दमन हो रहा है। उनके साथ क्रूरता पूर्ण व्यवहार किए जा रहे हैं। सिद्दीकी कप्पन से लेकर भीमा कोरेगांव के बौद्धिक सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को बिना किसी ठोस कारण के जेलों में बंद रखना अंतर्राष्ट्रीय चिंता का विषय रहा है।

भीमा कोरेगांव के कथित “षड्यंत्र” में लिप्त होने के नाम पर 83 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टैंड स्वामी को पानी पीने के लिए सहायक तक उपलब्ध न कराने और पार्किंसन के मरीज होने के बावजूद जमानत न देने से जेल में हुई मौत ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा था।

इसी के साथ कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भारत में सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ हो रहे भेदभाव पर चिंता व्यक्त की है। उमर खालिद सहित दर्जनों ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता है जो बरसों से बिना मुकदमा चलाए जेलों में बंद है। निर्दोष होते हुए भी उन पर UAPA जैसे कानून लाद दिए गए हैं। उन्हें अनेक तरह से परेशान करने के साथ उनके नागरिक अधिकारों को सीमित करने का प्रयास चल रहा है।

दिल्ली दंगों और निजामुद्दीन मरकज में तबलीगी जमात की भूमिका को लेकर जिस तरह से सरकार और प्रेस द्वारा अभियान चलाया गया और एकतरफा कार्रवाई हुई इसे रिपोर्टर विदाउट बॉर्डर्स ने भारत में बढ़ती असहिष्णुता और अल्पसंख्यकों के प्रति प्रशासन के रुख को एकतरफा बताया। इसे दमन के तौर पर नोट किया और कहा कि दिल्ली दंगों में दिख रहा पैटर्न भारत में लोकतंत्र के भविष्य के लिए खतरनाक संकेत है।

गुजरात में 2002 के सरकार प्रायोजित दंगा और नरसंहार के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए न्यायिक मदद करने के लिए प्रयासरत तीस्ता सीतलवाड़ और सेवानिवृत्ति डीजीपी बी.शिव कुमार और आईपीएस संजीव भट्ट पर फर्जी मुकदमे कराने के लिए न्यायालय का इस्तेमाल किया गया है। यहां पीड़ितों को न्याय दिलाने वाले ही मुजरिम बना दिये गए।

यही नहीं कई पत्रकारों को महीनों उस गुनाह के कारण जेल में रखा गया जिसको उन्होंने कभी किया ही नहीं था। साथ ही कश्मीर से लेकर शेष भारत के इलाकों में कई ऐसे पत्रकार और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और पर्यावरणविद हैं। जिन्हें विदेश जाकर पुरस्कार लेने या अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों बैठकों तक के लिए इजाजत नहीं दी गई। कुछ एक को तो हवाई अड्डे से ही डिटेन कर लिया गया। जबकि यात्रा की सभी औपचारिकताएं पूरी हो चुकी थीं।

हरिद्वार, प्रयागराज से लेकर जंतर-मंतर तक धर्म संसद द्वारा अल्पसंख्यकों के नरसंहार का ऐलान, मीडिया द्वारा अल्पसंख्यक विरोधी प्रचार और सुदर्शन टीवी जैसे नफरती चैनलों पर सरकार किसी भी तरह की कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं है। वही नौजवान लड़के-लड़कियों के आपसी प्रेम संबंध को लव जिहाद, गौरक्षा के नाम पर गौरक्षक गिरोहों की बर्बरता और आदिवासियों-दलितों पर बढ़ते अत्याचार आने वाले समय के संकेतक हैं। मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश में इस बीच दलितों-आदिवासियों पर मूत्र विसर्जन से लेकर जूते में पानी पिलाने और जूते चटवाने के साथ ही बर्बर पिटाई कर उन्हें नंगा घुमाने जैसी घटनाएं मध्ययुगीन बर्बरता की याद दिला रही है।

लोकतंत्र की अन्य संस्थाएं तो पहले ही समर्पण कर चुकी है। न्यायपालिका का जिस तरह (बाबरी मस्जिद और राहुल गांधी मान हानि केस) से इस्तेमाल हो रहा है वह भारत में कानून के राज को लेकर चिंता का विषय है। कानून को ताक पर रखते हुए बुलडोजर न्याय की प्रक्रिया पर दुनिया के कई संस्थान और अखबारों में लंबी-लंबी खबरें छपी है। यहां तक की प्रयागराज में जावेद का घर गिराए जाने की घटना को अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जनरल ने उस समय प्रमुखता से छापा जब प्रधानमंत्री जी अमेरिका यात्रा पर जाने वाले थे।

जो लोग भारत में बदल रहे परिवेश पर गहराई में नजर रख रहे हैं। उनका चिंतित होना स्वाभाविक है। इसके दूरगामी वैश्विक प्रभाव पड़ेंगे और दुनिया उससे निरपेक्ष नहीं रह सकती। यूक्रेन रूस युद्ध ने वैसे ही दुनिया को संकट में डाल दिया है। अगर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और 140 करोड़ जनसंख्या वाले देश में आंतरिक अशांति पैदा होती है तो यह वैश्विक शांति के लिए गंभीर चुनौती होगी।

पिछले दिनों प्रधानमंत्री की फ्रांस की यात्रा के दौरान फ्रांस के सबसे बड़े अखबार “ला मोंडे” में भारत को लेकर एक लम्बी रिपोर्ट छपी है। वह मोदीके दुनिया में बज रहे डंके की पोल खोल देती है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में किस तरह से लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमले हो रहे हैं और भारत लोकतांत्रिक तानाशाही के दरवाजे पर खड़ा है। उसी समय जब प्रधानमंत्री फ्रांस की यात्रा पर थे यूरोपीय यूनियन की संसद में मणिपुर की स्थिति को लेकर एक प्रस्ताव पर गंभीर बहस हुई। जिसमें 80% सांसदों ने भाग लिया।

यूरोपीय संसद में इस प्रस्ताव पर बहस न हो इसके लिए भारत के विदेश मंत्रालय ने एक पीआर कंपनी को भी हायर करने किया था जो सांसदों में लाबिंग करके इस प्रस्ताव को रोके। लेकिन भारत को कामयाबी नहीं मिली। यूरोपीय यूनियन की बहस में यह नोट किया गया कि मोदी के आने के बाद सरकार द्वारा लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया गया है। पिछले 25 वर्षों से मोदी के नेतृत्व में राज्य प्रायोजित नरसंहार किए गए है। भारत चुनावी तानाशाही के रास्ते पर आगे बढ़ गया है।

यह सब उस समय हो रहा था जब चंद कदम दूरी पर मोदी जी फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ विभिन्न तरह के सौदों और संधियों में व्यस्त थे। यह चिंता की बात है कि भारत के आंतरिक मामलों में यूरोपीय देशों और अमेरिका की इस दखलंदाजी बढ़ती जा रही है। भारत सरकार ने वामपंथी और भारत विरोधी शक्तियां का षडयंत्र कह कर टालने की कोशिश की गई।

पिछले 65 दिनों से मणिपुर जल रहा है। दुनिया देख रही है कि किस तरह से मणिपुर में नस्लीय सफाया चल रहा है। समुदायों में आपसी विश्वास खत्म हो गया है। संघ भाजपा की धार्मिक और बहुमत वादी नीति ने मणिपुर को जिस मुहाने पर पहुंचा दिया है वह मनुष्यता के लिए गंभीर त्रासदी है। हजारों लोग बेघर हैं। डेढ़ सौ के करीब लोग मारे जा चुके हैं। 3 हजार से ज्यादा नागरिक घायल हैं। 60 हजार से ज्यादा लोग रिफ्यूजी कैंपों में रह रहे हैं। 29 सौ के करीब सरकारी हथियार लूटे गए हैं। हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है।

कुकी और मैतेई समुदाय का एक दूसरे पर से विश्वास उठ गया है। यहां तक कि इन समुदायों का सुरक्षा बलों पुलिस और राज्य सरकार पर यकीन नहीं रहा। वे अब स्वयं की सुरक्षा के लिए पहल ले रहे हैं। यहां नागरिक प्रशासन लगभग ठप है। अपने-अपने समुदायों में पुलिस प्रशासन और दूसरों को घुसने नहीं दिया जा रहा है। सरकार तमाशा देख रही है। ऐसा लगता है कि सरकार की पूर्वोत्तर नीति दम तोड़ चुकी है। या यह भी हो सकता है कि सरकार सोची-समझी योजना के तहत इस तरह की परिस्थिति पैदा करने की कोशिश कर रही हो। जिसके पूर्वोत्तर भारत के समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे।

हम जानते हैं कि भारत के पूर्वोत्तर राज्य लंबे समय तक अशांत रहे हैं। विद्रोही गुटों के कारण पूर्वोत्तर बार-बार रक्त रंजित होता रहा है। लंबे और धैर्यपूर्वक किए गए प्रयास के बाद धीरे-धीरे शांति का वातावरण बना था। एक दूसरे समुदायों में आपसी विश्वास बढ़ने लगा था। लेकिन जब से भारतीय जनता पार्टी ने पूर्वोत्तर पर नियंत्रण कायम किया। यहां लोगों का विश्वास भंग होने लगा। जनजातियों और विभिन्न धर्मों के बीच में टकराव बढ़ता गया। यहां तक कि बीजेपी शासित राज्यों के पुलिस और नागरिक एक दूसरे से लड़ते और मरते रहे हैं। मणिपुर की आग जिस तेजी से पूर्वोत्तर को प्रभावित कर रही है वह नए तरह के ध्रुवीकरण को जन्म देगी। जो भारत की एकता अखंडता के लिए गंभीर चुनौती होगी। चूंकि पूर्वोत्तर में ईसाई समुदाय के लोग अच्छी संख्या में हैं। इसलिए संघ ने यहां गुजरात के बाद नया प्रयोग स्थल बनाया है।

भाजपा तो भारत के महाविभाजन पर ही पली-बढ़ी है। वह धार्मिक भिन्नता और जातियों के टकराव के बीच से ही ऊर्जा और शक्ति ग्रहण करती है। इसलिए सोच समझ कर वह विभिन्नता की खाई को विस्तारित करने का प्रयास करती रहीं है। जिस तरह से गुजरात नरसंहार के बाद भाजपा को भारत की सत्ता पर पहुंचने में मदद मिली थी। लगता है वह इस बार पूर्वोत्तर भारत में वही प्रयोग दुहराने जा रही हैं। जहां 164 से ज्यादा जनजातियां लंबे समय तक एक-दूसरे के अगल-बगल रहती रही हैं। अब उन्हें एक दूसरे के शत्रु के रूप में परिवर्तित किया जा रहा है।

शेष भारत में जाति और धार्मिक टकराव बढ़ रहे हैं। वर्चस्वशाली समूह सक्रिय और उन्मत्त हो चुके हैं। मध्यप्रदेश के मूत्रदान और चप्पल चाटने की घटनाओं से जो संकेत मिल रहे हैं वह हमारे लोकतंत्र व समाज के लिए कतई शुभ नहीं कहे जा सकते। सरकार एकतरफा कार्रवाई में यकीन कर रही है। सरकार के दमन का क्षेत्र विस्तारित हो रहा है। नागरिक की स्वतंत्रता पर नए-नए प्रतिबंध और नियम थोपे जा रहे हैं।

अमृत काल में कर्तव्य काल की घोषणा कर मोदी ने नए तरह के दमन का संकेत दे दिया है। अब वह संवैधानिक दायरे से बाहर जाकर नागरिकों पर कर्तव्य बोध के नाम पर नए प्रतिबंध आरोपित करेंगे। जिससे व्यक्ति की स्वतंत्रता निजता के अधिकार और अस्मिता को गहरी चोट पहुंच सकती है। जिससे संवैधानिक अधिकार खतरे में पड़ गये हैं। इसलिए नागरिकों में सरकार के प्रति विश्वास कम हो रहा है। महंगाई बेरोजगारी भुखमरी और गरीबी के विस्तार ने वैसे ही समाज को अंदर से तनावग्रस्त कर दिया है। मध्यवर्ग अस्मिता के गंभीर संकट से गुजर रहा है। किसी सभ्य समाज के लिए यह स्थिति चिंताजनक कही जा सकती है।

लगता है अमेरिकी राजदूत ने भारत की इस बन रही स्थिति को गहराई से नोट किया होगा। (बाद में जिसपर यूरोपीय यूनियन की संसद ने भी चिंता व्यक्त की) इस कारण उन्होंने भारत में ही भारत के आंतरिक मामले में मदद देने की पेशकश की है। जो आमतौर पर राजनयिक नियमों के विपरीत आचरण है। (यहां यह ध्यान रखें कि भारत क्वाड का सदस्य है) इस सवाल पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया एक मामूली टिप्पणी से ज्यादा कुछ नहीं है। यह उस चिंता को अभिव्यक्त नहीं करती जो भारत के आंतरिक मामलों में अमेरिकी हस्तक्षेप से जन्म ले रही है। हमने देखा है कि जिन जिन मुल्कों में अमेरिका मदद के नाम पर गया है। उसके परिणाम उन मुल्कों के लिए अनिष्ट कारी रहे हैं।

भारत के नागरिक समाज, विपक्षी दलों से लेकर पूरी दुनिया मणिपुर के हालात को लेकर चिंतित है। लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं को तरजीह दे रहे हैं। जी-20 के नाम पर फिजूल के दिखावे और लाखों-करोड़ों बर्बाद कर अपनी महत्ता दिखाने में लगे हैं। भांड मीडिया मणिपुर के गंभीर हालात को नजरअंदाज करते हुए प्रधानमंत्री के इस तरह के प्रहसन के महिमा मंडन में व्यस्त है। इसे भारत के महाशक्ति बनने की दिशा में बढ़ते हुए कदम के रूप में चिन्हित कर रहा है।

विदेश से लौटते ही प्रधानमंत्री चुनाव अभियान में उतर पड़े। भ्रष्टाचार खत्म करने और विरोधियों को जेल में डालने की धमकियां दे रहे है और पार्टियों को तोड़ने जोड़ने में व्यस्त हो गए। उनकी प्राथमिकता देखकर दुनिया का चिंतित होना स्वाभाविक है। दुनिया देख रही है कि मणिपुर में बहुत बडा मानवीय संकट खड़ा हो गया है। बच्चे औरतें मारे जा रहे हैं। जलाए जा रहे हैं। हजारों की तादाद में रिफ्यूजी कैंपों में अमानवीय जीवन जीने को अभिशप्त है। जहां दवाइयां और खाने की वस्तुओं की किल्लत है। स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र काम नहीं कर पा रहे हैं। आये दिन आगजनी हिंसा और हत्या हो रही है। पुलिस के कमांडो तक सुरक्षित नहीं है।

ऐसी स्थिति में भारतीय प्रधानमंत्री का 70 दिनों से जल रहे मणिपुर पर एक शब्द न बोलना किसी गहरी साजिश का संकेत है।जो आने वाले समय में भारतीय में घटित हो सकती है। हम संघ प्रचारक रहे प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली को पिछले 9 वर्षों से देख रहे हैं। इसलिए प्रधानमंत्री के मौन कों सामान्य अर्थ में नहीं लेना चाहिए। नागरिक समाज को इसे गंभीरता से लेते हुए भारतीय लोकतंत्र को बचाने के लिए बड़ी पहल लेने की जरूरत है। नहीं तो भारत का पूर्वोत्तर राज्य महा शक्तियों के स्वार्थ के अखाड़े में तब्दील हो जाएगा।

हमने दक्षिण पूर्व एशिया से लेकर पश्चिमी एशिया में (वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, इराक, अफगानिस्तान और फिलीस्तीन- इजरायली गाजा पट्टी) अमेरिकी मदद और हस्तक्षेप के दुष्परिणाम देखे हैं। (मोदी द्वारा अमेरिका में चीन का सवाल उठाना और फ्रांस द्वारा अरुणाचल प्रदेश को भारत का अभिन्न अंग घोषित करना यह सामान्य वक्तव्य नहीं है।) हम नहीं चाहते कि हमारे सीमावर्ती इलाकों में जहां चीन जैसी महाशक्ति मौजूद है किसी तरह की अशांति और अस्थिरता पैदा हो।

हमें अमेरिकी राजदूत के बयान और यूरोपीय यूनियन में हुई बहस को इसी अर्थ में देखना चाहिए। क्योंकि मणिपुर की सीमा से सटे देश में सैनिक तानाशाही के कारण गृह युद्ध जैसे हालात बन गए हैं। भारत में पूर्वोत्तर की पहाड़ियां और घाटियां अगर किसी तरह से अशांत होंगी तो अमेरिका जैसे धूर्त साम्राज्यवादी देशों को भारत में अपनी वैश्विक युद्ध केंद्रित नीतियों को लागू करने का मौका मिल जाएगा।

हम जानते हैं जहां भी अमेरिका के खूनी पंजे धंसे हैं वहां सबसे पहले लोकतांत्रिक शक्तियों और संस्थानों का विध्वंस कर तानाशाही थोप दी जाती है। इसलिए समय रहते सतर्क होकर भारतीय लोकतंत्र पर हो रहे फासीवादी हमले के खिलाफ सचेत संगठित प्रतिरोध तेज कर देना चाहिए है। इसके लिए सभी प्रगतिशील लोकतांत्रिक व्यक्तियों संगठनों और विपक्षी दलों की मजबूत एकता आवश्यक शर्त है।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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