लोकतांत्रिक देशों में चुनाव जीतने के लिए मतदाताओं से चांद-तारे तोड़ लाने की बातें तो हर देश में होती रहती हैं, लेकिन जीत हासिल करने के बाद वास्तविकता के धरातल पर अधिकांश हवा-हवाई वादों को रद्दी की टोकरी में फेंक सत्ताधारी दल का नेता काम में मशगूल हो जाता है। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर अपनी दूसरी पारी में डोनाल्ड ट्रंप अपने ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के नारे को लगता है सिरे चढ़ाकर ही दम लेंगे।
ऐसा माना जा रहा है कि 2016 के चुनाव में अधिकांश रिपब्लिकन सीनेटर पारंपरिक कांग्रेसमेन की सोच के थे, और साथ ही ट्रंप के पास बड़ा बहुमत नहीं था। इस बार वे भारी अंतर से ही नहीं जीते, बल्कि 7 स्विंग स्टेट्स में से 6 राज्यों में भी पार्टी को जीत हासिल हुई। यही कारण है कि इस बार ट्रंप प्रशासन में जो भी शामिल हैं, वे या तो राष्ट्रपति ट्रंप के लिए यस मेन की भूमिका में हैं या उन्हीं की तरह घोर कंजरवेटिव धुर दक्षिणपंथी सोच रखते हैं।
जहां तक विश्व में अपनी चौधराहट कायम रखने का प्रश्न है, उस मामले में डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन के बीच कोई खास अंतर नहीं रहा है। दोनों धड़ों का साफ़ मानना है कि 90 के दशक में सोवियत रूस के विघटन के बाद से पूरी दुनिया में अमेरिका का जो एकछत्र राज कायम हो गया था, उसे चीन पिछले एक दशक से कड़ी चुनौती पेश करने लगा है। चीन को यदि तत्काल बोंजाई बनाने के प्रयास नहीं किये गये, अमेरिका जल्द ही दोयम दर्जे की श्रेणी में पहुंच सकता है।
इसे अमली जामा पहनाने के लिए बाइडेन प्रशासन लॉन्ग गेम प्लान पर काम कर रहा था, जिसमें यूरोप को रुस से अलग कर अपने पीछे लाने, हिंद महासागर में ताईवान, दक्षिण कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ विभिन्न फोरम के तहत घेराबंदी शामिल थी। जबकि रिपब्लिकन की सोच कहती है कि रूस की घेराबंदी कर बाइडेन प्रशासन ने रूस-चीन संबंधों को उल्टा मजबूती प्रदान कर दी है, जो चीन के पक्ष में गया है।
ट्रंप ने आते ही यूक्रेन-रूस संघर्ष पर अपना एकतरफा फैसला सुनाकर पिछले 3 वर्षों से विश्व में पुतिन को अलग-थलग रखने की नीति को पलट दिया। अब यहां पर देखना चाहिए कि बाइडेन प्रशासन ने यूक्रेन-रूस संघर्ष में यूरोप को घसीटकर रूस के साथ संबंधों को पूरी तरह से खत्म करने की अपनी रणनीति में जीत हासिल कर ली थी। आज यूरोप में सबसे अग्रणी जर्मनी की हालत खस्ता है, फ़्रांस और ब्रिटेन भी बेदम होकर अधिकाधिक अमेरिका के पीछे खड़े हैं।
लेकिन ट्रंप की घोषणाएं और एग्जीक्यूटिव ऑर्डर्स घरेलू अर्थव्यवस्था और राजनीति पर ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को थर्राए हुए हैं। कहां अभी तक अमेरिकी भूराजनीतिक चाल में कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना होता था और कहां अब ट्रंप मित्र देशों और शत्रुओं सभी को एक ही तराजू पर तौलने पर अड़े हुए हैं।
शुरुआत अवैध प्रवासियों से हुई तो यूरोप सहित दुनिया के सभी मजबूत देश खामोश रहे। लेकिन इसके साथ ही ट्रंप ने कनाडा और मेक्सिको के खिलाफ 25% और चीन के खिलाफ 10% टेरिफ की मुनादी कर खलबली मचा दी थी। बाद में कनाडा और मेक्सिको पर टेरिफ को एक माह के लिए टाल दिया, लेकिन मार्च की शुरुआत के साथ जैसे ही यह डेडलाइन खत्म हुई, ये प्रतिबंध लागू हो गये। कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो दिनभर इसी उम्मीद में बैठे रहे कि अमेरिका से इस मुद्दे पर कुछ समझौता हो जाये, लेकिन जब कोई गुंजाइश नहीं दिखी तो कनाडा ने भी बदले की कार्रवाई करते हुए तत्काल प्रभाव से जवाबी टेरिफ लगा दिया।
20 जनवरी 2025 को राष्ट्रपति पद की शपथ से लेकर 4 मार्च तक डोनाल्ड ट्रंप छुट्टा सांड की तरह दुनिया को जुबानी जमाखर्च कर धमकाते रहे, लेकिन कनाडा, चीन और मेक्सिको की ओर से काउंटर टेरिफ की कार्यवाई और उसके असर से अमेरिकी स्टॉक मार्केट में तेज गिरावट, मुद्रास्फीति और अमेरिका के मंदी के दौर में जाने की आशंकाओं ने अचानक से ट्रंप के बुल रन पर जैसे ब्रेक लगा दिए हैं।
अमेरिकी संयुक्त संसद में लगभग पौने दो घंटे के अपने भाषण में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बड़ी-बड़ी डींगें हांकते रहे, और जो बाइडेन सहित डेमोक्रेटिक सांसदों को नीचा दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। अमेरिकी इतिहास में खुद को सबसे महानतम बताने वाले ट्रंप का कहना था कि, “कई लोगों ने कहा है” कि उनके कार्यकाल का पहला महीना अमेरिकी इतिहास में सबसे सफल रहा। इसके बाद ट्रंप पूछते हैं, “आप जानते हैं कि दूसरे नंबर पर कौन है?” फिर खुद ही जवाब दिया, “जॉर्ज वाशिंगटन।”
बाइडेन को “अमेरिकी इतिहास का सबसे खराब राष्ट्रपति” करार देते हुए ट्रंप ने टेक दिग्गज और विश्व के सबसे धनी व्यक्ति, एलन मस्क की शान में कसीदे पढ़े और दावा क्या कि उनके सरकारी DOGE विभाग ने एक माह के भीतर “सैकड़ों अरब डॉलर की धोखाधड़ी” पकड़ी है।
हकीकत यह है कि एलन मस्क और उनकी टीम ने सरकारी संस्थाओं के कामकाज को बुरी तरह से प्रभावित किया है। करीब 20 लाख सरकारी कर्मचारियों का भविष्य अधर में लटका हुआ है। मस्क एक सप्ताह के भीतर स्टाफ से रिपोर्ट पेश करने और इसमें विफल होने पर निकाल बाहर करने की खुली धमकी दे चुके हैं। हालत यह है कि ट्रंप प्रशासन में मस्क के DOGE और अर्जेंटीनी राष्ट्रपति से हासिल आरा मशीन का ही बोलबाला दिखा, जैसे अपने उत्तर प्रदेश में बुलडोजर का जलवा देश देख चुका है।
विभिन्न मंत्रालयों का काम फायर ब्रिगेड की तरह ट्रंप और मस्क की लगाई आग पर काबू करना बना हुआ था, जिसका नतीजा यह हुआ कि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक साथ ट्रंप के एग्जीक्यूटिव आदेश और जुबानी घोषणाएं अब अमेरिकी जनता और अर्थव्यवस्था पर ही सर्जिकल स्ट्राइक करती दिख रही हैं।
जैसे, नवंबर 2024 में जब ट्रंप जीते तो शेयर बाजार में एक सप्ताह में करीब 4% की तेजी देखने को मिली, क्योंकि निवेशक अनुमान लगा रहे थे कि सरकारी लालफीताशाही में कमी आएगी और टैक्स कटौती का उन्हें फायदा मिलेगा। लेकिन कनाडा और मेक्सिको पर 25% टेरिफ की घोषणा ने विश्व की सबसे एकीकृत आपूर्ति श्रृंखला को पूरी तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया है, और अमेरिका में जिस महंगाई को फ़ेडरल रिजर्व पिछले डेढ़ वर्षों में काबू कर पाने में सफल रहा, उसे एक झटके में ट्रंप की मनमानेपन वाली नीतियों ने फिर हवा दे दी है।
राष्ट्रपति ट्रंप की यह बात सही है कि दुनिया के अधिकांश देशों के साथ विदेशी व्यापार में अमेरिका घाटे में है। लेकिन इसके साथ कुछ और भी जमीनी वास्तविकता है, जिसे दरकिनार कर ट्रंप अगर व्यापार संतुलन को पटरी पर लाना चाहेंगे तो उन्हें पहले अमेरिका का हुलिया पूरी तरह से बदलना होगा। यह नहीं किया तो शेष विश्व न सिर्फ अमेरिका से किनारा कर सकता है, बल्कि चीन के नंबर 1 बनने की रफ्तार को ट्रंप ही अग्रगति देने जा रहे हैं।
सबसे पहले, अमेरिका को स्वीकार करना होगा कि वह अब दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग यूनिट नहीं है, बल्कि वस्तुओं का शुद्ध उपभोक्ता मुल्क बन चुका है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था वित्तीय पूंजी, डॉलर की हेजेमनी, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स और नई प्रोद्योगिकी पर अपने नियंत्रण के बल पर अभी तक चल रही थी, जिसे किसी भी अन्य देश से कोई चुनौती नहीं मिली थी।
आज ट्रंप जिस फेनाटाइल की देश में आवक के नाम पर कनाडा, मेक्सिको और चीन के खिलाफ टेरिफ थोपने की कवायद कर रहे हैं, वह पूरी तरह से बेतुका और धौंस पट्टी की कोशिश है। मेक्सिको और कनाडा वे देश हैं, जहां से अधिकांश आयात असल में अमेरिकी ऑटो सेक्टर अपनी ही कंपनियों से करती हैं। असल में सस्ते श्रम की खोज में अमेरिकी पूंजी ही मेक्सिको, चीन, ताइवान, भारत सहित दुनिया के विभिन्न देशों में डेरा डाले हुए है।
ये अमेरिकी कॉर्पोरेट ही है जो अपनी पूंजी और तकनीक को दुनिया के सस्ते बाजारों में निवेश कर मोटा मुनाफा कमा रही हैं, और वहीं रेडीमेड सामान अमेरिका आयात करता है। उल्टा, डॉलर की चौधराहट के बल पर अमेरिका अभी तक विश्व व्यापार पर अपना नियंत्रण बनाये हुए है, जिसे ब्रिक्स जैसे संगठन से खतरा उत्पन्न होने लगा है।
आज ट्रंप भले ही अमेरिका के भीतर मैन्युफैक्चरिंग को लाने की जितनी भी थोथी घोषणाएं कर लें, अमेरिकी उपभोक्ताओं को वे चीन, ताइवान जैसे देशों की तुलना में किफायती दर पर मुहैया नहीं करा सकते, निर्यात की तो बात ही छोड़ दें।
उल्टा, ट्रंप ने चीन की घेरेबंदी के नाम पर जिस तरह से कनाडा, मेक्सिको ही नहीं बल्कि यूरोप, दक्षिण कोरिया और जापान तक को सकते की स्थिति में डाल दिया है, उसने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार यूरोपीय देशों को 440 वोल्ट का झटका दे दिया है।
आज यूरोपीय देश खुद को असहाय स्थिति में पा रहे हैं। ताईवान, जो कल तक अमेरिका के बल पर चीन के समक्ष संप्रभु राष्ट्र होने का सपना देख रहा था, की हालत भी यूक्रेन जैसी हो गई है। एशिया में जापान और दक्षिण कोरिया की स्थिति को भी आसानी से समझा जा सकता है।
चीन जिसे काबू में करने की रणनीति पर बराक ओबामा के कार्यकाल से शुरुआत हो चुकी थी, ने इस दौरान अपनी अर्थव्यवस्था का कायापलट कर डाला है। आज से 10 वर्ष पहले तक भारत में हम चीनी उत्पाद को नकली/घटिया माल की संज्ञा दिया करते थे, तकनीक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जापान और जर्मनी ही नहीं बल्कि अमेरिकी कंपनियों को कड़ी टक्कर दे रहा है।
अमेरिका ने 30 के दशक में ऑटोमोबाइल क्षेत्र में ब्रेकथ्रू कर खुद को पहले नंबर की अर्थव्यवस्था बनाया था, जिसकी तूती इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी के युग में भी कायम रही। लेकिन आज हम जब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, 5जी, इलेक्ट्रिक वाहन और चिप्स के युग में प्रवेश कर चुके हैं तो अमेरिका हर कदम पर चीन को मजबूती से खड़ा पा रहा है।
चीन के समाजवादी शासन में दो व्यवस्थाओं को लागू करने, ओर अमेरिका किसी भी नई खोज का दावा करता है, चीन उसका व्यापक मात्रा में उत्पादन कर अमेरिकी कॉर्पोरेट के भारी मुनाफाखोरी की उम्मीदों पर ही पानी फेर रहा है।
ऐसे में, ट्रंप साहब भले ही दुनियाभर पर टेरिफ थोप धमकाने की कोशिश करें, अंततः टेरिफ की मार तो अमेरिकी उपभोक्ताओं पर ही पड़ने जा रही है। अमेरिका के पास ले देकर सिर्फ मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स का ही सहारा है, जिसे यूरोप, सऊदी अरब, भारत, दक्षिण कोरिया सहित यूरोप को बेच और आखिर में अपनी बादशाहत खोते देख हमलावर रुख अपनाने की भविष्य में विवशता में देखने को मिल सकती है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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