“इतिहास किसी का इंतज़ार नहीं करता है।” (अर्जुन सिंह)
बेशक़, मध्य प्रदेश से राष्ट्रीय स्तर के राजनेता अर्जुन सिंह कोई क्रांतिकारी नेता नहीं थे। लेकिन, उत्तर इंदिरा काल की कांग्रेस के एक ऐसे अथक सैनिक थे, जिसकी दृढ़ आस्था गांधी+नेहरू+आजाद+पटेल कालीन कांग्रेस के मूल्यों में अंतिम समय तक रही।
रीवा अंचल के चुरहट सामंती परिवेश से अपने सार्वजनिक जीवन की यात्रा की शुरुआत करने वाला सैनिक अर्जुन सिंह अंततः लोकतंत्र के अडिग सैनिक में परिवर्तित हो गया।
पर वर्तमान दौर में, पूर्व केंद्रीय मंत्री व पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत अर्जुन सिंह को क्यों याद करें? आज़ की कांग्रेस तब की कांग्रेस नहीं रही है। काफ़ी कुछ बदल चुका है। यदि वे आज़ जीवित होते तो छह कम सौ वर्ष के रहे होते।
लेकिन, 5 नवंबर 1930 और 2024 के 5 नवंबर के बीच समाज और राजनीति का चेहरा बिल्कुल बदल चुका है; गंगा-जमुना- नर्मदा में काफी पानी बह चुका है, रंग बदरंग हो चुका है। तब ऐसे सैनिक को याद करने का सबब?
याद आया, एक दफा अर्जुन सिंह जी ने स्वयं भोपाल में कहा था कि “सैनिक मरता नहीं है, लुप्त हो जाता है”। शायद, उनके ही कथन को ध्यान में रख कर यह पत्रकार उन्हें याद करना चाहता है।
अर्जुन सिंह से मेरा पहला संपर्क 1967 में भोपाल में हुआ था। तब हिन्दुस्तान समाचार एजेंसी के भोपाल ऑफिस में रिपोर्टर था। उन दिनों मध्यप्रदेश में द्वारका प्रसाद मिश्र के नेतृत्व में कांग्रेस सत्तारूढ़ थी और मिश्र, मंत्रिमंडल के सदस्य थे अर्जुन सिंह।
प्रतिपक्ष की उभरती नेता थीं ग्वालियर की श्रीमती विजयाराजे सिंधिया। किसी भी समय कांग्रेस सरकार का पतन हो सकता है, ऐसी आशंकाओं के बादल भोपाल के सियासी आसमान में छाए हुए थे।
और एक रोज़ नाटकीय ढंग से खुर्राट मुख्यमंत्री मिश्र जी की सरकार का पतन हो भी गया, और मुख्यमंत्री बने रीवांचल के गोविन्द नारायण सिंह। प्रदेश सियासत के संक्रमण दौर में मैं उनसे विधानसभा के गलियारे में मिलता रहा। साल के अंत में मैं दिल्ली चला आया।
इसके साथ ही संपर्क टूट गया। क़रीब एक दशक के अंतराल के बाद अर्जुन सिंह फिर टकराये। उन दिनों वे विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता थे और मुख्यमंत्री थे जनसंघ के कैलाश जोशी। 1978 में रतलाम ज़िले के कनाड़िया गांव में भूमि विवाद को लेकर सवर्णों ने कुछ दलितों की हत्या कर दी थी।
हत्याकांड ‘कनाड़िया ट्रेजेडी’ के रूप में अखबारी सुर्ख़ियों में था। मैंने गांव पहुंच कर कुछ ज़मीनी तथ्य जमा किये थे। घटना के संबंध अर्जुन सिंह चर्चा करना चाहते थे। तब पत्रकारिता से अवकाश लेकर मैं राष्ट्रीय श्रम संस्थान के रूरल विंग में शोधकर्ता हुआ करता था।
इस घटना के दो वर्ष बाद मेरी पत्रकारिता में वापसी हुई और नई दुनिया का दिल्ली ब्यूरो प्रमुख बना। इसके बाद अर्जुन सिंह जी के साथ संबंधों की लम्बी पारी उनके दैहिक पटाक्षेप (मार्च, 2011) तक चली। इस लम्बी पारी में उन्हें कुछ करीब से देखने-समझने का अवसर मिला।
सहमति-असहमति भी साथ-साथ चलती रहीं। तभी उनका एक कथन दिमाग़ में हमेशा झूलता रहता है, “जोशी जी, आप न कांग्रेसी हैं और न कभी होंगे”। उनका यह मार्के का कथन हम दोनों के मध्य ‘लक्ष्मण रेखा’ की भूमिका निभाता रहा है। वे राजनैतिक और ग़ैर-राजनैतिक एक्टिविस्टों के साथ संबंध निर्वाह के ‘पारखी’ थे;
ख़ामोशी के साथ रिश्ते निभाते रहते और कुशलतापूर्वक सिकोड़ भी लेते। मुझे काफी कुछ सीखने का अवसर भी मिला। सत्ता के बाहरी गलियारों में चहलक़दमी भी की। दो राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं का अध्यक्ष व उपाध्यक्ष भी रहा, पूरी स्वतंत्रता के साथ।
वैसे उनके जीवन के कई आयाम हैं। उनकी जीवनी भी लिख चुका हूं। “अर्जुन सिंह- एक सहयात्री इतिहास का” (राजकमल प्रकाशन)। प्रस्तुत लेख में चंद अनुभवों की बात करूंगा, जिनकी प्रासंगिकता मौज़ूदा दौर में भी है।
अर्जुन सिंह कहा करते थे, ”मेरे लिए धर्मनिरपेक्षता राजनीतिक जुमला नहीं, एक article of faith है।” यही वज़ह रही कि वे साम्प्रदायिक संगठनों के निशाने पर हमेशा रहे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ उनका टकराव अंतिम समय तक रहा। कुछ छोटे-मोटे मुक़द्द्में भी चलते रहे हैं।
लेकिन, सेकुलरिज्म पर कोई समझौता नहीं किया। वे कहा करते थे कि जोशी जी (उन्होंने ‘जी’ हमेशा लगाया) सेकुलरिज्म ही भारत की पहचान और शक्ति है। इसकी अनुपस्थिति में भारत की विशिष्टता का लोप हो जाता है।
कभी डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया पढ़िए। उन्हें नेहरूजी के दृष्टि संसार से बेहद प्यार था। उनके निजी पुस्तकालय में नेहरू साहित्य का विशिष्ट स्थान था। लेकिन, आज़ धर्मनिरपेक्षता और नेहरू, दोनों को ही विवादास्पद बना दिया गया है, घृणा व त्याज्य के रूप में चित्रित किया जा रहा है।
अर्जुन सिंह का दृढ़ मत था, धर्म-मज़हब का रिश्ता व्यक्ति के निजी आस्था संसार से है, इसे राज्य के क्रियाकलापों से दूर रखने में ही राष्ट्र और जनता की सुरक्षा व एकता को सुनिश्चित किया जा सकता है।
लेकिन, क्या आज़ ऐसा हो रहा है? कार्यपालिका और न्यायपालिका के प्रमुख जिस रूप में निजी आस्थाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं और मंदिर में ईश्वर से मार्ग दर्शन प्राप्त कर फैसला दे रहे है।,
क्या इस पद्धति से दीर्घ काल तक आधुनिक राष्ट्र राज्य को स्वस्थ, सुरक्षित व अखण्ड रखा जा सकता है? यह ज्वलंत प्रश्न है इस दौर का। एक राजनेता के नाते अर्जुन सिंह इसका माकूल ज़वाब दे सकते थे।
कभी किसी ने जाना कि मध्यप्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल जैसी पिछड़ों व दलितों पर आधारित पार्टियां आज तक प्रदेश की मुख्य पार्टियां क्यों नहीं बन सकी हैं? क्यों भाजपा और कांग्रेस ही आमने-सामने हैं? इसकी असली वज़ह यह है कि अर्जुन सिंह अगड़ा बनाम पिछड़ा वर्ग से जनित अंतर्विरोधों का शमन की राजनीति करते रहे।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मंडल आयोग की सिफारिशों को देश में लागू नहीं कर सकीं। लेकिन, उन्हीं की अनुमति से मुख्यमंत्री सिंह ने प्रदेश में महाजन पिछड़ा आयोग की सिफारिशों को सफलतापूर्वक लागू कर दिखाया था। प्रदेश स्तर के पिछड़ा आयोग के गठन के माध्यम से उन्होंने उभरते अंतर्विरोध का शमन कर दिया।
अर्जुन सिंह ‘बेजोड़ रणनीतिज्ञ’ थे। इसीलिए उनसे लोग आतंकित भी रहते थे। शायद इसीलिए उनको इंदिरा-राजीव-सोनिया परिवार का जेनुइन विश्वास कभी नहीं मिल सका।
यदि ऐसा विश्वास रहता तो वे 1991, 2004 और 2009 के सालों में वे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन सकते थे। और कांग्रेस को पराभव से बचा सकते थे। नरेंद्र मोदी गांधीनगर तक ही सिमटे दिखाई देते।
अर्जुन सिंह सामंती पृष्ठभूमि से होते हुए भी वाम के प्रति स्वाभाविक रुझान रखते थे। उनमें अपनी सरहदों और उनके पार जाने की पुख्ता समझदारी थी। उनके सरकारी निवास के कामकाजी रूम में हमेशा व्लादिमीर लेनिन की टेबल मूर्ति का होना एक अलग ही सन्देश देता था।
सारांश यह है कि वे लेफ्ट और ‘लेफ्ट-ऑफ़-सेन्टर’ के बीच आवा-जाही करते रहे। 1980 में पहली दफ़ा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद ’सर्वहारा’के नाम से कई कल्याण योजनाएं शुरू की, झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों की ओर ध्यान दिया, भूमि सुधार की तरफ ध्यान गया आदि।
भोपाल को देश की सांस्कृतिक राजधानी बनाया। जिम्मेदारी दी प्रतिबद्ध तत्कालीन संस्कृति सचिव अशोक वाजपेई को। शिक्षा क्षेत्र में वैज्ञानिक स्तरीय विकास के काम को वे हमेशा प्रगतिशील कवि और प्रतिबद्ध शिक्षा सचिव सुदीप बनर्जी को सौंपा करते थे।
सर्वशिक्षा अभियान काफी चर्चित रहा। स्वयं सेवी संस्थाओं के मामले में उन्होंने सहमत, शबनम हाशमी और अन्य प्रगतिशील रुझानवाली संस्थाओं को भी काम दिया। याद करिए, दिसंबर 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद को ध्वस्त करने से उत्पन्न साम्प्रदायिक तनाव को कम करने में सहमत का सहयोग लिया।
अयोध्या में प्रदर्शनी लगाई गयी। मुझे याद है, अर्जुन सिंह राव-मंत्रिमंडल के एकमात्र काबीना मंत्री थे, जो प्रधानमंत्री की मर्ज़ी के विपरीत जाकर 4 दिसम्बर, 92 को लखनऊ मेल से लखनऊ गए। जबकि प्रधानमंत्री राव चाहते थे कि अर्जुन सिंह स्वयं को अयोध्या विवाद से दूर रखें और अयोध्या न जाएं।
यहां तक कि प्रधानमन्त्री ने उन्हें नई दिल्ली प्लेटफॉर्म पर फोन पर बात की और ट्रेन से उतरने के लिए कहा भी। लेकिन, सिंह नहीं माने और लखनऊ तक गए। क्या आज़ भाजपा का कोई नेता और मोदी सरकार का कोई मंत्री ऐसा साहस दिखा सकता है?
पूंजीवादी लोकतंत्र में धन की हमेशा ज़रुरत रहती आई है। लेकिन, कोई पूंजीपति राज्य तंत्र और राजनीति को हांकने लगे तो इससे लोकतंत्र का विकलांगीकरण होगा ही। अर्जुन सिंह ने निजी चर्चाओं में मेरे साथ हमेशा एक ही स्टैण्ड रखा, “धनपति को अपने आधारभूत मूल्यों व राजनीति पर हावी होने मत दो”।
एक घटना याद आती है। शायद 1993-94 की है। सर्दी के दिन थे। एक रोज़ मैं एक-रेस कोर्स पहुंचा। उन दिनों अर्जुन सिंह प्रधानमंत्री निवास से सटे सरकारी बंगले में रहा करते थे।
पहुंचने पर देखता हूं, दिवंगत धीरूभाई अम्बानी उनके ऑफिसियल रूम में बैठे हुए हैं। मैं बाहर वेटिंग रूम में बैठ जाता हूं। करीब दस मिनट के बाद अम्बानी कमरे से बाहर निकलते हैं और बाहर खड़े उनके दो सहयोगी उनके कंधों को पकड़ कर पोर्च में खड़ी कार में बैठा देते हैं।
गौरतलब यह है कि राव-सरकार के वरिष्ठतम मंत्री अर्जुन सिंह अपने रूम की दहलीज़ को पार कर धनपति को विदाई देने बाहर आते नहीं हैं। इसके तत्काल बाद मैं उनसे उसी कमरे में मिलता हूं। और पूछता हूं कि अम्बानी जी का कैसे आना हुआ? इसके साथ यह भी कह दिया कि “आप उन्हें कार तक छोड़ने नहीं गए”।
वे मुस्कराते हुए बोले, “छोड़िए जोशी जी, अम्बानी जी समर्थ हैं। उनका अपना काम था और राव साहब से मिलकर चलने के लिए कह रहे थे।” उन दिनों ‘राव-सिंह’ जंग चल रही थी। मैंने पूछा, “आपने क्या कहा?” “पहले मैं समझ नहीं पाया कि धीरू भाई ऐसा क्यों कह रहे हैं।
फिर मैंने उनसे सिर्फ इतना ही कहा-हम सभी अपना-अपना काम कर रहे हैं-आप व्यापार करें, हम राजनीति कर रहे हैं। “एक ऐसा ही अनुभव 1987 में भी हो चुका था। तब अर्जुन सिंह संचार मंत्री हुआ करते थे। तुग़लक़ रोड पर सरकारी निवास था। एक शाम मध्यप्रदेश की घटनाओं को लेकर मेरी सिंह साहब के साथ चर्चा चल रही थी।
चंद मिनटों के बाद उनके सचिव बेबी ने सूचित किया कि ‘बिड़ला साहब (के.के. बिड़ला) आ गए हैं, क्या अंदर भेज दूं?” सिंह निर्देश देते, ”उन्हें गेस्ट रूम में बिठाएं और जलपान कराएं।” मैं हैरान! चर्चा जारी रही। संकोच के साथ मैंने स्वयं उनसे जाने की अनुमति मांगी।
वे बोले, ”आप बैठे रहिये। चर्चा पूरी कर लीजिये। आपको खबर भेजनी है। मुझे मालूम है, सेठजी क्यों आये हैं और क्या चाहते हैं? उन्हें बैठने दीजिये।” कुछ देर और बैठने के बाद सिंह स्वयं बोले, ”अब आप चलें। मैं बिड़ला जी देख लेता हूं।”
उन्होंने रहस्यमयी मुस्कान के साथ मुझे विदा किया था। मानव संसाधन मंत्री की दूसरी पारी ( 2004 -9) के दौरान अर्जुन सिंह ने दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास के एक महत्वपूर्ण अनौपचारिक अनुरोध को मानने इंकार कर दिया था। अनुरोध, भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के खोलने से सम्बंधित बिल से था।
अमेरिकी प्रारूप या ड्राफ्ट देखना चाहते थे। लेकिन, सिंह ने साफ़ इंकार कर दिया। उस समय शिक्षा सचिव सुदीप बनर्जी हुआ करते थे। 1991-96 की अवधि में भूमंडलीकरण को लेकर खूब शोर था। तत्कालीन वित्तमत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जुलाई, 91 में आर्थिक सुधारों (उदारीकरण) की प्रक्रिया शुरू की थी (उदारीकरण, निजीकरण और विनिवेशीकरण )।
भूमंडलीकरण को लेकर कतिपय अमेरिकी पत्रकारों और अमेरिकी दूतावास के लोगों ने अर्जुन सिंह के विचारों को जानने-परखने की खूब कोशिश की थी। उनका स्टैंड एक ही रहता, ‘मैं भूमंडलीकरण के विरुद्ध नहीं हूं, लेकिन इसे भारत की आर्थिक आत्मनिर्भरता की कीमत पर नहीं किया जा सकता है। भारत के आर्थिक हित सर्वोपरी है।’
क्या इस दौर में किसी भी दल का नेता सिंह जैसी भूमिका निभाने का जोखिम मोल ले सकता है? प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य अर्जुन सिंह को निरापद घोषित करना नहीं हैं। उनकी भी विफलताएं रही हैं। मेरी दृष्टि में, यदि वे 6 दिसंबर, 92 को कैबिनेट मंत्रिपद से त्यागपत्र दे देते तो नया इतिहास बनता।
यदि वे 1984 के दिसंबर में भोपाल यूनियन कार्बाइड गैस ट्रेजेडी के वास्तविक मुख्य अमेरिकी अपराधी वारेन एम. एंडरसन (CEO ) को 24 घंटों में रिहा नहीं करते और सजा दिलवा देते, तो भी नया इतिहास बनता। इन दो मोर्चों पर विफलताओं ने अर्जुन सिंह को इतिहास निर्माता बनने से हमेशा के लिए वंचित कर दिया।
फिर भी सवाल तो उठता ही है, क्या कांग्रेस संगठन बहुलतावादी व समाजवादी भारत के प्रहरी अर्जुन सिंह के शून्य को भर सकी है? वर्तमान के विषाक्त वातावरण में भी क्या सैनिक विलुप्त ही रहेगा।
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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