यदि आज सिसफस हिमालय की चोटियों को देखने आये, तो उसे जरूर ही कुछ अजीब सा लगेगा। सिसफस को तो एक ना-खत्म होने वाली ऐसी सजा दी गई थी जिसमें उसे भारी पत्थरों को ठेलते हुए ऊपर की ओर ले जाना था। और, जब वह वहां शीर्ष तक पहुंचता वह भारी पत्थर लुढ़कते हुए नीचे गिरता। यदि आप कालका से शिमला ऊपर जाते रास्तों पर आगे बढ़ते हैं तो ऊंचे जाते रास्तों को देखें। यहां भी वैसा ही हो रहा है।
कुछ साल पहले की बात है। इस रास्ते को चौड़ाकर आरामदायक चार लेन की सड़क बनाई गई। एक हिंसक इंजीनियरिंग के द्वारा इसे बिना रुके तैयार किया गया। तीखे कटाव से टूटकर लुढ़कते हुए पत्थर चमकते हाइवे पर आ जाते हैं। मजदूर और उनके ठेकेदार वापस आकर इस मलबे को हटाते हैं। इस साल की भारी बारिश ने सिसफियन दृश्य को और साफ दिखाया। हिमाचल और उत्तराखंड के सभी बड़े पर्यटक स्थल बार-बार इन मलबों आदि से बंदी और दबाव के शिकार हुए हैं।
पर्यटकों की संख्या में कमी करने की खबर आप बमुश्किल ही पढ़ते होंगे। आमतौर पर अंतर्राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर विज्ञापनों में खूब उत्साह वाली बातें देखी-सुनाई जाती हैं कि ‘लोग एक बार फिर पर्यटन पर जा रहे हैं’। कोविड के दौरान लंबे समय तक घरों में कैद रह जाने के बाद लोग बड़ी संख्या में छुट्टी मनाने निकल रहे हैं। उनमें से बहुत सारे लोगों ने अजीब से हालातों का सामना किया। मसलन जंगल की आग, असामान्य ऊंचा तापमान, बाढ़, भूस्खलन और ऐसी और घटनाएं हुईं।
ग्रीस जैसे देश में सालों से विकसित होता हुआ गर्मी की छुट्टियों वाला पर्यटन इतना बढ़ता गया है कि इसके पहले इस पर नियंत्रण की जरूरत ही नहीं लगी। स्पेन और हवाई में जंगलों में लगी आग भी पर्यटकों पर रोक नहीं लगा सकी। उन्होंने मौज के लिए भुगतान किया था, तो वे ऐसा कर रहे थे। उन्होंने मौसम की भविष्यवाणी पर ध्यान ही नहीं दिया। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण संकट पर रिपोर्ट का उन पर कोई असर नहीं दिखा।
इस दौरान ही एक ऐसी बात हुई जिससे एम्सटरडम से आने वाली खबर इतनी चौकाने वाली बन गई। यहां के मेयर ने निर्णय लिया कि शहर के केंद्र में स्थिर डाक पर क्रूज जहाज नहीं आएंगे। 2021 में हुए एक अध्ययन में निष्कर्ष दिया गया था कि एक बड़ा क्रूज जहाज एक दिन में उतना ही नाइट्रोजन आक्साइड पैदा करता है जितना कि 30,000 ट्रक। एक क्रूज जहाज अधिकतम 7,000 पर्यटकों को ढो सकता है और शहर में इससे जुड़ा काम और व्यवसाय पैदा करता है।
यह अचम्भे की बात नहीं है कि टीवी पर एम्सटरडम के मेयर को सेकेंड भर भी जगह नहीं मिली जबकि वर्जिन गलेक्टिक की उड़ानों को पांच-पांच मिनट तक दिखाया जा रहा था। इस पर्यावरण संकट पर एक विशेषज्ञ ने कम शब्दों में बोलने की अनुमति में बताया कि गलेक्टिक में जो कार्बन फुटप्रिंट हैं उसका असर वैज्ञानिक हासिल और वित्तीय लाभ से कहीं ज्यादा है।
जब हम हिमालय के क्षेत्र की ओर देखते हैं, तब कोई ऐसा कहते या सुनते हुए नहीं दिखता है कि यह जो पर्यावरण है, समस्या को बढ़ा रहा है। हिमाचल में अभी जो बर्बादियां हुई हैं, वे भारी बारिश और बाढ़ की बढ़त से हुई हैं। वहां के मुख्यमंत्री ने इसी अखबार को बताया कि हिमाचल हमेशा ही बारिश और नदियों से जूझता रहा है।
उन्होंने यह भी कहा कि हमें मां प्रकृति का आदर करना चाहिए। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पर्यटन कई गुना बढ़ चुका है और यह कई गुना आने वाले सालों में बढ़ता जायेगा। उन्होंने अवैध खनन और जंगलों की कटान को रोकने के बारे में कहा, लेकिन उन्होंने हाइवे के बारे में कुछ नहीं कहा जो अब पूरे राज्य में एक दूसरे को काटते फैल रहा है और अपनी गाड़ियों से आ रहे पर्यटकों का स्वागत कर रहा है।
इन बातों से ऐसा लग रहा है कि हिमाचल और उत्तराखंड की आर्थिक योजनाओं पर हाइवे पर होने वाला भूस्खलन और बहाव में बह गये पुलों का असर थोड़ा ही पड़ा है। इसे वह बहसों के बीच के तनाव की तरह देख रहा है। एक तरफ तो पहाड़ में होने वाले विकास के दावे है जिसके केंद्र में पर्यटन है और दूसरी ओर प्रकृति के रक्षकों के रूदन को देख रहा है। सबसे पहले, उन्होंने वातावरण के संकट की बात की, फिर वैश्विक उष्मीकरण की बात हुई और अब पर्यावरण में बदलाव की बात पर वे टिक गये हैं। लेकिन जो ठोस और व्यापक तौर पर स्वीकृत है वह है ‘पर्यावरण बदलाव’; वह आम-जन को विभ्रमित करता है।
इस साल की गर्मी में जो गर्म हवा चलती है, जिसे लू कहा जाता है, उत्तर भारत के बहुत से हिस्सों में चली ही नहीं। जनता ने इसे पर्यावरण बदलाव की तरह देखा। सिर्फ डोनाल्ड ट्रंप ही नहीं, कई बहुत अच्छे लोग भी यह बात नहीं जानते हैं कि पर्यावरण बदलाव नये व्यवसायों को बर्बादी की ओर ले जा सकता है या पुरानी की जगह नई स्थितियां पैदा कर सकता है। होटल एक उदाहरण है। पूरे हिमालय में आप इस आतिथ्य उद्योग की वजह से जंगलों के खत्म होने के बारे में कितना जानते हैं, या इनसे पैदा होने वाले कूड़ों के बारे में कितना जानते हैं, जिसे पीछे की ओर के ढलानों में फेंक दिया जाता है और यह अंततः बहते हुए नदी में उतर जाता है।
नदियां अंतिम तौर पर नाला ही हैं। दिल्ली में इंजीनियरों और ठेकेदारों के लिए यमुना प्रकृति का एक उपहार है। इसके किनारों पर इंसानों की बसावट है। पहाड़ों में यमुना की सहायक नदियां भूस्खलन के कचड़ों से जूझती हैं। ये हाइवे पर भूस्खलन से बने जाम को खोलने के लिए हटाये जाते हैं और इन्हें इन नदियों में उतार दिया जाता है। पिछले महीने जो बाढ़ का कहर दिखा उसमें प्रकृति ने चार लेन वाले हाइवे को मनाली के नजदीक उखाड़कर व्यास नदी में फेंक दिया।
सरकार निश्चय ही इस बह गये हाइवे और पुलों को बनाने पर मुख्य जोर देगी। लेकिन, यदि प्रकृति एक संदेश देने पर अड़ी हो, और इसे न पढ़ा जाए तब नीति-निर्माता की पढ़ने की अक्षमता ही दिखेगी। जो सरकार की नीति है वह पर्यटन उद्योग के परिप्रेक्ष्य से बनती है, जिसमें वह समृद्धि को देखता है। इस परिप्रेक्ष्य में एक जो महत्वपूर्ण पक्ष अनियंत्रित पर्यटन का पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का मूल्य न समझने का है, जो हिमालय की कमजोर परिस्थिति पर असर डाल रहा है।
पर्यटकों का व्यक्तित्व लगातार समानुपातिक एकत्व की ओर बढ़ रहा है। ये ऐसे लोग जमा हो रहे हैं जो सिर्फ मजा करना चाहते हैं। उन्हें आराम की हर चीज चाहिए। उन्हें अच्छा आतिथ्य चाहिए, चाहे वह तीर्थस्थल ही क्यों न हो, जहां अभी हाल तक पहुंच पाना ही एक उपलब्धि हुआ करती थी। गर्मियों में जंगल की आग, बरसात में भूस्खलन और बाढ़ एक अनुमानित आपदाएं हैं। लेकिन, इन पर्यटकों को इस बात की चिंता नहीं है कि उनके व्यवहार पहाड़ों को तकलीफ में ले जाएंगे। वे एक तरह से बेखबर अंधों की तरह हैं। यदि वे पर्यटन में हैं, और इस तरह की घटना हो जाये तब भी उनकी छुट्टियों की योजनाएं इनसे अप्रभावित ही रहेंगी।
कुछ साल पहले की बात है, शाम के समय एक होटल के नजदीक के जंगल में आग लग गई। वहां का पूरा स्टाॅफ हरकत में आ गया और बाल्टी लेकर आग बुझाने में लग गया। कुछ अमेरीकन पर्यटक इसकी फोटो उतारने में लग गये। ऐसा लग रहा था कि ये आग की लपटें उनके मनोरंजन के लिए ही मंचित हो रही हैं।
ऐसी ही एक भयावह आग हवाई के एक द्वीप को निगल गई। वहां के कई निवासियों को मार डाला। बहुत से लोग समुद्र में कूद गये जिससे कि जिंदगी बच सके। अगले दिन एक महिला ने देखा कि उसी समंदर में एक पर्यटक मजे कर रहा है। उस महिला ने बीबीसी से कहा कि ‘यहां दो हवाई, दो लोग हैं। एक जो इसमें रह रहा है, और दूसरा जो यहां आ रहा है।’
(प्रोफेसर कृष्ण कुमार का लेख, अनुवादः अंजनी कुमार)