हाथरस गैंगरेप: सच के दरवाजे पर साजिशों का लौह पर्दा

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हाथरस गैंगरेप कांड में नक्सल एंगल भी ढूंढ लिया गया है। और एक कथित नक्सल भाभी की तलाश कर ली गयी है। जिसको पकड़ने के लिए कहा जा रहा है कि एसआईटी की पुलिस जबलपुर रवाना हो गयी है जहां की वह रहने वाली हैं। वह पढ़ी लिखी हैं और पेशे से डॉक्टर हैं। उन्होंने एमबीबीएस कर रखा है। हां लेकिन वह सामाजिक सरोकार रखती हैं और महिला होने के नाते अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं। लिहाजा इस तरह की किसी भी घटना के प्रति न केवल संवेदनशील रहती हैं बल्कि जरूरत पड़ने पर अपनी क्षमता के मुताबिक उसमें हस्तक्षेप भी करती हैं। और उनकी मानें तो वह पीड़िता के साथ घटित घटना के बाद परिवार से मिलने गयी थीं।

इस बात को उन्होंने वहां भी नहीं छिपाया। मौके पर रहते जहां भी किसी कागज पत्र को पढ़ने, सुनाने या फिर किसी पूछताछ की जरूरत पड़ी तो उन्होंने आगे बढ़कर वह भूमिका निभाई। और इस कड़ी में पीड़िता के परिजनों से मिलने के लिए जो भी जाता था स्वाभाविक है उनकी उससे मुलाकात होती थी। इस तरह से वह 3 अक्तूबर से लेकर 6 अक्तूबर तक वहां रहीं। लेकिन अब उन्हें नक्सल करार दे दिया गया है। आधिकारिक तौर पर यह तीसरा एंगल है। वैसे तो होंगे और ज्यादा। 

इसके पहले आतंकी एंगल ढूंढ के घटना में सांप्रदायिक रंग भरने की कोशिश हो चुकी है। जिसके तहत दिल्ली से हाथरस जा रहे केरल के एक पत्रकार सिद्दीक कप्पन को उनके साथ जा रहे पापुलर फ्रंट ऑफ इडिया के तीन लोगों के साथ गिरफ्तार किया जा चुका है। और उन सभी पर आतंकी गतिविधियां निरोधक कानून यूएपीए लगा दिया गया है। जबकि कप्पन राष्ट्रीय स्तर के एक पत्रकार संगठन के सचिव हैं और दिल्ली में उनकी एक प्रतिष्ठित छवि है। खास करके केरल के पत्रकारों के बीच वह बेहद लोकप्रिय हैं। लेकिन योगी की पुलिस ने उन्हें मथुरा के पास से पकड़ा और जेल में डाल दिया।

इसी बहाने पत्रकारों को भी मजा चखाने का उसे मौका मिल गया जो उसके खिलाफ लिखते रहते हैं। देश की यह अब तक कि पहली घटना होगी जिसमें स्टोरी कवर करने जा रहे किसी पत्रकार को ही गिरफ्तार कर लिया गया। और इसको संघ समेत उसका पूरा सोशल मीडिया आईएसआई से लेकर तालिबान और मुस्लिम से लेकर पाकिस्तान तक की साजिश करार देने लगा।

वैसे भी सांप्रदायिकता की चासनी लगते ही बीजेपी-संघ के किसी भी माल की बिक्री बढ़ जाती और खिलाफ जाती चीजें भी पक्ष में दिखने लगती हैं। लिहाजा यह अपने किस्म का यूरेका मोमेंट था पूरी भक्त जमात के लिए। लेकिन इस मामले में पत्रकार संगठनों के कड़ा रुख और कप्पन की वास्तविकता के सामने आने से लगता है कि बात बहुत आगे नहीं बढ़ पा रही थी। इसीलिए किसी दूसरे एंगल की तलाश शुरू हो गयी थी उसी कड़ी में इस नक्सल एंगल का सूत्र निकला। और फिर पूरी यूपी पुलिस, एसआईटी और आईटी सेल एक साथ उस पर टूट पड़े। और इस प्रकरण में एक और एंगल को बेहद शातिराना तरीके से डाला गया था। जिसमें यह थियरी पेश की गयी कि पीड़िता लड़की की हत्या और बलात्कार के मुख्य आरोपी से फोन पर बात होती थी। और इस सिलसिले में 100 से ज्यादा कॉल करने की बात बतायी जा रही थी। और इसको आगे बढ़ाते हुए यह बताया गया कि मृतक पीड़िता के भाई का नाम भी वही है जो मुख्य आरोपी का है।

लिहाजा पीड़िता के मुंह से निकला नाम कहीं उसी के भाई का तो नहीं? और फिर कहानी कुछ यूं गढ़ी गयी कि पीड़िता का मुख्य आरोपी से प्यार होने के चलते उसके भाई ने उसकी हत्या कर दी। और इस तरह से यह एक ऑनर किलिंग का मामला है! क्योंकि हत्या की घटना का कोई चश्मदीद गवाह नहीं है। लेकिन इसमें झोल यही था कि भाई भला बलात्कार कैसे करेगा। अनायास नहीं बलात्कार को पहले ही खारिज किया जाने लगा था। और उसमें एडीजी से लेकर बीजेपी के आला नेता तक शामिल हो गए थे। इसके लिए एफएसएल की उस रिपोर्ट का इस्तेमाल किया गया जिसे पीड़िता के साथ घटी घटना से 11 दिन बाद लिए गए सैंपल के आधार पर बनाया गया था।

जिसकी चिकित्सकों की निगाह में कोई कीमत नहीं है। और इस बात को अलीगढ़ स्थित मेडिकल कालेज के सीएमओ तक स्वीकार कर चुके हैं। इस पूरे दौरान न तो एक बार मेडिकल कॉलेज की एमएलसी का जिक्र किया गया जिसमें बलात्कार की सीधे-सीधे बात कही गयी है और न ही पीड़िता के उस बयान को लाया गया जिसमें उसने खुद के साथ न केवल बलात्कार होने की बात कही थी बल्कि उन बलात्कारियों के नाम भी उसने बताए थे। एक तरह का वह डाइंग डिक्लेरेशन था। जिसे कोई भी शख्स नहीं खारिज कर सकता। यहां तक कि कोर्ट भी नहीं।

इस तरह से पूरा मोडस आपरेंडी यह है कि असली मामले पर फोकस नहीं करना है। पीड़िता को न्याय दिलाने से ज्यादा आरोपियों को बचाने पर जोर है। और इस कड़ी में इस तरह की बेवकूफाना साजिशों को गढ़ा जा रहा है। और वैसे भी संघ का दिमाग इन सब मामलों में कितना शातिर होता है पिछले 95 सालों की उसकी प्रैक्टिस से परिचित लोग बेहतर तरीके से जानते हैं। और अब तो पूरा सत्ता का तंत्र उसके हाथ में है। जैसे चाहे वह उसका इस्तेमाल करे। दिलचस्प बात यह है कि ये सारे एंगल उस समय सामने लाए जा रहे हैं जबकि जांच की कमान सीबीआई को सौंप दी गयी है और सीबीआई ने अभी कल जाकर इसका चार्ज संभाला है। यानी कथित एसआईटी, यूपी पुलिस और सुपर एजेंसी संघ इन सारी चीजों को अंजाम दे रही थीं।

भला यह किसी मामले में संभव है। क्या रिया केस के सीबीआई को सौंपे जाने के बाद भी मुंबई की पुलिस उस पर काम कर सकती थी। अगर कोई इसके पीछे यह तर्क दे कि सीबीआई के चार्ज नहीं लेने तक उसका अधिकार क्षेत्र बना हुआ था। तो तकनीकी तौर पर यह बात भले सही हो लेकिन जब जांच किसी एजेंसी से छीन ली जाती है तो उस पर काम करने का उसका अधिकार उसी दिन खत्म हो जाता है। और यह काम किसी और ने नहीं। कोर्ट और न ही केंद्र सरकार ने किया था। यह खुद यूपी सरकार की पहल पर हुआ था जिसमें उसने खुद सीबीआई जांच की केंद्र से संस्तुति की थी।

अब भक्तों की जमात का हाल देखिए। वह पूरे मामले पर एक पल भी ठहर कर सोचने के लिए तैयार नहीं हैं कि आखिर उनसे क्या करवाया जा रहा है। उन्होंने संघ की सांप्रदायिकता का वह जहरीला नशा पी लिया है जिसमें उन्हें संघ की बतायी चीजों के अलावा दूसरा कुछ दिखता ही नहीं है। संघ की बतायी कोई भी चीज उनके लिए पत्थर की लकीर है। इनके पास न तो अपना दिमाग है और न ही अपना कोई सत्व बचा है। इन्होंने अपना सब कुछ नागपुर हेडक्वार्टर के हाथों गिरवी रख दिया है। संघ और आईटी सेल के लोग जब उन्हें चाह रहे हैं तो तालिबान की ओर घुमा देते हैं और जब चाहते हैं तो उनसे नक्सल का गीत गवाने लगते हैं। और स्थानीय स्तर से निकलने वाली हर थियरी के साथ ये मजबूती के साथ खड़े पाए जाएंगे।

वैसे तो देश के तीन तबके संघ के घोषित दुश्मन हैं। मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट। लेकिन इसके साथ ही उसके दो अघोषित दुश्मन हैं। वे हैं दलित और महिला। वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए दलितों को उनका स्थान बताना उसकी आवश्यक शर्त बन जाती है। क्योंकि जिस दिन वर्ण व्यवस्था खत्म हो जाएगी पूरे हिंदू धर्म पर ग्रहण लग जाएगा। दूसरा है महिलाओं को घर की चारदीवारी के भीतर धकेल देना। शास्त्रों से लेकर तुलसीदास तक ने महिलाओं के पूरे वजूद को खारिज किया है। और उन्हें नरक का द्वार होने तक की संज्ञा दी गयी है।

ऐसे में अगर कोई रामराज्य आया है और अपनी सत्ता आयी है तो भला अपनी व्यवस्था को लागू करने के लिए अब किस दिन का इंतजार किया जाएगा। ऐसे में पीड़िता एक तो दलित है ऊपर से महिला और उसके लिए किसी सवर्ण को सजा हो। यह न केवल ब्राह्मण व्यवस्था का घोर अपमान है बल्कि सजा हो जाने पर अपने शासन में अपनी व्यवस्था लागू करने के भविष्य के पूरे मंसूबों पर पानी फिर जाएगा। लिहाजा येन-केन तरीके से आरोपियों को बचाने की कोशिश की जा रही है। भले ही उससे सत्ता बदनाम हो या कि पूरा संघ।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)       

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