शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने स्वतंत्रता से पूर्व कांग्रेस की पूंजीवादी व सामंतवादी नीतियों के खिलाफ जमकर लिखा था। एक लेख में उन्होंने लिखा था कि समाज के प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों और किसानों को उनके प्राथमिक अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। पूरे जगत का पेट भरने वाले किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने को मोहताज हैं और दुनिया भर के लोगों को कपड़ा मुहैया कराने वाले बुनकर खुद तथा अपने बच्चों के तन ढंकने भर को कपड़ा नहीं पा रहे हैं।
सुंदर महलों और अट्टालिकाओं का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार, बढ़ई तथा मजदूर आदि स्वयं गंदे बाड़ों में या झुग्गी झोपड़ी में रहकर ही अपने दुखदाई जीवन को व्यतीत करते हुए अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। भगत सिंह ने आगे भी बड़ी स्पष्टता एवं निर्भीकता व दृढ़तापूर्वक कहा कि मुझे पता है कि इस देश से ब्रिटिश साम्राज्यवादी चले जाएंगे परंतु वह केवल सत्ता परिवर्तन होगा व्यवस्था परिवर्तन नहीं होगा क्योंकि शोषित गोरे अंग्रेज पूंजीपतियों की जगह भूरे देसी अंग्रेज पूँजीपति आ जाएंगे। केवल शोषकों का रंग बदल जाएगा। भारतीय मजदूर, किसान, बुनकर, राजगीर के शोषण में कतई कमी नहीं आयेगी।
भगत सिंह और उनके साथी 1926 में लाहौर के खुले अपने अधिवेशन में संगठन के रूप में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन की स्थापना की। 5 वर्षों तक देशभक्त युवाओं की यह संस्था देशहित, जनहित व आजादी के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खिलाफ संगठन के रूप में बहुत सक्रिय रही लेकिन धीरे-धीरे धूर्त अंग्रेजों द्वारा संगठन के सभी सदस्यों को विभिन्न धाराएं लगाकर मुकदमों में जबरदस्ती फंसा दिया गया।
भगत सिंह ने अपने कालजयी लेख में उल्लेख करते हुए बताया कि “मैं नास्तिक क्यों हूं” में अस्पष्टता और निर्भीकता धर्म एवं पाखंड के ठेकेदारों से प्रश्न करते हुए पूछते हैं कि मैं पूछता हूं सर्वशक्तिमान होकर भी अपना भगवान अन्याय, अत्याचार,दास्तां,महामारी,शोषण, असमानता,गरीबी,भूख,हिंसा आपसी विद्वेष और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता। इनको समाप्त करने की शक्ति रखकर भी यदि वह मानवता को इस अभिशाप से मुक्त नहीं कर पाता है तो निश्चय ही उसे अच्छा या सर्वशक्तिमान भगवान नहीं कहा जा सकता और जनता जनहित में उसका जल्द समाप्त हो जाना ही बेहतर है।
उन्होंने धर्म और ईश्वर पर अपनी बेबाक टिप्पणी करते हुए यहां तक कह दिया कि आप का रास्ता अकर्मण्यता का रास्ता है सब कुछ भगवान के सहारे छोड़ कर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाने का रास्ता है। निष्काम कर्म की आड़ में भाग्यवान की घुट्टी पिलाकर देश के नौजवानों को सुला देने का रास्ता है। यह कभी मेरा रास्ता नहीं बन सकता जो लोग इस जगत को मिथ्या समझते हैं। वह कभी दुनिया की भलाई या देश की आजादी के लिए ईमानदारी से नहीं लड़ सकते।
वह प्रसिद्ध दार्शनिक वर्टेन्ड रसेल की बात से पूरी तरह सहमत होकर कहते हैं कि धर्म शासकों के हाथ में एक औजार है जो अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए जनता के दिल में हमेशा ईश्वर का भय बनाए रखना चाहते हैं। हर धर्म में शासक (मतलब राजा) के विरुद्ध बगावत को पाप माना गया है धर्म भय से पैदा हुई एक बीमारी और मानव प्रजाति की अकथनीय दुखों व तकलीफों का मुख्य स्रोत है, एक भूख से बिलबिलाते खाली पेट वाले व्यक्ति के लिए भोजन ही ईश्वर है नैतिकता और धर्म उस व्यक्ति के लिए थोथे शब्द मात्र हैं जो व्यक्ति अपनी आजीविका का जुगाड़ करने के लिए गंदे नाले में खाना ढूंढता है और जाड़े की रात में कड़कड़ाती ठंड की शीतलहर से बचने के लिए सड़कों के किनारे पड़े पीपों में पनाह लेता है।
स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी द्वारा अपने अहिंसा के बल पर अंग्रेजों की गुलामी से त्रस्त इस देश को आजादी दिलाने के दिवास्वप्न दिखाने पर चुटकी लेते हुए शहीद-ए- आजम भगत सिंह ने लिखा था, अहिंसा भले ही एक नेक आदर्श है लेकिन वह अतीत की चीज है जिस स्थिति में आज हम हैं सिर्फ अहिंसा के बल पर भी आजादी प्राप्त नहीं कर सकते। आज यह दुनिया सिर से पांव तक हथियारों से लैस है लेकिन हम जो गुलाम कौम हैं हमें ऐसे झूठे सिद्धांतों के जरिए अपने रास्ते से नहीं भटकना चाहिए।
गांधी जी ने कहा था कि हम अंग्रेजों का अपने अहिंसा के हथियार के बल पर हृदय परिवर्तन करा देंगे। इस पर भगत सिंह और साथियों ने गांधी जी से प्रति प्रश्न कर उन्हें बिल्कुल निरुत्तर होने पर मजबूर कर दिया था कि क्या आप बता सकते हैं कि भारत में अब तक कितने शत्रुओं का हृदय परिवर्तन कराने में सफल रहे हैं आप कितने ओडायरो, डायरों, रीडिंगों और इर्विनों का हृदय परिवर्तन कर उन्हें भारत का मित्र बना चुके हैं।
भगत सिंह का मत था कि जब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का और एक राष्ट्र द्वारा किसी दूसरे राष्ट्र का शोषण जिसे साम्राज्यवाद एवं दूसरे शब्दों में पूंजीवाद करते हैं, समाप्त नहीं होगा तब तक विश्व मानवता को उसके दुखों और कष्टों से छुटकारा मिल ही नहीं सकता और तब तक युद्धों को भी समाप्त करके विश्व शांति की स्थापना करने की बातें महज एक ढोंग और लफ्फाजी के सिवा कुछ भी नहीं है। गोरे अंग्रेजों के चले जाने और आजादी के जश्न में डूबा देश के आमजन मजदूर, किसान, राजगीर पिछले 70 साल से चल रही शासन प्रणाली में कितनी सुधरी या बद से बदतर हुई इस अति गंभीर और देश को प्रगतिवाद के रास्ते पर ले जाने वाले जननायकों की भावना व विचार पर सभी शिक्षित लोगों, प्रोफेसरों, जागरूकजनों, कवियों और समाज के चिंतकों, साहित्यकारों को गंभीरता पूर्वक अवश्य सोचना चाहिए और देश में फैले आडम्बरों तथा अंधविश्वास के जकड़न से समस्त आमजन को निकालना ही देश और व्यक्ति तथा समाज के लिए श्रेयस्कर होगा।

(रामाश्रय यादव राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद के मऊ जिले के अध्यक्ष हैं।)