Thursday, March 28, 2024

अपने उद्देश्य की सही दिशा में सफलता से आगे बढ़ रही है ‘भारत जोड़ो यात्रा’

इसमें कोई शक नहीं है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा‘ कांग्रेस नामक राजनीतिक दल से जुड़ी उस सांकेतिकता को सींच रही है, जिससे भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता, धर्म-निरपेक्षता, जनतंत्र और राज्य के संघीय ढाँचे के मूल्य ध्वनित होते हैं ।

ये मूल्य आरएसएस और मोदी के शासन के खिलाफ संघर्ष के अनिवार्य पहलू हैं । राजनीति में इन मूल्यों की कमजोरी के समानुपात में ही फासीवादी हिंदुत्व की जड़ें मज़बूत होती हैं।

अगर 2024 की लड़ाई सांप्रदायिक फासीवाद बनाम धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र, केंद्रीयकृत राजसत्ता बनाम राज्य का संघीय ढाँचा, स्वेच्छाचार बनाम क़ानून का शासन, एकाधिकारवाद बनाम संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता, हिंदुत्व बनाम सर्वधर्म सम भाव — कुल मिला कर तानाशाही बनाम जनतंत्र की तरह के वैचारिक संघर्ष के मुद्दों पर लड़ी जानी है, तो ‘भारत जोड़ो यात्रा‘ निश्चित तौर पर इस लड़ाई में कांग्रेस पक्ष के लिए एक पुख़्ता ज़मीन तैयार करने का काम कर रही है ।

स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा सभा चुनावों तक में उम्मीदवारों की पहचान, उनकी लोकप्रियता और छोटी-छोटी अस्मिताओं के सवाल और बूथ-स्तर के संगठनों की जितनी बड़ी भूमिका होती है, लोकसभा चुनाव का परिप्रेक्ष्य इन सबसे बहुत हद तक अलग हुआ करता है ।

यह एक लकानियन सिद्धांत है कि जानकारी पर टिका हुआ प्रमाता और संकेतकों का प्रमाता दो बिल्कुल अलग-अलग चीजें हुआ करते हैं । There is nothing in common between the subject of knowledge and the subject of signifier.

भारत में विधान सभा और लोकसभा के चुनावों में subject of knowledge और subject of signifier के उपरोक्त भेद को बिल्कुल साफ़ तौर पर देखा जा सकता है । लोकसभा चुनावों के लिए पार्टियों की सांगठनिक शक्ति के ताने-बाने को तैयार करने के साथ ही उसके विचारधारामूलक सांकेतिक पक्षों को तीव्र रूप में सामने लाने का काम अतीव महत्व का काम होता है ।

सचमुच यह संतोष की बात है कि भारत में विपक्ष की सबसे प्रमुख पार्टी कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष के चुनाव के साथ ही जहाँ अपने सांगठनिक ढाँचे पर क्रियाशीलता को एक प्राथमिकता दी है, वहीं ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तरह के एक सर्व-समावेशी, व्यापक जन-आलोड़न पैदा करने के कार्यक्रम के ज़रिये ‘विविधता में एकता’ की अपनी राजनीति के संदेश के प्रसार के कार्यक्रम को संजीदगी से अपनाया है। निःसंदेह, कांग्रेस की तैयारियों का यही दो-तरफ़ा स्वरूप 2024 की लड़ाई में उसके लिए पुख़्ता ज़मीन तैयार कर रहा है।

इसमें सबसे अच्छी बात यह भी है कि राहुल गांधी अपनी सदाशयता और प्रेम की सारी बातों के बावजूद बीच-बीच में सामने आने वाले कठोर विचारधारात्मक सवालों से सीधे टकराने में जरा सा भी परहेज़ नहीं कर रहे हैं ।

मसलन्, सावरकर के प्रश्न पर ही, राहुल गांधी ने अंग्रेजों के प्रति उनकी वफ़ादारी के दस्तावेज़ों को सबके सामने रखने में कोई कोताही नहीं बरती। राष्ट्रवाद और देशभक्ति की तरह के वैचारिक सवालों पर कांग्रेस के पक्ष को बिल्कुल साफ़ रूप में पेश करने के लिए ही यह ज़रूरी है कि आरएसएस के पूरे नेतृत्व की मुखबिरों वाली देशभक्ति का बेख़ौफ़ ढंग से पर्दाफ़ाश किया जाए। ऐसे सवालों से कतराना या इन पर किसी प्रकार की हिचक दिखाना संघर्ष की साफ़ दिशा को ओझल करता है। और हर प्रकार के वैचारिक भ्रम या अस्पष्टता की स्थिति फासिस्टों के लिए बहुत लाभकारी हुआ करती है ।

इसमें कोई शक नहीं है कि 2024 के चुनाव में महंगाई, बेरोज़गारी तथा आर्थिक बदहाली के साथ ही राष्ट्रीयता और देशभक्ति की तरह के सांकेतिक मुद्दे कम निर्णायक भूमिका अदा नहीं करेंगे। इसीलिए, इस बात को बार-बार बताने की ज़रूरत है कि सावरकर ने न सिर्फ़ लिख कर अंग्रेजों की सेवा की इच्छा ज़ाहिर की थी, बल्कि अपनी वास्तविक राजनीति के ज़रिए भी वही किया था। यह नहीं भूलना चाहिए कि साम्राज्यवाद का कोई चाकर ही भारत में हिंदुत्व की विभाजनकारी राजनीति का प्रवर्तक और गांधी जी की हत्या का षड़यंत्रकारी हो सकता था। सावरकर में इस विषय पर कोई द्वैत नहीं बचा था कि भारत की राजनीति में उनकी भूमिका के अलग-अलग अर्थ निकाले जा सकें ।

‘भारत जोड़ो यात्रा’ को न सिर्फ़ भारत के बहुलतावाद और सर्वधर्म सम भाव पर आधारित धर्मनिरपेक्ष राज्य के मुद्दों को दृढ़ता के साथ सामने लाना है, बल्कि सावरकर की तरह के मुखबिरों की विभाजनकारी ‘देशभक्ति’ के बरक्स गांधी-नेहरू-पटेल सहित राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल समाज के सभी तबकों के त्याग और बलिदान की गौरवशाली परंपरा को भी स्थापित करना है । राहुल गाँधी ने दृढ़ता के साथ इस प्रसंग को उठा कर देशभक्ति के धरातल पर भी आरएसएस-मोदी के सामने एक सीधी चुनौती पेश की है ।

चुनावी गणित के नितांत स्थानीय और तात्कलिक मुद्दों के शोर में शामिल होने वाले संकीर्ण सोच के विश्लेषकों में लोकसभा चुनावों में सांकेतिक मुद्दों के महत्व की कोई समझ नहीं होती है । इसीलिए वे कभी या तो राहुल गांधी की यात्रा के रूट को लेकर परेशान रहते हैं, तो कभी उनके द्वारा सावरकर का नाम लिए जाने पर सिर पीट रहे होते हैं । इसकी वजह है उनके पास एक सर्वग्रासी फ़ासिस्ट शासन के विरुध्द व्यापकतम जनतांत्रिक प्रतिरोध की लड़ाई की रणनीति की समझ का अभाव ।

हमने इस यात्रा के प्रारंभ में ही इसे न सिर्फ़ भारत में, बल्कि सारी दुनिया में फासीवाद के विरुद्ध समूची जनता को लामबंद करने का एक नायाब प्रयोग बताया था । हर बीतते दिन, और इस यात्रा के हर बढ़ते हुए कदम के साथ पूरे देश में इसके प्रति जिस उत्सुकता और उत्साह का वातावरण तैयार हो रहा है और जिस प्रकार क्रमशः आम लोगों के अंदर फ़ासिस्ट शासन के प्रति ख़ौफ़ की ज़ंजीरें टूट रही हैं, वह इसी बात का प्रमाण है कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ अपने उद्देश्य और दिशा, दोनों दृष्टि से ही सफलतापूर्वक आगे बढ़ रही है । हर सच्चे जनतंत्र प्रेमी व्यक्ति और शक्तियों को इसकी सफलता के लिए यथासंभव योगदान करना चाहिए।

(अरुण माहेश्वरी लेखक और चिंतक हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

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