वह जुनैद या अख़लाक़ नहीं था। नासिर या मुमताज़ भी नहीं था। हालांकि ऐसा होना कोई गुनाह नहीं है। उसका नाम आर्यन था वह मिश्रा भी था। सिर्फ 19 बरस उसकी उम्र थी, 12वीं का विद्यार्थी था, सीधे दो गोलियां उतारकर उसे मार दिया गया। किशोर आर्यन न एक्टिविस्ट था, न आन्दोलनकारी, अपनी आयु के हिसाब से कुछ ज्यादा ही वह धर्मभीरु था।
अपने परिवार की अत्यंत सीमित आमदनी और उसके चलते बुरी आर्थिक स्थिति के बावजूद अनेक धर्मस्थलों की तीर्थ यात्रा कर चुका था। पिछले दो वर्षों से तो कांवड़ भी ला रहा था। उसके बाद ज्यादातर समय पढ़ाई ही करता था ताकि बाइक टैक्सी बुकिंग के अत्यंत साधारण से रोजगार में लगे अपने पिता और परिवार की हालात को सुधारने में जल्दी से जल्दी अपना योगदान दे सके।
यह घटना दूर किसी गाँव देहात की नहीं है; हरियाणा के पलवल और फरीदाबाद के बीच उस एनसीआर की हैं जहां से आवाज भर की दूरी पर मोदी और शाह बैठे हैं, उस प्रदेश की है जहां उन्हीं की पार्टी भाजपा की सरकार है और महीने भर में जहां विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। इस स्तब्ध कर देने वाली नृशंस ह्त्या को अंजाम देने वाले हत्यारे जिस गाड़ी में बैठकर आये थे वह पुलिस की गाड़ियों पर लगने वाली पीली बत्ती से सुसज्जित थी।
पुलिस इसे गलत पहचान-मिस्टेकन आइडेंटिटी-का मामला मानती है। उसके आला अफसर हत्यारों को “अच्छा इंसान” बताने से भी नहीं हिचकते और बिना किसी हिचक या लाज शर्म के कहते हैं कि हत्यारों ने उसे गौ तस्कर समझने की गलती में एक गलत आदमी को मार दिया। मतलब यह कि यदि मरने वाला आर्यन मिश्रा नहीं आरिफ मोहम्मद होता तो ऐसा करना जायज था -इस बार बच्चों से गलती हो गयी। ये वही पुलिस वाले हैं जिन्होंने आर्यन की हत्या पर रोष और शोक व्यक्त करने के लिए कैंडल मार्च निकालने की अनुमति नहीं दी।
यह सआदत हसन मंटो की भारत विभाजन के वक़्त की कहानी नहीं है-पुलिस हिरासत में हत्यारे से मिलने गए आर्यन के पिता सियानंद मिश्रा के साथ हत्यारे अनिल कौशिक का संवाद इसे साफ़ कर देता है कि यह धीरे धीरे पूरे समाज के ऊपर सवार हो रहा वह उन्माद है जिसने एक हिस्से को पूरी तरह नरभक्षी बना दिया है। हत्यारे कौशिक ने पहले तो आर्यन के पिता के पैर छुए उसके बाद कहा कि “मुझसे गलती हो गयी, मैं मुसलमान समझकर गोली मार रहा था, मुसलमान मारा जाता तो कोई गम नहीं होता। गलती से मुझसे ब्राह्मण मारा गया। अब मुझे फांसी भी हो जाए तो कोई हर्ज नहीं।”
यही बात यह एक भयानक कथन है, बहुत ही भयानक कथन, यह नफरती संक्रमण के बाद व्यक्तित्व को एकदम बदल कर उसे पाशविकता के चरम तक पहुंचा देने और समाज को गंभीर मनोरोग की दशा में पहुंचा देने का उदाहरण है। पुलिस के बड़े बड़े अफसरों की मौजूदगी में, एक युवा बेटे की मौत से व्याकुल पिता के सामने बिना पलक झपकाए हत्यारे युवा का बयान अलग थलग मामला नहीं है, एक दिग्भ्रमित युवक का प्रलाप नहीं है; यह भयावहता के एक नए मुकाम पर पहुंच जाने का उदाहरण है।
कौशिक को अफ़सोस सिर्फ इसलिए है कि मरने वाला ब्राह्मण था, यदि आर्यन दलित होता तो उसे न पांव छूने की जरूरत महसूस होती ना ही इसे गलती कहने की आवश्यकता लगती, और कहीं आदिवासी होता तो-जैसा कि इसी सप्ताह में सिंगरौली में किया-तब तो और भी सवाल नही था।
एक तरह से यह एक घोषणा है कि 2017 में ठीक इसी इलाके में, दिल्ली में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लगभग इसी उम्र के किशोर जुनैद को ईद के लिए घर लौटते समय रेल के डिब्बे में मार डालने के बाद आजाद हुआ खंजर अब अपने नॉकआउट दौर में दाखिल हो रहा है। और यह भी कि अब यह खंजर सिर्फ जुनैदों और आर्यनों के कत्लेआम में ही नहीं लगा बल्कि सभ्य समाज की संवेदनाओं और मनुष्य के रूप में बड़ी मुश्किल में उसके द्वारा हासिल किये गए विवेक को भी मार रहा है।
आर्यन के मारे जाने के ठीक तीन दिन बाद हरियाणा के ही चरखी दादरी में बंगाल से आये कबाड़ व्यापारी साबिर मलिक की ह्त्या कर दी गयी। एक असमिया मजदूर को अधमरा का दिया गया। यहां भी इस काण्ड को अंजाम देने वाले युवा ही थे, इनमे दो तो खुद नाबालिग बच्चे हैं। पलवल में हत्यारे पुलिस की बत्ती लगी गाड़ी में आये थे तो चरखी दादरी में उन्होंने इस वीभत्स काण्ड के लिए एम्बुलेंस की गाड़ी का इस्तेमाल किया था।
ज्यादा चिंताजनक और दर्ज किये जाने की बात यह है कि इस मामले में मीडिया और ‘समाज’ में इस घटना पर उस तरह की बेचैनी और क्षोभ देखने में नहीं आया जिस तरह की प्रतिक्रिया कुछ हद तक किशोर आर्यन मिश्रा के बारे में हुई थी। ज्यादातर अखबारों ने इसके लिए भीड़ हत्या-लिंचिंग-बताया, जबकि यह योजना बनाकर, सोचे समझे तरीके से की गयी जघन्य हत्या थी। साबिर इस इलाके के लिए अपरिचित नहीं थे, वे कई वर्षों से कबाड़ का व्यापार कर रहे थे।
उन्हें कबाड़ बेचने की बात कहकर उनके घर से उठाकर लाया गया था और उसके बाद जिस नृशंसता के साथ पीट पीटकर उन्हें मार डाला गया वह मौत किशोर आर्यन की मौत से कहीं ज्यादा भयानक थी। मगर साबिर और असमिया मजदूर के नाम उनके धर्म की पहचान बताते हैं और उनकी हत्या करने वाले उन पर कथित रूप से गौमांस खाने का आरोप लगाते हैं इसलिए इसे अलग ट्रीटमेंट मिला।
यह विवेक और नागरिक मूल्यों के क्षरण और संविधान के किताब के रूप में अस्तित्वमान होते हुए भी उसमें वर्णित अधिकारों और प्रावधानों के हरण मरण का एक और उदाहरण है। यह मोनू मानेसरों की प्रजाति का पूरे हरियाणा और उसके निकटवर्ती इलाकों में खरपतवार की तरह उग आना है।
याद रहे कि अभी हाल ही की तो बात है जब हरियाणा के गुण्डे बजरंगी मोनू मानेसर का गिरोह ने दुसरे जुनैद और नासिर को उनके राजस्थान के गांव से उठाया, हरियाणा के जींद में ले जाकर उन्हें निर्मम यातनाएं देकर अधमरा किया। उसके बाद उन्हें इधर उधर घुमाते हुए, बिना किसी भय के धड़ल्ले के साथ हरियाणा के एक पुलिस थाने में ले गया / थाने वाली खट्टर पुलिस द्वारा इन दोनों की हालत देखकर उन्हें लेने से ही मना करने और उन्हीं को वापस लौटाने के बाद यह गिरोह भिवानी की सड़क पर इन दोनों को उनकी गाड़ी सहित ज़िंदा जलाकर भून देता है।
बात इतने भर पर नहीं रुकती-हत्यारों का सरगना इसके बाद बाकायदा इंस्टाग्राम और सोशल मीडिया पर एक वीडियो जारी करता है, उसमें “मार डालने, काट डालने” का अपना काम जारी रखने का एलान दोहराता है। इसी के साथ अपने सोशल मीडिया माध्यमों पर हरियाणा के आला पुलिस अफसरों के साथ दोस्ताने की तस्वीरें भी चिपकाता है। यहां भी इस पूरी बर्बरता के लिए पंचायत विभाग की सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल किया जाता है।
लोहारू काण्ड के मोनू, पलवल और चरखी दादरी के सोनुओं से लेकर ऐसे सभी मामले घटना विशेष से जुड़े व्यक्तियों के मामले नहीं है यह संघ भाजपा की लगातार चली मुहिम, योजना बनाकर की गयी कोशिशों और हर तरह की मदद के बाद विकसित हुयी परिघटना-फिनोमिना-है। जैसा कि आर्यन के हत्यारे कौशिक के बयान से साफ़ हो जाता है अब इन वारदातों को अंजाम देने वाले गिरोह, बिखरे उत्पातियों के पार्ट टाइम समूह नहीं हैं, वे संगठित , शासन प्रशासन के साथ नत्थी और बाकायदा अनुमोदित स्वीकृत दल हैं। यह राज्य द्वारा प्रायोजित अराजकता है।
एक डेढ़ दशक पहले तक पुलिस के साथ इनका ढीला ढाला, अघोषित समन्वय हुआ करता था। क़ानून व्यवस्था में स्वैच्छिक नागरिक भागीदारी की आड़ में बनी नगर रक्षा समितियों की तरह पुलिस इनकी, इनमें से कुछ की मदद लिया करती थी। अब यह ढीला ढाला समन्वय बाकायदा सांस्थानिक रूप ले चुका है।
हरियाणा में गौरक्षा टास्क फ़ोर्स के नाम पर इस तरह के गिरोहों की समितियां बना दी गयी हैं-उन्हें खुलेआम हथियार रखने और उनका इस्तेमाल करने की छूट दे दी गयी है। अब वे किसी आते जाते पशुपालक या विक्रेता को घेरकर निशाना नहीं बना रहे हैं-वे खुलेआम हथियार लहराते हुए दबिश दे रहे हैं, छापे मार रहे हैं, मुस्लिम बहल आबादी में जाकर उकसावे की कार्यवाहियां कर रहे हैं।
टास्क फ़ोर्स की आड़ में हर तरह के अपराधों रहे हैं। सरकार और पुलिस की खुली छत्रछाया है इसलिए बेधड़क काम कर रहे हैं। प्रशासन उनके साथ है, यह एक व्यवस्थित तरीके से फैलाई जाने वाली अव्यवस्था है। यह सत्ता पार्टी भाजपा की राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है; यही वजह है कि बात बात पर बोलने वाले प्रधानमंत्री मोदी अपनी नाक के नीचे, अपनी ही पार्टी की सरकार, जिसका एक इंजन वे खुद को बताकर इसे डबल इंजन की सरकार कहते नहीं थकते, के राज में घटी इन घटनाओं पर एक शब्द नहीं बोलते।
विपक्ष शासित प्रदेशों की गली मोहल्लों की घटनाओं पर चौबीसों घंटा सातों दिन बमकने वाले उनके गृह मंत्री अमित शाह का बोल भी नहीं फूटता। यह चुप्पी अनायास नहीं है। यह इस तरह की अराजकता के साथ सहमति है, उसका अनुमोदन है। ठीक इसलिए यह एक संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, संवैधानिक गणराज्य के लिए खतरनाक बात है।
इसी को और भी डरावने अंदाज में दर्ज करता है आर्यन मिश्रा के पिता का यह बयान कि “हमारे बच्चे को अब इंसाफ नहीं मिल पायेगा।“ पिछले एक दशक में हुयी घटनाओं, खासतौर से हरियाणा में हुई घटनाओं के अपराधियों के मामले में अब तक न हुए फैसले सियानंद मिश्रा जी की हताशा की पुष्टि ही करते हैं।
दिल्ली के इधर वाले हरियाणा में पलवल फरीदाबाद और उधर वाले हरियाणा में चरखी दादरी में हुई ये हत्याएं एक दूसरे से असम्बद्ध और अलग नहीं है; कुछ सप्ताह बाद होने वाले विधान सभा चुनावों के साथ इसका सीधा रिश्ता है: मंदिर मुद्दा अपनी चमक खो चुका है, 370 के नाम पर जलाया गया अलाव सुलगने से पहले ही बुझ चुका था, लाल किले से की गयी सामान नागरिक संहिता की गूँज कहीं दिख नहीं रही; ऊपर से यह कि खट्टर से सैनी की हुई सरकार के पास गिनाने के लिए कोई काम, दिखाने के लिए कोई उपलब्धि है नहीं; उस पर हाल के लोकसभा चुनाव में हरियाणा की जनता अपने तेवर दिखा चुकी है, बदलाव की जिद के संकेत दे चुकी है।
लिहाजा भेड़िये छुट्टा छोड़े जा रहे हैं और हत्याओं के जरिये ध्रुवीकरण करने की आपराधिक कोशिशें की जा रही हैं। ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब इसी देश में क्रूर और अन्धविश्वासी सामंत किसी भी बड़े अभियान या निर्माण की शुरुआत मानव बलि के साथ किया करते थे; 1830 में इस मानव बलि को रोकने का क़ानून बना जो 17 वर्ष बार 1850 में जाकर लागू हो पाया। लगता है संघ और भाजपा उसी “महान परम्परा” को आजमा कर एक बार फिर से हरियाणा हथियाने का अनुष्ठान पूरा करना चाहते हैं।
जिन्हें अभी भी भरम है कि भेड़िये समझदार होते हैं, वे अपने और पराये में फर्क करना जानते हैं, उन्हें कम से कम अब तो समझ ही लेना चाहिए कि राहत इन्दौरी साहब ने ऐसे ही नहीं कहा था कि “लगेगी आग तो आयेंगे घर सभी जद में / यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।” अब ये सब की बात है और अगर सबकी बात है तो फिर भेड़ियों के खिलाफ मशाल भी सभी को जलानी पड़ेगी।
(बादल सरोज लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)