(छत्तीसगढ़ के एडवोकेट जनरल रह चुके कनक तिवारी न्याय के युद्ध क्षेत्र में केवल कालीकोट को ही हथियार नहीं बनाते बल्कि समय पड़ने पर वह कलम की तलवार भी उठाने से नहीं चूकते। कांग्रेस के साथ एक जमाने से जुड़े होने के चलते वह उसकी रग-रग से वाकिफ हैं। एक ऐसे मौके पर जब पूरा देश नाजुक दौर से गुजर रहा है तब देश की सबसे पुरानी पार्टी इसका जवाब देने की जगह खुद कई तरह की व्याधियों से ग्रस्त हो गयी है। इस तरह की परिस्थितियों में कनक तिवारी जैसे लोगों द्वारा किया जाने वाला उसका कोई विश्लेषण बेहद अहम हो जाता है। कनक तिवारी ने अपने फेसबुक मित्रों से इस पर पूरी श्रृंखला देने का वादा किया है। इस पूरी श्रृंखला को जनचौक ने प्रकाशित करने का फैसला किया है। पेश है उसकी पहली कड़ी-संपादक)
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 135 वर्ष की उम्र में आलोचकों को बूढ़ी, थकी क्यों नज़र आ रही है। विडम्बना है कांग्रेस के नेतृत्व में भारत ने 62 वर्षों तक अपनी आज़ादी का महासमर लड़ा। वह स्वतंत्रता के स्वर्ण जयंती वर्ष में राष्ट्रीय राजनीति के हाशिये पर खड़ी कर दी गई। दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद की विचारधारा ने आज़ादी की लड़ाई में शिरकत नहीं की थी। उसकी ताजपोशी हो गई। संविधान में वर्णित ’समाजवाद’ और ’पंथनिरपेक्षता’ जैसे वाक्यों के समर्थक दल खिचड़ी की तरह अपना ख्याली पुलाव पकाते हैं। धर्म और जाति के आधार पर राजनीति का नारा देने वाले तत्व पुख्ता विचारधारा के रूप में लोक समर्थन से सत्ता पर काबिज होते गए हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की महायात्रा में कांग्रेस पगडण्डी नहीं, राष्ट्रीय राजमार्ग रही है। आज इस सड़क की हालत लोक कर्म के बदले स्वकर्म की वजह से पतली है। इस पर जगह-जगह पलस्तर ढीला हो रहा है। गड्ढे हो गये हैं। जन यात्राएं इस पर चलने से परहेज कर रही हैं।
राजनीति के केन्द्र में रहते-रहते सौ वर्ष के बाद कांग्रेस को धीरे-धीरे उन विचारधाराओं को केन्द्र में बिठाने की जुगत बिठानी पड़ी है, जिनका इतिहास उज्जवल नहीं रहा। सैकड़ों बुद्धिजीवी सेनापति पैदा करने वाली उर्वर गर्भा पार्टी में करिश्माई नेतृत्व का संकट पैदा हो गया है। आज़ादी के महान सूरमा लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने एक के बाद एक कांग्रेस का बुनियादी विचारधारा के जिस विश्वविद्यालय के रूप में संस्कार रचा उनका ही कोई महत्व नहीं रहा। देश, इतिहास और भविष्य एक साथ जानना चाहते हैं कि क्या कांग्रेस की हिचकियां किसी शोक गीत का पूर्वाभास हैं अथवा अब भी उसमें दमखम बाकी है कि वह इतिहास के मुख्य जनपथ पर अधिकारिक तौर पर चल पायेगी?
लोकसभा में 1989, 1991, 1996, 1998, 1999, 2014 तथा 2019 के चुनावों में जनता ने कांग्रेस को लोकमत के आधार पर केन्द्र की सत्ता से बेदखल कर दिया। यह अलग बात है कि सबसे बड़े दल के होने के कारण उसे पांच वर्ष सत्ता में रहने का 1991 और 2004 और 2009 में अवसर मिल गया। लोकतंत्र में सत्तासीन होना ही सफल होना कहलाता है। लोक समर्थन का थर्मामीटर चुनाव के अवसर पर लोकप्रियता का बुखार नापता है। यदि कांग्रेस की सत्ता पूरे देश में इसी तरह दरकती चली जाए। तो वह चिन्ता, शोध और परिष्कार का विषय होना चाहिए।
कांग्रेस देश की राजनीति में घूमती हुई नहीं आई। कांग्रेस संस्कृति इतिहास की दुर्घटना नहीं है। इतिहास मंथन की प्रक्रिया से करोड़ों निस्तेज भारतीयों को आज़ादी के अणु से सम्पृक्त करने ऐतिहासिक ज़रूरत के रूप में वक़्त के बियाबान में कांग्रेस पैदा हुई। कांग्रेस उन्नीसवीं सदी की अंधेरी रात में जन्मी। बीसवीं सदी की भोर में घुटनों से उठकर पुख्ता पैरों पर चलना सीखा। एक प्रतिनिधि राष्ट्रीय पार्टी के रूप में इक्कीसवीं सदी की ओर मुखातिब हुई। उसकी किशोरावस्था का परिष्कार भारतीय राजनीति के धूमकेतु लोकमान्य तिलक ने उसकी शिराओं में गर्म खून लबालब भरकर किया। उसकी जवानी गांधी के जिम्मे थी जिसने उसकी छाती को अंग्रेज की तोप के आगे अड़ाने का जलजला दिखाया। उसकी प्रौढ़ावस्था की जिम्मेदारियों के समीकरण जवाहरलाल ने लिखे। शतायु की ओर बढ़ती बूढ़ी हड्डियों को इंदिरा गांधी ने आराम लेने नहीं दिया।
राजीव गांधी के अवसान के बाद कांग्रेस हांफती हुई क्यों दिखाई पड़ने लगी? दुनिया के सबसे पुराने सभ्य मुल्क की दो सदियों की गुलामी के माहौल को आज़ादी के विजय युद्ध में तब्दील करने वाली बूढ़ी पार्टी लांछनों का आश्रयस्थल बनती गई। इंदिरा गांधी के दिनों से पार्टी के शीर्ष नेताओं पर तरह तरह के आरोप लगाए जाने का क्रम जोर पकड़ता गया। इंदिरा गांधी को भी सत्ता से बाहर आना पड़ा। राजीव गांधी को बोफोर्स तोप के मामले में अवांछित अभियुक्तनुमा कटघरे में खड़ा किया गया। आरोपग्रस्त कांग्रेस का माहौल बरसाती नमी की तरह आॅक्सीजन की कमी महसूस करने लगा। आज लोकतंत्र का भविष्य दांव पर है। संविधान को विचित्र चुनौतियां दी जा रही हैं। कांग्रेस है उसे खुद पर लगे कीचड़ सुखाने का वक्त ही नहीं मिल रहा है।
(जारी)
(कनक तिवारी छत्तीसगढ़ के एडवोकेट जनरल रह चुके हैं आजकल रायपुर में रहते हैं।)