फाजिल नगर (देवरिया)। देश की मौजूदा राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों में सबसे बड़ा सवाल अपने लोकतांत्रिक संस्थाओं को बचाने का है। हिंदुत्व के नाम पर समाज में उन्माद फैलाकर बुलडोजर संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। ये सारे हालात हमारे संविधान पर सबसे पहले चोट पहुंचा रहे हैं। ऐसे में लोकतंत्र को खत्म करने की सांप्रदायिक ताकतों की कोशिश का मुकाबला करने के लिए बड़े पैमाने पर पहल करना होगा। इसमें हमारी लोक संस्कृति संवाद का एक बड़ा माध्यम हो सकती है। जिसके सहारे हम अपनी बातों को समाज के अंतिम कतार तक ले जा सकते हैं।
लोकरंग महोत्सव के दूसरे दिन का प्रथम सत्र वैचारिक मंथन का रहा। लोक संस्कृति का जन जागरूकता से रिश्ता विषय पर आयोजित संगोष्ठी में देश के विभिन्न हिस्सों से आए शिक्षाविद व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनी राय रखी। इसमें आरएसएस के समाज को तोड़ने की कोशिश का मुकाबला करने के लिए जनपक्षधर ताकतों को गोलबंद कर एक बड़ी लड़ाई की आवश्यकता व्यक्त की गई। मुम्बई आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर व सामाजिक कार्यकर्ता रामपुनियानी ने विस्तार से मौजूदा खतरों की ओर संकेत करते हुए साझा लड़ाई पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि लोक चेतना के सवाल पर शासक वर्ग भी चुप नहीं बैठा रहता है। वह भी अपनी जरूरत के लिहाज से जनता की चेतना का निर्माण करता है। वियतनाम पर हमला करने के दौरान अमेरिका दुनिया में अपने पक्ष में एक बहस को आगे बढ़ाता है कि कम्युनिष्ट राष्ट ने दुनिया में तबाही मचाई है। इसलिए इस पर हमला करना न्यायोचित है। ये शासक वर्ग अपनी जरूरत के लिहाज से मैकेनिज्म विकसित करता है।
हिटलर व मुसोलनी के कदमों से भी आगे भारत में बात अब बढ़ गई है। पहले हाफ पैंट पहनने वाली वे ताकतें जो अब फुल पैंट पहन रही हैं, उनकी पहले से ही कोशिश रही है कि दलित व महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाए। इन विचारधारा के लोगों को साबित्री बाई के शिक्षा को लेकर तकलीफ थी। उस हालात में साबित्री स्कूल पढ़ाने जाने के दौरान दो साड़ियां लेकर जाती थीं। जिससे कि रास्ते में उन पर गंदा फेंकने वालों का मुकाबला किया जा सके और पढ़ाने के समय साड़ी बदल लेती थीं। उस दौर में लड़कियों की शिक्षा को लेकर तरह-तरह के अफवाह फैलाए जाते थे। यह कहा जाता था कि जो औरत पढ़ लेगी वह जल्द ही विधवा हो जाएगी। आरएसएस,मुस्लिम लीग व हिंदू महासभा में कोई फर्क नहीं है। इनके पैरोकार ही यह कहा करते हैं कि मुसलमानों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि दार्शनिकों ने दुनिया को अलग अलग नजरिये से देखा। अब सवाल बदलाव का है। आज लोक संस्कृति के माध्यम से जन जागरूकता को बढ़ावा देने की जरूरत है। ऐसे वक्त में सामाजिक न्याय की ताकतों को एकजुट करने की जरूरत है। एक संगठित गिरोह द्वारा भारत की लोक संस्कृतियों को योजनाबद्ध तरीके से नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है, ताकि राज सत्ता पर बरकरार रहा जाय। अब समय आ गया है कि इन शक्तियों के खिलाफ एक जुट होकर अपनी लोक संस्कृतियों को सरंक्षित किया जाय। क्योंकि लोक संस्कृति और लोकपरंपराए जन जागरूकता का सशक्त माध्यम हैं। इसको संरक्षित रख कर ही हम समाज का भला कर सकते हैं। प्रो. पुनियानी ने कहा कि आधी आबादी की बात करने वालों के घर की महिलाओं की सबसे ज्यादा दुर्दशा होती थी। क्योंकि वे घर की चहारदीवारी में कैद रहती थी।
लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्रो. सूरज बहादुर थापा ने कहा कि भारत की संस्कृति लोक की संस्कृति है। लेकिन धर्म सत्ता और राज सत्ता के लिये मुठ्ठी भर लोग इसको अपने अनुसार परिभाषित करने का कार्य कर रहे हैं। इसके लिए जन जागरण आवश्यक है। लोक चेतना हमारे ग्रंथों से पैदा होती है लेकिन इसमें कुछ अप संस्कृति भी है। जैसे जप, होम, डायन आदि जो समाज की संस्कृति के नाम पर डराने की प्रथा है। उन्होंने अमीर खुसरो का उदाहरण देते हुए कहा कि बेटी की विदाई का सबसे सुन्दर गीत काहे को ब्याहे बिदेश की रचना की।
रीवा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. दिनेश कुशवाहा ने कहा कि लोक संस्कृतियों व धर्मों के नाम पर लोक को गुमराह करने की कोशिश की गयी। संगोष्ठी को बीएचयू के प्रो. संजय कुमार, कवि बीआर विप्लवी, आलोचक व कवि डॉ. रामप्रकाश कुशवाहा, प्रो. मोतीलाल, हिन्दू कॉलेज दिल्ली के डॉ. रतन लाल, मनोज कुमार सिंह आदि ने संबोधित किया। संगोष्ठी की अध्यक्षता बीएचयू के हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. चौथीराम यादव तथा संचालन रामजी यादव ने किया। लोकरंग के आयोजक सुभाषचंद कुशवाहा ने सभी के प्रति आभार प्रकट किया। इस दौरान विष्णुदेव राय, राजदेव कुशवाहा, असलम, नितांत राय, हदीश अंसारी, इसराइल अंसारी, भुनेश्वर राय, संजय, सिकंदर, हबीब आदि मौजूद रहे।
(फाजिलनगर देवरिया से जितेंद्र उपाध्याय की रिपोर्ट।)