Friday, March 29, 2024

स्पेशल रिपोर्ट: अंतिम सांसें गिन रहा है बरेली का मांझा और हथकरघा उद्योग

बरेली। बरेली का नाम सुनते ही दिमाग में तुरंत गाना चला आता है “झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में”। लेकिन बरेली में झुमके के अलावा भी कुछ चीजें हैं जो देश के कोने-कोने में मशहूर हैं। ऐसे ही कुछ कुटीर उद्योग हैं जो बंद होने की कगार पर हैं।

बरेली के चुनावी दौरे में हमने ऐसे ही कुछ उद्योगों को बारे में जानने की कोशिश की। बरेली के दरी का काम और मांझे का काम पूरे देश में मशहूर है। देश के अलग-अलग हिस्सों में यहां से मांझा जाता है। लेकिन आज मांझा का काम करने वाले कारीगर अपनी कला को बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।आपको बता दें कि मांझे का इस्तेमाल पतंग को उड़ाने के लिए किया जाता है। बरेली से निकली पतंग की इस डोर से पूरा देश बंधा हुआ है। लेकिन यह रिश्ता अब कमजोर पड़ता जा रहा है। कितना कमजोर हुआ है इसको जानने के लिए मैं निकल पड़ी बरेली के कुछ इलाकों के दौरे पर। बरेली शहर के बाहरी हिस्से बंशी नंगला की एक बस्ती में एंट्री करते ही लाल, पीले, हरे, नीले धागे नजर आते हैं। जिसमें कुछ कारीगर काम करते नजर आते हैं। एक मैदान जैसी जगह में पेड़ की छाया के नीचे दोनों तरफ से धागे को बांधकर कोई उसे रंग रहा था। तो कोई उसकी उलझन को दूर कर रहा था। इन सबके बीच कोई मांझे को अंतिम रूप दे रहा था। लेकिन किसी भी कारीगर के चेहरे पर जरा सी भी खुशी नहीं नजर आ रही थी।

इनके चेहरे की उदासी का मुख्य कारण है धीरे-धीरे मांझे के कारोबार का ठप होना। मोहम्मद नाम का एक नौजवान इस उद्योग के बारे में बात करते हुए बताता है कि धीरे-धीरे यह उद्योग खत्म होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण है। मॉर्केट में चाइना धागे का आ जाना। दूसरा देशी मांझे के धागे में मेहनत अधिक लगती है लागत भी ज्यादा लगती है। लेकिन कमाई नहीं हो पाती है। क्योंकि लोग सस्ते मांझे को लेने की कोशिश ज्यादा करते हैं। इसलिए विकल्प के तौर पर चाइना का मांझा इस्तेमाल करते हैं।

मोहम्मद के बगल में खड़ा एक शख्स जो मांझे को रंग रहा था। उसका कहना था कि इस धंधे की स्थिति ऐसी है कि रोज की दिहाड़ी भी हमें तीन सौ रुपए मिल जाए शाम तक तो बहुत बड़ी बात है। हम लोग कलाकार हैं। हमारे हाथों से सिर्फ कला वाला ही काम हो सकता है। हम लोग और कोई काम नहीं कर सकते हैं। बेलदारी हम लोगों से नहीं हो सकती है। लेकिन स्थिति ऐसी है कि यह धंधा दिन प्रतिदिन नीचे ही गिरा जा रहा है। धंधे के इतना नीचे चले जाने के बाद भी सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही है। अब तो बस हमारी रोजी-रोटी ही चल रही है।

मांझे में रंग लगाते बच्चे।

इनकी बात को काटते हुए मोहम्मद कहते हैं कि चाइना मांझा अवैध रुप से बेचा जा रहा है। आप किसी भी दुकानदार के पास अभी चाइना का मांझा लेने जाएंगे तो वह नहीं देगा। क्योंकि सरकार की तरफ से इसे बेचने की मनाही है। लेकिन फिर भी यह मांझा लोगों के पास आसानी से मिल जाएगा। आप अभी देख लीजिए कोई बच्चा जो पतंग उड़ा रहा होगा उसके पास चाइना का मांझा होगा। मोहम्मद की बात सच निकली। वहां पास में एक बच्चा पतंग उड़ा रहा था और उसके पास चाइना मांझा था। उद्योग के गिरने का सबसे बड़ा कारण यह है। वह बताते हैं कि हमारा मांझा पतंग उड़ाने के लिए भी सेफ है। मांझे से जो गले कटने की खबरें आती हैं। वह सभी चाइना के मांझे के कारण हैं।

इसी बीच थोड़ा और आगे बढ़ने के बाद खेत में कुछ लोग मांझे का काम कर रहे थे। इस इलाके में खेतों के बीच में तीन अलग-अलग जगह में मांझे का काम हो रहा था। यहां काम कर रहे इमरान का कहना है कि सारा धंधा सिर्फ कारीगरों के लिए ही मंदा है। बाकी पूंजीपति लोग तो मजे में हैं। मांझा जिस धागे से बनता है उसका दाम इतना बढ़ा दिया है कि मांझा बना पाना ही मुश्किल हो रहा। किसी भी चीज की कीमत बढ़ती है तो इतना नहीं बढ़ जाती है। कोई पांच दस प्रतिशत बढ़ती है। लेकिन यहां तो धागे के मालिक लूट रहे हैं। जब कच्चा माल इतना महंगा होगा और बनाने की कीमत नहीं मिल पाएगी तो कारीगर की स्थिति तो लाजमी सी बात है अच्छी नहीं होगी। दिन भर काम करने के बाद एक मजदूर जितनी भी हमारी दिहाड़ी नहीं हो पाती है।

हथकरघे पर काम करते बांयी तरफ इमरान।

चुनावी रैली में ऐसा ही कुटीर उद्योग दिखा जो हासिये पर आ चुका है। देश में ऐसे कई कुटीर उद्योग हैं जो बंद होने के कगार पर हैं। शहर के बीचों बीच एक घर जो पुराने जमाने का था, में दरी बनाने का काम चल रहा था। वहां बात करते हुए पता चला कि यह उद्योग भी पूरी तरह से खत्म होने की कगार पर है। इस उद्योग से जुड़े रमजान अली अपने घर पर ही हथकरघे से दरी की बुनाई करते हैं। किसी जमाने में उनके यहां छह हथकरघे हुआ करते थे आज सिर्फ एक है। रमजान बताते हैं कि आज बाजार में दरी के रुप से कारपेट विकल्प मौजूद है। जो सस्ते हैं। इसलिए जनता का ध्यान उस तरफ ज्यादा है। दरी थोड़ी महंगी है। आज के समय में यह सिर्फ धार्मिक स्थलों में ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल होती है। गुरुद्वारे में इसका सबसे ज्याादा उपयोग होता है। इसलिए यह उद्योग बचा हुआ है।

रमजान बड़ी तेजी से दरी की बुनाई करते हुए बताते हैं कि वह बुनकर यूनियन के सचिव रह चुके हैं। वह बताते हैं कि पहले शादी वाले टेंट हाउस में दरी का इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता था। लेकिन अब शादियो में इसकी जगह कुर्सियों ने ले ली है। जो दरी उद्योग के गिरने का सबसे बड़ा कारण है। लेकिन वहीं दूसरी जम्मू-कश्मीर जैसी ठंडी़ जगहों में लोग आज भी ठंडी के दिन में अपने घर में इसका इस्तेमाल करते हैं इसलिए यह उद्योग बचा हुआ है। नहीं तो यह पूरी तरह से चौपट हो जाएगा।

हथकरघे पर काम करते रमजान।

वह बताते हैं कि बिधौलिया में किसी जमाने में 36 हथकरघे हुआ करते थे आज वहां सिर्फ चार चल रहे हैं। बदायूं रोड पर स्थित कहरेली गांव में किसी जमाने में 46 हथकरघे थे आज सब बंद हो गए। वह बताते हैं कि हमारे घऱ के पास एक कारखाना था। वह भी सब बंद है।

घटती मांग पर वह कहते हैं कि मेहनत तो इसमें लगती है। लेकिन उस हिसाब से कमाई नहीं हो पा रही है। यही वजह है कि अब कोई भी बुनकर अपने बच्चे को यह काम नहीं सिखाना चाहता है। हम सबके बच्चे दूसरे काम कर रहे हैं। प्राइवेट नौकरी कर रहे हैं। ताकि सही से जीवन चल पाए।

(बरेली से प्रीति आजाद की रिपोर्ट।)

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