Saturday, April 27, 2024

क्या उपराष्ट्रपति चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट से न्यायिक समीक्षा का अधिकार वापस ले लिया जाए?

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ न्यायपालिका की तुलना में विधायिका की शक्तियों का मुद्दा उठाते रहे हैं । वे संसद के कामों में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप पर नाराजगी भी जताते रहते हैं । उनका कहना है कि संसद कानून बनाती है और सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देता है। उन्होंने पूछा कि क्या संसद द्वारा बनाया गया कानून तभी कानून होगा जब उस पर कोर्ट की मुहर लगेगी? उपराष्ट्रपति धनखड़ ने 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा- ‘क्या हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं’, इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा। केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन इसकी मूल संरचना में नहीं।

जहां तक सुप्रीम कोर्ट का सवाल है तो संविधान में उसे संविधान का संरक्षक बताया गया है और उसके पास यह तय करने का संवैधानिक अधिकार है कि किसी भी कानून में संविधान के तहत निर्धारित सीमा का उल्लंघन किया गया है अथवा नहीं। संविधान के तहत सरकार के प्रत्येक अंग पर कुछ निश्चित सीमाएँ लागू की गई हैं, जिसके उल्लंघन से कानून शून्य हो जाता है। आप कल्पना करें कि उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती के इस निर्णय को नहीं दिया होता तो आज देश की क्या स्थिति होती?

उपराष्ट्रपति धनखड़ जयपुर में 83वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में उद्घाटन भाषण दे रहे थे। इसी कार्यक्रम में धनखड़ ने एक बार फिर न्यायपालिका की तुलना में विधायिका की शक्तियों का मुद्दा उठाया। वह पहले भी इस मुद्दे को लगातार उठाते रहे हैं। धनखड़ ने कहा कि 1973 में एक बहुत गलत परंपरा शुरू हुई। उन्होंने कहा कि ‘केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने मूल संरचना का सिद्धांत दिया कि संसद संविधान संशोधन कर सकती है, लेकिन इसके मूल संरचना को नहीं। कोर्ट को सम्मान के साथ कहना चाहता हूँ कि इससे मैं सहमत नहीं।

जहाँ तक केशवानंद भारती मामले में फैसले का सवाल है तो केरल के ‘शंकराचार्य’ के नाम से मशहूर 79 वर्षीय केशवानंद भारती का भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने में जो योगदान है, वह न्यायिक इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया है। संविधान के रक्षक माने जाने वाले केशवानंद भारती मामले (1973) में सुप्रीम कोर्ट का दिया गया निर्णय भारतीय इतिहास की वह तारीख है, जिसके बारे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर आज हमारा संविधान जीवित है तो सिर्फ इसकी वजह से।

केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने बहुमत (7-6) के आधार पर यह फैसला दिया था कि किसी भी स्थिति में संविधान की ‘मूलभूत संरचना’ में बदलाव नहीं किया जा सकता और संसद द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। इस निर्णय ने संसद के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ तय कर दी। कहना गलत नहीं होगा कि इस फैसले की वजह से भारत एक लोकतंत्र के रूप में बचा रह सका।

संविधान की मूलभूत संरचना का तात्पर्य संविधान में निहित उन प्रावधानों से है, जो भारतीय संविधान के लोकतांत्रिक आदर्शों को प्रस्तुत करते हैं। केशवानंद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि इन प्रावधानों को संविधान में संशोधन के द्वारा भी हटाया नहीं जा सकता है।

इस निर्णय से सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि सरकार की तानाशाही नहीं चलेगी, यानी इस फैसले से सरकार पर अपनी संख्या बल के आधार पर मनमानी करने पर विराम लग गया। केशवानंद भारती के मामले के चलते ही संसद और न्यायपालिका के बीच वह संतुलन कायम हो सका।

यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आज तक इस मामले को छोड़कर सुप्रीम कोर्ट में 13 सदस्यीय पीठ का गठन नहीं हुआ। इतना ही नहीं इस मामले ने सबसे लंबी सुनवाई का इतिहास भी रचा। इस मामले की सुनवाई 68 दिनों तक चली थी। मूलभूत संरचना से जुड़े प्रावधान, जो जनमानस के विकास के लिए आवश्यक है, अपने आप में इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनमें किसी तरह के नकारात्मक बदलाव से संविधान के सार-तत्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने शंकरी प्रसाद (1951) और सज्जन सिंह (1965) जैसे मामलों में निर्णय देते हुए संसद को संविधान में संशोधन करने की पूर्ण शक्ति प्रदान की। इसका कारण यह माना जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद शुरुआती वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व पर विश्वास जताया क्योंकि उस वक्त प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी ही आमतौर पर संसद सदस्यों के रूप में सेवा कर रहे थे। इसके बाद गोलकनाथ (1967) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद अनुच्छेद-368 के तहत मौलिक अधिकारों को समाप्त या सीमित करने की शक्ति नहीं रखती है।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला तब आया जब तत्कालीन सत्तारूढ़ सरकारों ने अपने राजनीतिक हितों के लिए संविधान में संशोधन करना शुरू कर दिया था। 1970 के दशक की शुरुआत में तत्कालीन इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा आरसी कूपर (1970), माधवराव सिंधिया (1970) आदि मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णयों को बदलने के लिए 24, 25, 26 और 29वें संशोधनों में व्यापक बदलाव किए गए।

इन संशोधनों के जरिए इंदिरा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने के निर्णय को अवैध घोषित करने व पूर्व शासकों को दी जाने वाली ‘प्रिवी पर्स’ को समाप्त करने संबंधी संशोधन को अवैध घोषित करने के निर्णय को पलट दिया।

केशवानंद भारती ने न केवल केरल भूमि सुधार अधिनियम को चुनौती दी थी बल्कि 24, 25, 26 और 29वें संविधान संशोधनों व गोलकनाथ मामले के निर्णय को चुनौती दी थी। केशवानंद ने चूंकि गोलकनाथ मामले में 11 जजों की पीठ द्वारा दिए गए निर्णय को भी चुनौती दी गई थी, इसलिए इस मामले में सुनवाई के लिए तत्कालीन चीफ जस्टिस एसएम सीकरी की अध्यक्षता वाली 13 जजों की पीठ का गठन किया गया।

इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया अनुच्छेद-368 जो संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्तियां प्रदान करता है, के तहत संविधान की मूलभूत संरचना में बदलाव नहीं किया जा सकता है। केशवानंद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मूलभूत संरचना को परिभाषित तो नहीं किया लेकिन यह माना गया कि संघवाद, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र आदि ‘मूलभूत संरचना’ हैं। इसके बाद से न्यायालय ने इस सूची का निरंतर विस्तार किया है।

संविधान सरंचना के कुछ प्रमुख मूलभूत तत्व जिनमे अनुछेद 368 के तहत संसोधन नही किया जा सकता है निम्नलिखित है 1. संविधान की सर्वोच्चता 2. विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्ति का बंटवारा 3. गणराज्यात्मक एवं लोकतांत्रिक स्वरूप वाली सरकार 4. संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र 5. राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता 6. संसदीय प्रणाली 7. व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा 8. मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच सौहार्द और संतुलन 9. न्याय तक प्रभावकारी पहुँच 10. एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का जनादेश।

मूलभूत संरचना के महत्व को एसआर बोम्मई (1994) मामले से समझा जा सकता है। बाबरी विध्वंस के बाद राष्ट्रपति द्वारा भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी को बरकरार रखा गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इन सरकारों की बर्खास्तगी धर्मनिरपेक्षता के लिए आवश्यक है।

तत्कालीन चीफ जस्टिस एसएम सीकरी ने सेवानिवृत्ति के ठीक एक दिन पहले यानी 24 अप्रैल 1973 को बहुमत के आधार पर यह फैसला किया था। चीफ जस्टिस भी बहुमत का हिस्सा थे। यह वह फैसला था जिसने सरकार को कहीं न कहीं धक्का पहुंचाया था। शायद यही वजह थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 अप्रैल 1973 को परंपरा से हटकर वरिष्ठतम जज को चीफ जस्टिस बनाने की जगह जस्टिस एएन रे को चीफ जस्टिस बनाने का निर्णय लिया। जस्टिस एएन रे, केशवानंद भारती मामले की पीठ का हिस्सा थे और उनका मत बहुमत की राय से उलट था।

1975 में तत्कालीन चीफ जस्टिस एएन रे ने केशवानंद भारती के मामले पर पुनर्विचार करने की भी कोशिश की। उन्होंने बाकायदा 13 सदस्यीय पीठ का गठन किया। पुनर्विचार की कार्यवाही भी शुरू हुई लेकिन दो दिन हुई सुनवाई में पालकीवाला आदि न्यायविदों के कठोर विरोध के बाद इस पीठ को भंग करना पड़ा। पालकीवाला का कहना था कि बगैर पुनर्विचार याचिका दायर हुए पुनर्विचार नहीं किया जा सकता।

न्यायिक समीक्षा संबंधी संवैधानिक प्रावधान

किसी भी कानून को अमान्य घोषित करने के लिये न्यायालयों को सशक्त बनाने संबंधी संविधान में कोई भी प्रत्यक्ष अथवा विशिष्ट प्रावधान नहीं है, लेकिन संविधान के तहत सरकार के प्रत्येक अंग पर कुछ निश्चित सीमाएँ लागू की गई हैं, जिसके उल्लंघन से कानून शून्य हो जाता है।

न्यायालय को यह तय करने का कार्य सौंपा गया है कि संविधान के तहत निर्धारित सीमा का उल्लंघन किया गया है अथवा नहीं।

न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया का समर्थन करने संबंधी कुछ विशिष्ट प्रावधान इस तरह हैं

अनुच्छेद 372 (1): यह अनुच्छेद भारतीय संविधान के लागू होने से पूर्व बनाए गए किसी कानून की न्यायिक समीक्षा से संबंधित प्रावधान करता है।

अनुच्छेद 13: यह अनुच्छेद घोषणा करता है कि कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों से संबंधित किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है, मान्य नहीं होगा।

अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226: सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों का रक्षक एवं गारंटीकर्त्ता की भूमिका प्रदान करते हैं।

अनुच्छेद 251 और अनुच्छेद 254 में कहा गया है कि संघ और राज्य कानूनों के बीच असंगतता के मामले में राज्य कानून शून्य हो जाएगा।

अनुच्छेद 246 (3) राज्य सूची से संबंधित मामलों पर राज्य विधायिका की अनन्य शक्तियों को सुनिश्चित करता है।

अनुच्छेद 245 संसद एवं राज्य विधायिकाओं द्वारा निर्मित कानूनों की क्षेत्रीय सीमा तय करने से संबंधित है।

अनुच्छेद 131-136 में सर्वोच्च न्यायालय को व्यक्तियों तथा राज्यों के बीच, राज्यों तथा संघ के बीच विवादों में निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की गई है।

अनुच्छेद 137 सर्वोच्च न्यायालय को उसके द्वारा सुनाए गए किसी भी निर्णय या आदेश की समीक्षा करने हेतु एक विशेष शक्ति प्रदान करता है।

न्यायिक समीक्षा विधायी अधिनियमों तथा कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिकता की जाँच करने हेतु न्यायपालिका की शक्ति है जो केंद्र एवं राज्य सरकारों पर लागू होती है। भारत में शक्तियों के बजाय कार्यों का पृथक्करण किया गया है। शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता है। हालाँकि जाँच और संतुलन की व्यवस्था इस तरह से की गई है कि न्यायपालिका के पास विधायिका द्वारा पारित किसी भी असंवैधानिक कानून को रद्द करने की शक्ति है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार एवं कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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