ग्लोबल हंगर इंडेक्स: एक विश्लेषण 

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हाल ही में जर्मनी के एक गैर लाभकारी संस्थान ने वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2024 जारी किया है। 127 देशों की इस सूची में भारत का स्थान 105 वां है जो कि पिछले साल की तुलना में छह स्थान बेहतर है। यही एक बड़ी वजह मालूम होती है जिसके कारण भारतीय सरकार ने अभी तक इस रिपोर्ट का विरोध नहीं किया है।

वैश्विक भुखमरी सूचकांक मूलतः चार प्रकार के आंकड़ों पर आधारित होती है, अल्पपोषणता, चाइल्ड वेस्टिंग (ऐसी स्थिति जब उम्र और लंबाई के साथ शरीर का वजन कम हो), चाइल्ड स्टंटिंग (उम्र के अनुसार लंबाई का न बढ़ना) तथा बल मृत्युदर।

संगठन यह आंकड़े अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर निकलती है। आंकड़ों के लिए यह संस्था मूलतः संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं जैसे फूड एंड एग्रिकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (FAO), WHO, तथा यूनिसेफ जैसी संस्थाओं के द्वारा जारी आंकड़ों पर निर्भर होते हैं। 

आंकड़ों की गंभीरता 

GHI के गंभीरता सूचकों के हिसाब से भारत के वर्तमान आंकड़ों को ‘गंभीर’ की सूची में रखा गया है। आंकड़ों की मानें तो भारत ने बाल मृत्युदर में कमी लाने में सफल कोशिश की है वहीं चाइल्ड वेस्टिंग में यह दुनिया का सबसे पिछड़ा देश है, जिनके आंकड़े जारी किए गए हैं।

इसके अलावा स्टंटिंग रेट में भी इसका स्थान पीछे से 14 वां है। अर्थात इन आंकड़ों से अनुमान लगाया जाए तो बच्चों के जन्म के बाद पर्याप्त सुविधा और पोषण का आभाव स्पष्ट देखा जा सकता है जिसका एक बहुत बड़ा कारण गरीबी और बढ़ती महंगाई है। जिसके कारण लोग लगातार अपने मूल आधारभूत को संकुचित करते जा रहे हैं। 

2021 के बाद से भारत ने लगातार GHI के आंकड़ों की वैद्यता पर सवाल उठते हुए उनके मानकों, आंकड़ों की सत्यता को कठघरे में खड़ा किया है। परन्तु जब 2024 का आंकड़ा आया तब भाजपा सरकार ने रिपोर्ट पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की है।

भारतीय सरकार आंकड़ों की संदिग्धता को स्पष्ट करते हुए 2023 में अपने प्रेस रिलीज में यह बताती है कि देश में बढ़ते स्टंटिंग और वेस्टिंग का कारण सफाई, जेनेटिक्स, पर्यावरण और खाद्य पदार्थों की उपयोगिता है। वहीं पर सरकारी अकादमिक लोगों का यह भी मानना है कि भारत के बच्चे कुछ अलग हैं, जिसके कारण एक ही पैरामीटर नहीं चुना जा सकता है।

अगस्त 2024 के आंकड़ों के अनुसार देश की बेरोजगारी दर 8.5 प्रतिशत तक पहुंच गई है और जो रोजगार उपलब्ध भी हैं उसमें एक बहुत बड़ी तादात केवल खा-पी कर गुजर-बसर करने के लायक भी नहीं कमा पा रही है। जो सवाल भारत में बार- बार उठता है कि क्या भारत के जॉबलेस ग्रोथ से आगे बढ़ रहा है, इसे समझने की जरूरत है।

जॉबलेस ग्रोथ का मतलब है वृद्धि के साथ सम्मानजनक रोजगार की दर का न बढ़ना या यूं कहें रोजगार का स्थिर बने रहना। भारतीय राज्यों में अगर हरियाणा पर नजर डालें तो यह राज्य पूरे भारत में 13वां सबसे ज्यादा जीडीपी कंट्रीब्यूट करने वाला राज्य है।

परन्तु समूचे हरियाणा में देश को सबसे बड़ी बेरोजगार आबादी निवास करती है। 2022 के आंकड़ों के अनुसार हरियाणा में 37.4% बेरोजगार आबादी है और दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस राज्य में कई राज्यों के लोग आकर अपनी जीविका चला रहे हैं। 

गुजरात का वह वीडियो कोई नहीं भूल सकता जहां एक प्राइवेट होटल ने 10 कर्मचारियों के नौकरी के लिए आवेदन जारी किए जिसमें 1800 से ज्यादा लोग होटल के रेलिंग पर चढ़ आए जिसके कारण वह टूट गई। 2024 में उत्तर प्रदेश सरकार के पुलिस डिपार्टमैन ने 62 चपरासी (PEON) की भर्ती के लिए आवेदन जारी किए जिसमें 93000 लोगों ने फॉर्म भरे।

यह आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि देश का युवा भारी बेरोजगारी की मार झेल रहा है। ग्रामीण परिवेशों में अगर समय पर नौकरी न मिली और शादी न होने पर यह युवा समाज एक भरी मानसिक प्रताड़ना झेलता है।

2014 में नरेंद्र मोदी ने एक बड़े कैंपेन में यह बात चीख-चीख कर दोहराई कि देश का युवा देश का भविष्य है, और हमारे पास दुनिया को सबसे बड़ी युवा आबादी है।

परन्तु 10 साल के बाद आंकड़े कुछ ऐसे हैं कि लोगों के पैरों तले जमीन खिसक सकती है। देश का 45% युवा बेरोजगार है, जो अगली पीढ़ी की भी तैयारी कर रहा है और उस देश के सरकारी अर्थशास्त्री कुपोषण और स्टंटिंग और वेस्टिंग के लिए पर्यावरण प्रदूषण और सफाई की कमी को जिम्मेदार बताए जा रहे हैं। 

वहीं सरकार लगातार इस बात पर जिरह कर रही है कि संस्था चार में से तीन मानकों में बच्चों से जुड़े डेटा को क्यों जारी कर रही है। इसके जवाब में संस्था ने यह बताया कि बच्चे खास कर 0- 6 साल के बीच में बीमारियों व अन्य समस्याओं से बड़े की तुलना में ज्यादा सुभेद्य होते है, जहां पर उनके पोषण की कमी उनके जीवन भर के बीमारी या मृत्यु की वजह बन सकते हैं।

वहीं सरकार ने पॉपुलेशन अंडर न्यूट्रीशन के आंकड़ों पर भी सवाल खड़े किए जिसके अंदर वह खुद घिर गई है। संस्था ने यह स्पष्ट करते हुए बताया कि PoU के आंकड़े सदस्य देशों के फूड बैलेंस शीट्स के आधार पर तय किए जाते हैं, जो यह मापता है कि देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता कितनी है।

सरकारी दावों के अनुसार आंगनवाड़ी सेविकाएं अल्प पोषणत से लड़ने के लिए उनकी फ्रंटलाइन योद्धा है परन्तु वह एक अलग ही दास्तान बयान करती है। कई आंगनबाड़ी सेविकाओं ने सरकार द्वारा ‘पोषण ट्रैकर’ के न काम करने की बात कहती है।

परन्तु चौंकाने वाला खुलासा यह है कि आधार बायोमैट्रिक जुड़े बच्चे जो ‘इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलेप स्कीम’ का लाभ उठा रहे थे, उसमें से वैद्य लाभार्थियों में से 60% से ज्यादा लोगों को निकल दिया गया है। (फ्रंटलाइन मैगजीन के आंकड़े)।

बिहार में कई आंगनबाड़ी सेविकाओं ने बताया कि जिस गुणवत्ता के चावल या अनाज की बात की जाती है, उससे कहीं घटिया स्तर के अनाज बच्चों को दिए जाते हैं तथा बांटने वाले अधिकारियों की थोक विक्रेता से सीधी जन पहचान होती है।

चूंकि विक्रेता को एकमुश्त मुनाफा सरकारी अफसरों से हो रहा होता है तो वह समय-समय पर कुछ उपहार उन्हें दे दिया करते हैं। 

सरकार सच छुपाने के लिए आध्यात्मिक मार्ग अपनाने को कहे या देश की वित्त मंत्री प्याज छोड़ने की बात करें, परन्तु मूल समस्या से मुंह मोड़ती यह सरकार लगातार गलत आंकड़ों को बड़े पूंजीपतियों को सहयोग प्रदान करने के लिए कर रही है। 

(निशांत आनंद दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के छात्र हैं।)

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