भारत में कोरोना महामारी से निबटने के लिए आज से पांच महीने पहले जब देशव्यापी लॉकडाउन लागू किया गया था, तब देश में कोरोना से संक्रमण के करीब 450 मामले थे और महज 18 लोगों की मौत हुई थी। लॉकडाउन लागू होने से चार दिन पहले जनता कर्फ्यू भी लगाया था और उसी दिन से सब कुछ बंद हो गया था। पहले घोषित किया गया था कि लॉकडाउन 21 दिन का होगा, फिर इसे 3 मई तक के लिए बढ़ा दिया गया। 3 मई के बाद भी इसे कुछ मामलों में छूट देने के साथ जारी रखा गया और देश के कई राज्यों में अभी भी यह अलग-अलग स्तर पर जारी है।
दुनिया के तमाम देशों में जहां कोरोना संक्रमण के मामले अब उतार पर हैं, वहीं भारत के विभिन्न राज्यों में कोरोना संक्रमण तेजी से फैलता जा रहा है। 17 अगस्त को इस महामारी के 55079 नए मामले दर्ज हुए हैं और 876 मरीजों की मौत हो गई है। कुल मिलाकर भारत में अब तक 27 लाख से ज्यादा लोग संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं और मरने वालों की संख्या 52 हजार के करीब पहुंच गई है। यह समूची स्थिति हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की कहानी को बयान करती है। चूंकि देश की स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह बीमार साबित हो चुकी हैं, लिहाजा इस महामारी का मुकाबला करने के लिए सरकारों को लॉकडाउन लागू करने के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा है।
भारत की स्वास्थ्य सेवाओं की आलोचना करते हुए जिम ओ’नील के नाम से मशहूर ब्रिटिश अर्थशास्त्री टेरेंस जेम्स ओे’नील ने करीब पांच महीने पहले कहा था, ”शुक्र है कि कोरोना वायरस का संक्रमण चीन में शुरू हुआ, भारत जैसे किसी देश में नहीं। भारत की व्यवस्था इतनी लचर है कि कोरोना से प्रभावी तरीके से निबट ही नहीं सकती थी। चीन ने जिस प्रकार चौतरफा मुस्तैदी से वायरस पर नियंत्रण पाया, वह भारत में संभव ही नहीं था। इस मायने में चीनी मॉडल की तारीफ की जानी चाहिए।’’
गौरतलब है कि जिम ओ’नील ही वह पहले अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने दो दशक पहले 2001 में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका को विश्व की नई उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के रूप में पहचान कर ‘ब्रिक्स’ के रूप में उनका संयुक्त संक्षिप्त नाम ईजाद किया था। इन्हीं जिम ओे’नील ने 2013 में नरेंद्र मोदी को एक बेहद संभावनाओं से भरा नेता भी बताया था। बहरहाल, कोरोना वैश्विक महामारी के संदर्भ में सीएनबीसी न्यूज चैनल पर एक कार्यक्रम में बोलते हुए भारत के स्वास्थ्य सेवा और व्यवस्था तंत्र पर उनकी यह टिप्पणी एक हकीकत भरा कटाक्ष था।
भारत सरकार को जिम ओे’नील की यह टिप्पणी बेहद नागवार गुजरी थी। भारत की स्वास्थ्य सेवाओं और कोरोना से निबटने की भारतीय तैयारियों के बारे में लंबे-चौडे दावे करते हुए सरकार के प्रवक्ताओं ने जिम ओे’नील की टिप्पणी को खारिज कर दिया था। ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त विश्वास नेगी ने कहा था कि जिम ओे’नील ने भारत की स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में जानकारी के अभाव के चलते यह बयान दिया है।
सरकार समर्थक कई आर्थिक विश्लेषकों ने मीडिया के जरिए बताया कि कैसे भारत में दुनिया की सबसे बड़ी सरकारी स्वास्थ्य योजना चलाई जा रही है और कैसे भारत ने अपने यहां पिछले कुछ सालों में डॉक्टरों की संख्या को बढ़ाया है। यहां तक कहा गया था कि भारत ने अपने यहां कोरोना की रोकथाम के लिए ऐसे कदम उठाए हैं, जिन्हें दुनिया के किसी भी देश द्वारा उठाया गया सबसे कड़ा कदम भी कहा जा सकता है।
लेकिन हकीकत इस सरकारी प्रचार के ठीक उलट यह थी कि भारत सरकार कोरोना वायरस की भयावहता को ही नकार रही थी। भारत में कोरोना वायरस ने अपनी दस्तक जनवरी महीने में ही दे दी थी। लाखों की संख्या में विदेशों में बसे अथवा विदेश यात्रा पर गए भारतीय भारत लौटना शुरू हो चुके थे। हालात की गंभीरता को लेकर सरकार कितनी बेपरवाह थी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने जब इस महामारी के भारत में आसन्न खतरे को लेकर ट्वीट करते हुए सरकार को आगाह किया तो सरकार की ओर से उसकी खिल्ली उड़ाई गई। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने प्रतिक्रिया जताई कि राहुल गांधी लोगों में अनावश्यक रूप से भय पैदा कर रहे हैं। इसी तरह की बात सरकार के ढिंढोरची की भूमिका निभा रहे टीवी चैनलों पर तथाकथित विशेषज्ञों से भी कहलवाई गई।
यद्यपि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि कोरोना वायरस के हमले, फैलाव और तीव्रता को चीन ने शुरुआत में दुनिया से छिपाए रखा और इस वायरस को सबसे पहले पहचानने वाले चीनी डॉक्टर की मौत होने तक दुनिया इस जानलेवा वायरस की तीव्रता से लगभग बेखबर ही रही। मगर चीन जिस मुस्तैदी के साथ संक्रमण पर नियंत्रण पाने में कामयाब रहा उसकी विश्व समुदाय ने तारीफ ही की।
चीन के बाद इटली, स्पेन, ब्रिटेन आदि देशों में भी बड़ी संख्या में लोग इस वायरस के संक्रमण की चपेट में आकर मारे जा चुके थे। इन सभी देशों के भयावह परिदृश्य से आतंकित विश्व में जब इस जानलेवा वायरस से निबटने के निवारक और नियंत्रक उपाय तथा शोध शुरू हो चुके थे, तब भारत सरकार अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत आगमन की तैयारियों में व्यस्त थी। हालांकि उस समय तक अमेरिका में भी यह वायरस दस्तक दे चुका था, लेकिन अमेरिकी प्रशासन खासकर राष्ट्रपति ट्रम्प भी खतरे की गंभीरता को नजरअंदाज करते हुए भारत यात्रा की तैयारियों में जुटे हुए थे।
उनकी लापरवाही का आलम तो यह था कि फरवरी के अंतिम सप्ताह में जब अमेरिका में कोरोना का संक्रमण बढ़ता जा रहा था और वे भारत यात्रा के लिए रवाना होने वाले थे, तब वहां के आपदा प्रबंधन के प्रमुख ने उनसे आपातकालीन बातचीत के लिए समय मांगा था। लेकिन ट्रम्प ने उन्हें समय नहीं दिया और भारत के लिए उड़ान भर ली। इधर भारत सरकार और गुजरात सरकार तो ढोल-नगाड़ों के साथ ट्रम्प और उनके परिवार के स्वागत की तैयारी में व्यस्त थी ही। यानी मेहमान और मेजबान दोनों ही कोरोना संकट के प्रति बेपरवाह बने हुए थे।
लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा और मध्य प्रदेश में सरकार गिराने-बनाने के उपक्रम के दौरान कोरोना संक्रमण के मामलों में जिस तरह तेजी आई और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस महामारी पर अपनी चिंता जताने के लिए 19 मार्च को जब पहली बार राष्ट्र से मुखातिब हुए तो उनके भाषण से साफ हो गया कि भारत की स्वास्थ्य सेवाओं पर जिम ओे’नील की टिप्पणी एक कड़वी हकीकत है।
राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री मोदी के सम्बोधन का लब्बोलुआब यह निकला कि उन्होंने यह तो माना कि महामारी का खतरा आगे–आगे बढ़ने वाला है मगर उससे बचाव के लिए उपायों की जिम्मेदारी जनता के जिम्मे छोड़कर अपना पल्ला झाड़ लिया। महामारी की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई का कोई रोड मैप उनके पास नहीं था ताकि कम से कम देश की गरीब जनता को रोटी के लिए मोहताज़ न होना पड़े।
हद तो तब हो गई जब भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने कोरोना संक्रमण से बचने के लिए होम्योपैथिक और यूनानी दवाओं के नाम के साथ-साथ कुछ देसी नुस्खों की सूची भी जारी कर दी जिनकी प्रभावोत्पादकता का कई वैज्ञानिक आधार है ही नहीं। विडंबना यह है कि अब केंद्र सरकार के आयुष मंत्री ही कोरोना की चपेट में आकर देश के सबसे महंगे मेदांता अस्पताल में अपना इलाज करा रहे हैं।
जनवरी महीने के अंतिम सप्ताह में वुहान से लौटे केरल के एक छात्र में कोरोना वायरस के लक्षण पाए गएथे। उसके बाद राज्य में एक के बाद एक ‘आयातित’ कोरोना संक्रमण के मामलों की तादाद में इजाफा होने लगा। तब भी केंद्र सरकार की तंद्रा नहीं टूटी। अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों पर किसी प्रकार की कोई स्वास्थ्य जांच शुरू नहीं की गई। केरल अकेला ही इस जानलेवा संक्रमण से जूझता रहा। भारत सरकार के इस लापरवाह और सुस्त रवैये के पीछे कोई राजनीतिक कारण थे या महामारी से लड़ने के लिए तैयारी का अभाव, यह सरकार ही बेहतर जानती होगी।
भारत की स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में जिम ओ’नील की टिप्पणी के पीछे जो कारण रहे हैं यदि उनका सिलसिलेवार विश्लेषण किया जाए तो जिस सच्चाई की तरफ से हम आंखें मूंदे बैठे हैं, वही हमें आईना दिखाने लगेगी। देश में स्वास्थ्य-सेवाओं का मौजूदा तंत्र एक निराशाजनक तस्वीर पेश करता है।
पिछले चार-पांच महीनों के दौरान स्पष्ट हो गया है कि भारत का मौजूदा स्वास्थ्य-तंत्र कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी के हमले को झेल पाने में असमर्थ है। लचर स्वास्थ्य सेवाएं, शहरों में घनी आबादी, भीषण वायु प्रदूषण, जागरूकता की भारी कमी और गंदगी से बजबजाती सड़कें और गलियाँ, ये सब मिलकर किसी भी महामारी के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं।
भारत सरकार ने कुल जीडीपी का मात्र 1.3 % स्वास्थ्य सेवाओं के पर खर्चने का प्रावधान बजट में किया है, जो सवा अरब की आबादी वाले देश के लिए ऊँट के मुंह में जीरे के समान है। यह पढ़कर आप चौंक जाएंगे कि ग्लोबल हेल्थ सिक्योरिटी इंडेक्स 2019 के अनुसार गंभीर संक्रामक रोगों और महामारी से लड़ने की क्षमता के पैमाने पर भारत विश्व में 57वें नम्बर पर आता है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार भारत में केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों द्वारा संचालित तकरीबन 26000 सरकारी अस्पताल हैं।
सरकारी अस्पतालों में पंजीकृत नर्सों और दाइयों की संख्या लगभग 20.5 लाख और मरीजों के लिए बिस्तरों की संख्या 7.13 लाख के करीब है। अब यदि देश की 1.25 अरब की आबादी को सरकारी अस्पतालों की कुल संख्या से भाग दिया जाए तो प्रत्येक एक लाख की आबादी पर मात्र दो अस्पताल मौजूद हैं। प्रति 610 व्यक्तियों पर मात्र एक नर्स उपलब्ध है। प्रति 10,000 लोगों के लिए मुश्किल से 6 बिस्तर उपलब्ध हैं।
सरकारी अस्पतालों में जरूरी दवाओं और चिकित्सकों की भारी कमी है। इसी कारण सेवारत डॉक्टरों और नर्सों पर काम का भारी दबाव रहता है। चिकित्सा जांच के लिए आवश्यक उपकरण या तो उपलब्ध ही नहीं है और यदि उपलब्ध भी हैं तो तकनीकी खराबी के कारण बेकार पड़े रहते हैं। सरकारी अस्पतालों में चारों तरफ फैली गन्दगी व अन्य चिकित्सकीय कचरा कोरोना जैसे अनेकों जानलेवा वायरसों को खुला आमंत्रण देते प्रतीत होते हैं।
सरकारी अस्पतालों एवं स्वास्थ्य सेवाओं में आमजन का विश्वास शून्य के बराबर है। ग्रामीण इलाकों में तो स्वास्थ्य सेवाएं अस्तित्व में हैं ही नहीं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्दों में हमेशा ताला लगा रहता है। ऐसे में यदि सुदूर गाँवों में कोरोना का संक्रमण पहुंच जाए तो चिकित्सा व निगरानी के अभाव में होने वाली मौतों का आंकड़ा कहाँ तक पहुंच सकता है इसकी कल्पना से ही सिहरन होती है। प्राइवेट अस्पताल, जहाँ चिकित्सकों की कमी नहीं है, आधुनिकतम चिकित्सा उपकरण उपलब्ध हैं और स्वच्छता के उच्चतम मानदंडों का पालन किया जाता है, वे अपनी आसमान छूती महँगी चिकित्सा सुविधाओं के कारण इस देश की अधिसंख्य गरीब निम्नवर्गीय आबादी की पहुँच से बाहर हैं। महंगे एलोपैथिक इलाज के बरक्स होम्योपैथिक दवाएं सस्ती होने की वजह से बहुतायत में भारतीय इस चिकित्सा पद्धति पर भरोसा करते हैं जिसका कोरोना के इलाज में प्रभावी होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
‘नमस्ते’ या ‘नक़ाब’ की परंपरा पर इठलाने की जरूरत नहीं है। नित्य प्रति सामूहिक धार्मिक आयोजनों, भंडारों, वृहद वैवाहिक आयोजनों वाले इस देश में मात्र नमस्ते या नक़ाब के माध्यम से कोरोना से बचा नहीं जा सकता।
जहाँ दुनिया भर में आक्रामक उपायों के ज़रिए इस वायरस पर नियंत्रण पाने की कोशिशें हो रही हैं वहां भारत में एक धर्मगुरु कोरोना के इलाज के लिए गौमूत्र और गोबर के सेवन के लिए पार्टी आयोजित कर रहे हैं। एक मौलवी झाड–फूंक के ज़रिए कोरोना का इलाज़ मात्र दस रुपए में करने का दावा कर रहे हैं। हिंदुस्तान की कुछ जाहिल महिलाएं धर्मस्थलों में बैठकर कोरोना को भगाने के गीत गा रही हैं। असम राज्य की एक विधायक गौमूत्र को और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ योग को कोरोना के इलाज की औषधि घोषित कर चुके हैं। यदि अर्थशास्त्री जिम ओ’नील ‘चिकित्सा की इन भारतीय पद्धतियों’ से वाकिफ़ होते तो स्वास्थ्य तंत्र की आलोचना करने के बजाए अपना सिर धुन रहे होते।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)