अरुण शौरी के लेख हाउ हिस्ट्री वाज़ मेड अप ऐट नालंदा (दि इण्डियन एक्स्प्रेस, 28 जून 2014) को पढ़कर हैरत हुई जिसमें उन्होंने अपने अज्ञान को ज्ञान का मुलम्मा चढ़ाकर अपने पाठकों को पेश किया है। शौरी पर तरस खाने और उनके पाठकों से सहानुभूति रखने के लिए यह एक वजह ही काफी है। चूंकि उन्होंने मेरे नाम का उल्लेख किया है और प्राचीन नालंदमविहार के विध्वंस के ऐतिहासिक नरेटिव को विकृत करने के लिए साक्ष्यों मे हेरफेर करने का आरोप मुझ पर लगाया है, तो मैं ज़रूरी समझता हूं कि उनकी बकवास को नज़रअंदाज़ करने की बजाय उनके आरोपों का खण्डन कर हिसाब साफ़ किया जाए।
2006 (न कि 2004 जैसा शौरी ने कहा है) में भारतीय इतिहास परिषद में मेरे जिस प्रतिपादन का उल्लेख वह करते हैं वह असल में प्राचीन नालंदा के ध्वंस पर केंद्रित था ही नहीं पर ऐसा दिखलाकर वह पाठकों को गुमराह करते हैं और उनकी आंखों में धूल झोंकते हैं। दरअसल वह ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच के बैर पर केंद्रित था जिसके लिए मैंने सहारा लिया था विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों का जिनमें मिथक और परम्पराएं भी शामिल हैं।
इस संदर्भ में मैंने हवाला दिया था ‘सम्पा खान-पो’ द्वारा अठारहवीं सदी में लिखे गए तिब्बती ग्रंथ ‘पग-सैम जॉन-जैंग’ जिसका उल्लेख बी एन एस यादव ने अपनी कृति सोसाइटी एण्ड कल्चर इन नॉर्दर्न इण्डिया इन दि ट्वेल्फ्थ सेन्चरी (पृ. 346) में किया है। मैंने बाकायदा इसकी अभिस्वीकृति की थी मगर अपने टुच्चेपन में शौरी तुरंत मुझ द्वारा की गई साहित्यिक चोरी खोज लेते हैं। जोड़ना मैं यह भी चाहूंगा कि ‘हिन्दू फैनेटिक्स’ मेरे शब्द नहीं बल्कि बीएनएस यादव के हैं और इसीलिए उद्धरण चिन्हों के बीच हैं। बड़े दुख की बात है कि यह बात एक मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पत्रकार को बतानी पड़ रही है।
अपने गुमान के चलते शौरी उस तिब्बती परम्परा की अवहेलना करते हैं और उसे खारिज करते हैं जिसमें, जैसा कि सूत्र में दर्ज है, चमत्कार के कुछ तत्त्व मौजूद हैं। शौरी द्वारा उद्धृत सम्पा की कृति का मौजूं हिस्सा यह रहा:
“नालंदा में उस (काकुत्सिद्ध) द्वारा निर्मित मंदिर में जब धार्मिक प्रवचन दिया जा रहा था, तब कुछ युवा भिक्खुओं ने तीर्थिक भिक्षुओं पर सफ़ाई में प्रयुक्त होने वाला जल फेंका। (बौद्ध जन हिन्दुओं को तीर्थिक कह कर चिन्हित करते थे)। भिक्षुकों ने क्रुद्ध होकर धर्मगंज, नालंदा के बौद्ध विश्वविद्यालय के तीन पवित्र स्थानों में आग लगा दी। उनके नाम थे रत्न सागर, रत्न रंजक और रत्नोदधि नामक नौमंज़िला मंदिर जिसके अंदर पवित्र पुस्तकों का आगार स्थित था” (पृ 92)। शौरी सवाल करते हैं कि कैसे ‘समूचा, भव्य और प्रस्तर संकुल जलाने के लिए’ दो भिक्षुक एक भवन से दूसरे भवन जा सकते हैं। एक अन्य तिब्बती भिक्खु और विद्वान तारानाथ द्वारा सत्रहवीं सदी में लिखी गई हिस्ट्री ऑफ़ बुद्धिज़्म इन इण्डिया के अंश (जिसको मैंने संक्षिप्त करके नीचे वाले पैरा में दिया है) को देखते हैं:
नालेन्द्र (नालंदा) में काकुत्सिद्ध द्वारा बनवाए गए मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा के दौरान “कुछ शरारती युवा श्रमणों ने दो तीर्थिक भिक्षुओं पर गंदा पानी फेंका और उन्हें कपाटों के पीछे दाबे रखा और उन पर खतरनाक कुत्ते छोड़े।” इससे क्रुद्ध होकर उनमें से एक रोजी-रोटी का जुगाड़ करने चला गया और दूसरा एक गहरे खड्ड में बैठकर “सूर्य साधना में रत हो गया”, पहले नौ साल तक और तत्पश्चात तीन और साल तक और इस प्रकार “मंत्रसिद्धि प्राप्त” कर उसने “एक हवन किया और अभिमंत्रित भस्म चहुंओर फैला दी” जिससे “तुरंत ही चमत्कारिक रूप से अग्नि उत्पन्न हुई,’’ जिसने सभी चौरासी मंदिरों और ग्रंथों को अपनी चपेट में ले लिया जिसमें से कुछ ग्रंथ फिर भी नौमंज़िला रत्नोदधि मंदिर की सबसे ऊपरी मंजिल से बहने वाले जल के कारण बच गए। (हिस्ट्री ऑफ़ बुद्धिज़्म इन इण्डिया, अंग्रेज़ी अनुवाद लामा चिमपा और अलका चट्टोपाध्याय, पृ. 141-42 का सारांश)।
अगर इन दो वर्णनों को हम गौर से देखें तो उन्हें समान पाएंगे। तीर्थिकों की भूमिका और उनकी चमत्कारिक अग्नि से हुआ दाह दोनों में है। माना कि चमत्कारों को शब्दशः नहीं लिया जाना चाहिए मगर उन परम्पराओं के हिस्से के तौर पर उन्हें नज़रअंदाज़ करना भी ठीक नहीं जो समय के साथ-साथ मज़बूत होते जाते हैं और किसी समुदाय की सामूहिक स्मृति का हिस्सा बन जाते हैं। ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच लंबे समय तक रहे आए बैर वाले तत्त्व पर ध्यान न देना न तो वांछनीय है और न ही उचित क्योंकि उसी ने इस तिब्बती परम्परा को जन्म दिया और अठारहवीं सदी और उसके बाद तक भी उसे पोषित किया होगा।
इसी बौद्ध-तीर्थिक शत्रुता के संदर्भ में सम्पा का बयान अहम बन जाता है और तारानाथ के प्रमाण से सुसंगत होने के कारण यह ठीक भी लगता है। तिस पर, न सम्पा और न ही तारानाथ कभी भारत आए थे। इसका मतलब यह होना चाहिए कि बुद्ध के धर्म के प्रति ब्राह्मणीय शत्रुता की बात काफी पहले तिब्बत पहुंच गई थी और वहां की बौद्ध परम्परा का हिस्सा बन गई थी और उसकी अभिव्यक्ति सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के तिब्बती लेखन में हुई। इस प्रकार की स्त्रोतालोचना की स्वीकृति या अस्वीकृति स्वागतयोग्य है अगर वह पेशेवर इतिहासकार की जानिब से आए न कि इतिहास के साथ फ्लर्ट करने वाले शौरी जैसे की तरफ से।
इन दो तिब्बती परम्पराओं में से मुझ द्वारा उद्धृत परम्परा को न सिर्फ यादव (जिन्हें अज्ञानवश शौरी मार्क्सवादी करार देते हैं) बल्कि बहुत से भारतीय विद्वान स्वीकृति देते हैं जैसे आर के मुकर्जी (एजुकेशन इन ऐन्शन्ट इण्डिया), सुकुमार दत्त (बुद्धिस्ट मौनक्स एण्ड मोनेस्टरीज़ ऑफ़ इण्डिया), बुद्ध प्रकाश (आस्पेक्टस ऑफ़ इण्डियन हिस्ट्री एण्ड सिविलाइज़ेशन) और एस सी विदयाभूषण राव जो सूत्र की व्याख्या यह कहने हेतु करते हैं उसका संकेत ‘बौद्ध और ब्राह्मणीय भिक्षुकों के बीच के द्वन्द्व’ की ओर है जो असल में था और ‘जिसके चलते ब्राह्मणीय भिक्षुकों ने क्रुद्ध होकर बारह वर्षों तक सूर्यदेव की उपासना की, अग्निहोत्र किया और यज्ञकुंड से जलते अंगारे और भस्म निकाल कर बौद्ध मंदिर पर फेंके जिससे अंततः नालंदा का रत्नबोधि नामक विशाल पुस्तकालय नष्ट हो गया’ (हिस्ट्री ऑफ़ इण्डियन लॉजिक, पृ। 516, डी आर पाटील द्वारा दि ऐन्टक्वेरीअन रिमेंस ऑफ़ बिहार, पृ। 327 में उद्धृत)। जिन विद्वानों का जिक्र ऊपर किया गया है वे सब असंदिग्ध अकादमिक प्रामाणिकता और सत्यनिष्ठा वाले बहुभाषाविद थे। उनका मार्क्सवाद से दूर-दूर तक संबंध नहीं था जो शौरी के लिए अपने सांड अवतार में लाल कपड़े जैसा है।
अब तिब्बती परम्परा को मिन्हाज-ए-सिराज के तबक़ात-ए-नासिरी में दिए गए समकालीन वृत्तान्त के बरक्स देखते हैं जिसका शौरी न केवल गलत अर्थ लगाते हैं बल्कि तिल का ताड़ भी बनाते हैं। इसके प्रमाण का ब्राह्मणीय असहिष्णुता के मेरे तर्क से कोई वास्ता नहीं है, फिर भी इस ‘झूठे ज्ञान’ की पोल खोलने के लिए एक लफ़्ज़ कहना लाज़िमी है कि बकौल जी बी शॉ यह ‘अज्ञान से अधिक खतरनाक है।’ इस पाठ का प्रसिद्ध अवतरण नीचे जस का तस दिया जा रहा है।
“वह (बख्तियार खिलजी) उन हिस्सों और उस देश में अपने लूटपाट को तब तक ले जाता रहा जब तक कि उसने बिहार के किलेबंद शहर पर हमला नहीं किया। भरोसेमंद लोगों ने इस बाबत बतलाया है, कि रक्षात्मक बख्तर में उसने दो सौ घुड़सवारों के साथ बिहार के दुर्ग के प्रवेशद्वार पर चढ़ाई की, और एकाएक हमला कर दिया। मुहम्मद-ए-बख्तियार की खिदमत में फ़रग़ाना से आए दो भाई थे, ज्ञानवान, एक निज़ामुद्दीन, दूसरा समसमुद्दीन (नाम से); और जिससे इस पुस्तक का लेखक (मिन्हाज) लखनावती में हिजरी सन 641 में मिला था, और यह वृत्तान्त उसी का है। ये दो समझदार भाई मुजाहिदों की टुकड़ी का हिस्सा थे जब वह दुर्ग के प्रवेशद्वार पर पहुंची और हमला शुरु किया, जिस वक़्त मुहम्मद-ए-बख्तियार ने, अपनी बहादुरी के दम पे, अपने-आप को महल के प्रवेशद्वार के छोटे फाटक में झोंक दिया, और उन्होंने दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया और काफी माल हासिल किया। उस स्थान के निवासियों में अधिक संख्या ब्राह्मणों की थी, और उन सभी ब्राह्मणों के सिर मुंडे हुए थे; और वे सब मारे गए। वहां बड़ी संख्या में पुस्तकें थीं; और, जब ये सभी पुस्तकें मुसलमानों की निगरानी में आईं, तो उन्होंने बहुत से हिंदुओं को बुलाया ताकि वे उन्हें उन पुस्तकों के संबंध में जानकारी दे सकें; पर सारे हिन्दू मारे जा चुके थे। (उन पुस्तकों की सामग्री से) परिचित होने पर यह पाया गया कि किला और शहर एक कॉलेज था, और हिंदी भाषा में, वे कॉलेज को बिहार कहते हैं (तबक़ात-ए-नासिरी, अँग्रेज़ी अनुवाद एच जी रेवर्टी, पृ-551-552)।”
इस वर्णन में बख्तियार के हमले का निशाना बिहार के एक दुर्ग को बताया गया है। जिस दुर्गनुमा विहार पर बख्तियार ने कब्ज़ा जमाया उसे ‘औदंद बिहार या ओदंदपुर-विहार के नाम से जाना जाता था’ (उदन्तपुरी जो बिहार शरीफ़ में है जिसे तब सिर्फ बिहार कहा जाता था)। बहुत सारे इतिहासकारों का यही मानना है मगर सबसे अहम बात कि इनमें जदुनाथ सरकार (हिस्ट्री ऑफ़ बेंगाल, खण्ड 2, पृ 3-4) भी शामिल हैं जो भारत में साम्प्रदायिक इतिहासलेखन के महामहोपाध्याय हैं। मिन्हाज नालंदा का जिक्र तक नहीं करता; महज ‘बिहार के दुर्ग’ (हिसार-ए-बिहार) के लूटे जाने की बात करता है। मगर नालंदा के विनाश में अगर बख्तियार की भूमिका न दर्शाई जाए तो शौरी को करार कैसे आए?
मगध के इलाके में चूंकि बख्तियार की अगुवाई में लूटपाट अभियान जारी थे, तो शौरी सोचते हैं कि नालंदा का ध्वंस उसी ने किया होगा और जादुई ढंग से वे एक ऐसे वृत्तान्त में ‘प्रमाण’ ढूंढ़ लेते हैं जो उस स्थान की बात ही नहीं करता। इस तरह एक अहम ऐतिहासिक साक्ष्य मुस्लिम-विरोधी पूर्वग्रह का शिकार हो जाता है। अतिउत्साह में वे ऐतिहासिक प्रमाणों में हेरफेर करते हैं, उन्हें गढ़ते हैं और इस तथ्य की अवहेलना करते हैं कि बख्तियार नालंदा नहीं गया; जो मुस्लिम फतह के प्रकोप से इसलिए बच गया क्योंकि वह दिल्ली से बंगाल जाने वाले मुख्य मार्ग पर स्थित नहीं था बल्कि उसके लिए अलग से मुहिम की ज़रूरत थी (रूरिख द्वारा लिखी गई पुस्तक बाइओग्राफी ऑफ़ धर्मस्वामी की ए एस अटलेकर द्वारा लिखी गई भूमिका)।
इसके अलावा, बख्तियार द्वारा उदन्तपुरी के लूटे जाने के कुछ सालों बाद जब तिब्बती भिक्खु धर्मस्वामी 1234 में नालंदा आया, तो उसने “कुछ भवन क्षति से अछूते” पाए जिनमें कुछ पंडित और भिक्खु रहते थे और महापंडित राहुलश्रीभद्र से शिक्षा ग्रहण करते थे। दरअसल प्रतीत ऐसा होता है कि बख्तियार बिहारशरीफ़ से झारखण्ड प्रदेश की पहाड़ियों और जंगलों से होते हुए बंगाल के नादिया की ओर कूच कर गया। वैसे झारखण्ड के प्रदेश का प्रथम उल्लेख ईस्वी सन 1295 के एक शिलालेख में मिलता है (काम्प्रीहेन्सिव हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया, खण्ड iv, भाग i, पृ 601)। मैं यहां जोड़ना चाहूंगा कि उनकी समूची पुस्तक एमिनेंट हिस्टोरीयन्स, जिसमें से संदर्भित आलेख उद्धृत किया गया है, ऐतिहासिक प्रमाणों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये के उदाहरणों से भरी पड़ी है और भारतीय अतीत की विकृत समझ फैलाती है।
इस्लामी आक्रान्ताओं ने बिहार और बंगाल के हिस्सों पर कब्जा जमाकर उस इलाके के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया इससे इनकार करना न तो संभव है न ही आवश्यक। मगर नालंदा के ध्वंस और उसे जलाए जाने के साथ बख्तियार खिलजी को जोड़ने की कवायद इतिहास को मनमाने ढंग से विकृत करने का ज्वलंत उदाहरण है। शौरी और उनके जैसे अन्य वीकेंड इतिहासकार ऐतिहासिक आधार-सामग्री मे हेरफेर करने को हमेशा आज़ाद हैं मगर ऐसा करने से उनमें इतिहास के गंभीर प्रशिक्षण का अभाव ही ज़ाहिर होता है।
1998 में राजग के शासनकाल में शौरी ने अपनी कुत्सित और झूठे लांछन लगाने वाली पुस्तक एमिनेंट हिस्टोरीयन्स छपवाकर बड़ा विवाद पैदा किया था और अब सोलह सालों बाद उन्होंने उसका दूसरा संस्करण छपवाया है। जब-जब भाजपा सत्ता में आती है तो वे इतिहासकार के रूप में अवतरित और पुनर्अवतरित होते हैं, अपने आकाओं को खुश करने की कोशिश करते हैं और उनकी मेज से टुकड़े गिरने का इंतज़ार करते हैं। अतीत को लेकर उनकी दृष्टि विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बेहूदा तत्वों और गुंडों से भरे उनके अनेकों संगठन जो उनके दृष्टिकोण से सहमत न होने वालों की पुस्तकें जलाते हैं, जो कलाकृति उनके अनुसार किसी देवी-देवता का अपमान करती है उसे तोड़-फोड़ डालते हैं, भारत के इतिहास का विकृत रूप पेश करते हैं और असहिष्णुता की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं।
गोमांस खाने को लेकर मेरा शोध जब छपा तो इन्हीं तत्वों ने मेरी गिरफ़्तारी की मांग की थी और शिवाजी पर उनकी पुस्तक आने पर जेम्स लेन की लानत-मलामत की थी। यह नामुमकिन नहीं कि शौरी उनके साथ और दीनानाथ बत्रा जैसे लोगों के साथ बिल्कुल समरस होकर काम करते हैं। दीनानाथ बत्रा वही जिन्होंने रामायण परंपरा की विविधता पर जोर देने वाले ए के रामानुजन के आलेख को, हिन्दू धर्म का वैकल्पिक रूप दिखने वाले वेंडी डोनिजर के लेखन को, 1969 से अहमदाबाद मे चली आ रही सांप्रदायिकता और लैंगिक हिंसा पर मेघना कुमार के काम को और आरएसएस की बड़ाई न करने वाली आधुनिक भारत पर शेखर बंद्योपाध्याय की पाठ्यपुस्तक को निशाना बनाया।
अपने झूठे, ग़लत और तोड़े-मरोड़े साक्ष्यों को अपने दूसरे संस्करण में पुनः प्रस्तुत कर लगता है शौरी ने लड़ाई के नए दौर का आगाज़ कर दिया है और एतद्द्वारा बतरस और वैसी ही चीजों की प्रतिक्रियावादी चक्की में दाने डाल दिए हैं।
(Kafila.online पर 9 जुलाई 2014 को प्रकाशित अविकल मूल अंग्रेज़ी आलेख का अनुवाद भारत भूषण तिवारी ने किया; इसका संक्षिप्त रूप उसी तारीख को दि इण्डियन एक्स्प्रेस में प्रकाशित हुआ था। समयांतर मासिक पत्रिका से साभार।)
Just stop your leftist propganda Mr D.N Jha…u r among those so called hostorians naa who claimed that their isn’t any archeological findings of Ram mandir under babri!! And when honourable highcourt summons you then all of you steps back.!!
Stop filling hatred among communities and do some good work and if not then keep quiet.