प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश के द्वारा, मिलकर सार्वजनिक रूप से अपनी आस्था को प्रदर्शित करना संवैधानिक आश्वासनों को कमजोर बनाता है- इंदिरा जय सिंह
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) और सर्वोच्च न्यायालय (एससी) के न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय इस आशय की शपथ ली जाती है कि वे भारत के संविधान के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखेंगे, तथा वे बिना किसी भय या पक्षपात, स्नेह या द्वेष के अपने कर्तव्यों का विधिवत और निष्ठापूर्वक पालन करेंगे, तथा वे संविधान और कानून को अक्षुण्ण बनाए रखेंगे।
जबकि प्रधानमंत्री के द्वारा ट्वीट की गई तस्वीरों में वे मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और उनकी पत्नी के साथ गणेश पूजा में दिखाई दे रहे हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमंत्री आमंत्रित अतिथि थे। इससे कई सवाल खड़े होते हैं। इनमें से सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मुख्य न्यायाधीश अपने पद की शपथ के प्रति पूरी तरह से खरे हैं?
सर्वोच्च न्यायालय की यह मान्यता रही है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की सबसे महत्वपूर्ण बुनियादी विशेषता में से एक है। उपेंद्र बक्सी को उद्धृत करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) मामले में माना था कि संविधान में “धर्मनिरपेक्षता” का अर्थ यह है कि “राज्य खुद से किसी धर्म को न तो अपनाएगा, न ही स्थापित करेगा या न ही उसका पालन करेगा।” न्यायालय ने उसी फैसले में यह भी माना था कि “प्रत्येक व्यक्ति को, उस क्रम में, अपनी अंतरात्मा और धर्म की स्वतंत्रता का एक समान अधिकार होगा”।
कोई भी माननीय मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री की अंतरात्मा और धर्म की स्वतंत्रता का निजी तौर पर आनंद उठाने के अधिकार पर सवाल खड़े नहीं कर सकता। हालाँकि, यहाँ पर सवाल यह खड़ा होता है कि क्या उनके विश्वास का इस प्रकार से सार्वजनिक प्रदर्शन उनके अपने-अपने पद की शपथ का उल्लंघन करता है या नहीं। निःसंदेह, इसका उत्तर हाँ में है।
भारतीय न्यायिक इतिहास में इस प्रकार का यह पहला ज्ञात मामला है, जहाँ एक मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने एक मौजूदा पीएम को वीडियोग्राफरों और फोटोग्राफरों के साथ धार्मिकता के सार्वजनिक प्रदर्शन हेतु अपने घर पर आमंत्रित किया है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इस कार्यक्रम को सार्वजनिक किया जा सके। इस आयोजन में चीफ जस्टिस भगवा कुर्ता धारण किये हुए हैं जबकि पीएम महाराष्ट्रीयन टोपी पहने हुए हैं। हमें इस बात को भी याद रखना चाहिए कि मुख्य न्यायाधीश ने महाराष्ट्र में विधायकों की अयोग्यता वाले मामले और शिवसेना के दो धड़ों के द्वारा पार्टी सिंबल को लेकर खींचतान से जुड़े मामले की सुनवाई की थी और जल्द ही इस पर वे सुनवाई करने वाले हैं।
हालांकि, यह कोई पहली दफ़ा नहीं है कि हमने इस तरह का दृश्य देखा है, लेकिन हमने हर बार ऐसा होने दिया, जिससे एक न्यू नॉर्मल स्थिति बन गई है। इसी जनवरी माह में, सीजेआई ने गुजरात के द्वारकाधीश मंदिर का दौरा किया था, और जिला न्यायालय के वकीलों से इस तरह से काम करने का आग्रह किया था कि “न्याय का ध्वज” लहराता रहे। “ध्वजा” एक हिंदू प्रतीक है, ऐसे में यह धर्मनिरपेक्षता और उनके पद की शपथ के साथ कैसे मेल खा सकता है?
सार्वजनिक दृष्टि में, दो संवैधानिक पदाधिकारियों के द्वारा रूप से पूजा करना यह सवाल खड़ा करता है कि क्या न्यायपालिका के भीतर धर्म को पेवश्त किया जा रहा है। भारत एक बहु-धार्मिक मान्यता वाला वाला समाज है, फिर ऐसे में संवैधानिक पदाधिकारियों के द्वारा किसी एक धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन उनके पद की शपथ का अनुपालन कैसे कर सकता है?
एस आर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि “संविधान धर्म और राज्य की शक्ति को आपस में मिलाने को न तो मान्यता देता है और न ऐसा करने की इजाज़त देता है। दोनों को हर हाल में अलग-अलग रखा जाना चाहिए।” अगर यह मानते हुए कि यह पूजा संवैधानिक रूप से स्वीकार्य थी, तो अकेले प्रधानमंत्री को ही क्यों आमंत्रित किया गया? क्यों देश के राष्ट्राध्यक्ष, अर्थात राष्ट्रपति को आमंत्रित नहीं किया गया? क्यों चीफ जस्टिस के साथी न्यायाधीशों और विपक्ष के नेता को आमंत्रित नहीं किया गया?
जैसा कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कपिल सिब्बल इंगित करते हैं कि, इससे पहले भी महाराष्ट्र के न्यायाधीश (सीजेआई के पिता सहित) सीजेआई पद पर रहे हैं, जिन्होंने कभी किसी प्रधानमंत्री को गणेश पूजा के लिए अपने आवास पर आमंत्रित नहीं किया था। यह हमें कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण की ओर ध्यान दिलाता है।
मोंटेस्क्यू ने इस बारे में लिखा था, “…यदि न्याय करने वाली शक्तियों को विधायिका और कार्यपालिका से पृथक नहीं किया जाता है तो कोई स्वतंत्रता नहीं है।” आखिरकार, न्याय न केवल किया जाना चाहिए, बल्कि इसे किये जाते दिखना भी चाहिए। देश का कानून इसी आधार पर बना हुआ है। संस्थागत पवित्रता के लिए, सीजेआई को निम्नलिखित प्रश्नों के जवाब देने की ज़रूरत है।
पहला, किसके निमंत्रण पर प्रधानमंत्री मोदी, मुख्य न्यायाधीश के आवास पर गए? दूसरा, इस कार्यक्रम में अन्य संवैधानिक पदाधिकारी क्यों मौजूद नहीं थे? क्या उन्हें भी आमंत्रित किया गया था? तीसरा, मुख्य न्यायाधीश के दो वर्ष के कार्यकाल के दौरान, उन्होंने निजी तौर पर सामाजिक और/या धार्मिक कार्यों के सिलसिले में प्रधानमंत्री से कितनी बार मुलाकात की है? चौथा, एक निजी धार्मिक अनुष्ठान का इस्तेमाल फोटो खिंचवाने के लिए क्यों किया गया? पांचवां, क्या महाराष्ट्र में चुनाव होने वाले हैं, जिसके चलते मुख्य न्यायाधीश के लिए महाराष्ट्रीयन टोपी का प्रतीकात्मक महत्व नहीं रहा? छठा, हिंदू प्रतीकों, भजनों और अनुष्ठानों के इस खुले प्रदर्शन को देखते हुए, क्या गैर-हिंदू याचिकाकर्ता अभी भी मुख्य न्यायाधीश से निष्पक्ष न्याय की उम्मीद रख सकते हैं?
पद की शपथ में न सिर्फ संविधान के प्रति बल्कि व्यक्ति की अंतरात्मा के प्रति भी निष्ठा की दरकार होती है। क्या मुख्य न्यायाधीश ईमानदारी से इस बात को कह सकते हैं कि वे अपने प्रति वफादार रहे हैं? मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है, सिवाय शेक्सपियर के इस उद्धरण के: “हे न्याय, तुम क्रूर जानवरों के पास भाग चुके हो और मनुष्य अपने विवेक को खो चुके हैं!”
(इस लेख को सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदिरा जय सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस के लिए लिखा है। जनचौक इस लेख को साभार हिंदी के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा है।)