मोदी सरकार कर रही लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों पर हमला

1947 में आजादी मिलने के बाद संविधान सभा में विचार-विमर्श और विद्वतापूर्ण बहसों के बाद भारत के लगभग सभी विचारधाराओं के लोगों ने संविधान को सर्व-सहमति से स्वीकार किया था। यानी नवजात भारतीय राष्ट्र राज्य के शासक वर्ग को उस समय‌ सर्वभौम संघात्मक गणतांत्रिक भारत की संरचना ही सबसे ज्यादा उपयुक्त लगी थी।

इसको दो उदाहरण से देखा जा सकता है। एक, डॉक्टर अंबेडकर की सोच थी कि भारतीय समाज के लोकतांत्रिक रूपांतरण के लिए वर्ण व्यवस्था यानी जाति का विनाश पहली शर्त है। नहीं तो लोकतंत्र को टिकाए नहीं रखा जा सकता। इस समझ से अधिकांश संविधान सभा के सदस्य अपनी वर्णवादी सोच के कारण सहमत नहीं थे। इसके बाद भी डॉक्टर अंबेडकर को ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष चुना गया।

दूसरा, दूसरी तरफ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वर्ण व्यवस्था समर्थक बाबू राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया गया। साथ ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे हिंदू महासभा के नेता और मौलाना हसरत मोहानी सहित कई घोषित कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट भी संविधान सभा के सदस्य थे।

इस बात से यह स्पष्ट है कि तत्कालीन भारत के शासक वर्ग में भारत के भविष्य के रास्ते को लेकर लगभग आम सहमति थी। साथ ही 1946 के टाटा बिरला प्लान की स्वीकृति से यह संकेत मिल गया था कि भारत के विकास की दिशा क्या होगी? उस समय सीपीआई के अलावा किसी और संगठन ने इसका विरोध नहीं किया था।

लेकिन ऐसा लगता है कि अब यह आम सहमति भंग हो चुकी है। 76वें स्वतंत्रता दिवस पर जब लाल किले से प्रधानमंत्री ‘धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणतांत्रिक’ भारत को संबोधित कर रहे थे तो उसी दिन प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय लेख लिखकर मांग कर रहे थे कि समय आ गया है कि संविधान को बदल दिया जाना चाहिए और भारतीय संस्कृति, परंपरा, विचार दर्शन पर आधारित नया संविधान बनाने की जरूरत है।

इसके कुछ दिन बाद भाजपा और संघ परिवार के सर्वश्रेष्ठ संत मोहन भागवत जी ने आहिस्ता से कहा कि अब हमें इंडिया की जगह भारत बोलने की आदत डालनी चाहिए।

अमृत काल में नई संसद में सिंगोल राजदंड स्थापित हो चुका है। अब भिन्न कोणों से दो नीति निर्देशक विचार देश के समक्ष रख दिए गए हैं। भागवत जी का बोलना न जुबान की फिसलन होता है और न देबरॉय का यूं ही लिखा गया आलेख। ठंडे दिमाग से सोच समझ कर सही समय पर योजनाबद्ध ढंग से सार्वजनिक बहस में उछाले गए सवाल आने वाले समय में भारत में लोकतंत्र के भविष्य का फैसला करेंगे। इससे दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

एक, कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के नेतृत्व में चल रही सरकार अब अपने वर्गीय आर्थिक राजनीतिक हितों को लोकतांत्रिक परिधि के अंदर साधने में असमर्थ है। दूसरा, लोकतंत्र की बुनियादी परंपरा में आपसी विचार विमर्श से सहमति पर पहुंचने का प्रयास और असफल होने पर अल्पमत बहुमत के द्वारा लिए‌ गये फैसलों को संवैधानिक दायरे में सरकारों द्वारा अनुपालन करना रहा है। (यह बहुमतबाद के ठीक विपरीत है।) जहां असहमति के लिए बराबर का सम्मान था। विपक्ष के नेता का स्तर कैबिनेट मंत्री का होता था। सरकारें निर्धारित लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नहीं करती थी। मोदी राज में यह परंपरा खत्म कर दी गई है।

1952 के पहले महा निर्वाचन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी लोकसभा में 25 सदस्यों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी। पार्टी के पास नियमानुसार उतने सदस्य नहीं थे कि उसके संसदीय दल के नेता एके गोपालन को विपक्ष के नेता का दर्जा मिल सके। लेकिन नेहरू सरकार ने एके गोपालन को सबसे बड़ी पार्टी का नेता होने के कारण सदन में विपक्ष के नेता के बतौर मान्यता दी।

आज 54 सदस्य होने के बाद भी कांग्रेस संसदीय दल के नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा हासिल नहीं है। स्वतंत्रता संघर्ष के विरोध में काम करने के बावजूद हिंदू महासभा और आरएसएस को उस समय देशद्रोही या गद्दार नहीं कहा गया। गांधी जी की हत्या के बाद लिखित आश्वासन देने के बाद संघ से प्रतिबंध हटा लिया गया था।

क्योंकि नवजात भारत की लोकतांत्रिक यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए सभी विचारों और संस्थाओं को विश्वास में लेना और उनकी भूमिका को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सुनिश्चित करने के लिए इसे आवश्यक समझा गया। (सिर्फ कम्युनिस्ट क्रांतिकारी को छोड़कर)

हालांकि नेहरू सहित वामपंथी दल उस समय भी आरएसएस को भारत के लोकतंत्र के लिए उसके विचारों के कारण खतरनाक मानते थे। जो संविधान को अस्वीकार कर चुका था। राजनीति से धर्म को अलग करने की अवधारणा का विरोधी था। लोकतंत्र को खत्म कर हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए कटिबंध था। यही नहीं 1948 में गांधी जी की हत्या और बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखने के “आपराधिक कृत्य” की सूई संघ परिवार की तरफ संकेत कर रही थी। फिर भी हिंदूवादी नेताओं के संवैधानिक परिधि में समायोजन की कोशिश जारी रही।

संघ भारत के किसी भी कानून के तहत पंजीकृत संस्था नहीं है। इस कारण वह कानून के समक्ष जवाबदेह भी नहीं। फिर भी लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा के अनुसार उसे अपने विचारों को प्रचारित प्रसारित करने और संस्थाएं चलाने की स्वतंत्रता हासिल है।

चूंकि लोकतंत्र का मूल आदर्श‌ “वादे-वादे जायते तत्व बोध:” द्वारा मतभेद के निकारण पर केंद्रित है। इसलिए नागरिक को विचार (चाहे वे हिंसा पर आधारित ही क्यों न हों) अभिव्यक्त की पूर्णआजादी है। उसे क्रांति के द्वारा सत्ता को बदल देने की बात कहने की छूट है। जब तक की उसके कार्यों से हिंसा या कानून व्यवस्था का संकट न खड़ा हो गया हो।

लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह न होने के बावजूद संघ परिवार स्थापना दिवस पर शस्त्रों की पूजा करता है। हथियारों का प्रदर्शन और सुबह शाम शाखाओं में स्वयं सेवकों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देता रहा है। लेकिन लोकतंत्र के विराट दायरे में इन गतिविधियों को एक लक्ष्मण रेखा के अंदर स्वीकार्य माना गया है।

इस तरह भारत में लोकतंत्र की यात्रा शुरू हुई। कई बार उसमें उतार-चढ़ाव आए। संकट के बदल घिरे। राजनीतिक पार्टियों और कई संस्थाओं ने लोकतंत्र के निर्धारित सीमा का उल्लंघन किया। सर्वोच्च न्यायालय तक में दाखिल शपथ पत्रों की अनदेखी की और संवैधानिक पदों पर रहते हुए संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन किया। फिर भी लोकतांत्रिक व्यवस्था हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ती रही। लेकिन 2014 में संघनीति भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी पटरी से उत्तर कर दुर्घटनाग्रस्त हो गई। अब उसके परिणाम आने लगे हैं।

मोदी की सरकार बनते ही लोकतांत्रिक परंपराओं और संस्थाओं को सुव्यवस्थित तरीके से खत्म किया जाने लगा। सबसे पहले विपक्ष के नेता के पद को खत्म किया गया। संसद में बहस और विचार विमर्श के स्तर को तो तू-तू मैं-मैं और एक दूसरे की निंदा के स्तर तक गिरा दिया गया। इसकी कमान स्वयं प्रधानमंत्री ने संभाल ली है। सरकार जनता के सवालों के प्रति जवाबदेही से हठपूर्वक भागने लगी। संसद को बहुमत वाद के द्वारा संचालित करने की नई परंपरा शुरू हुई। संसद के आसन पर बैठे हुए व्यक्ति पार्टियों के प्रतिनिधि जैसे व्यवहार करने लगे और विपक्ष की आवाजों को अनसुना किया जाने लगा। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता ने संसद के बाहर प्रेस और दुनिया के सामने यह आरोप लगाए। 2023 का संसद का मानसून सत्र वस्तुतः संसदीय जनतंत्र के कोमा में चले जाने का गवाह बना।

लोकतंत्र के कुछ बुनियादी वसूलों से खिलवाड़

लोकतंत्र के कुछ बुनियादी वसूल रहे हैं। जैसे- पारदर्शिता-लोकतंत्र में संस्थाओं के क्रियाकलाप पारदर्शी होने चाहिए है। जनता द्वारा चुने होने के कारण संसद सहित सभी संस्थाओं की मूल जवाबदेही जनता के प्रति है। इसलिए कुछ खास राष्ट्रीय हितों के क्षेत्रों को छोड़कर सभी संस्थाओं के कामकाज पर यह नियम लागू होते हैं। लेकिन मोदी सरकार ने चुनावी फंड से लेकर पीएम केयर फंड तक कानूनन अपारदर्शी बना दिया। जिसकी जवाबदेही न संसद के प्रति है और न देश के मतदाताओं के प्रति। इस तरह मोदी ने खुद को संसद और संविधान से ऊपर कर लिया।

कुछ कॉर्पोरेट घरानों का विकास जिस तेज गति से हुआ है उस पर सवाल उठना लाजिमी था। दुनिया के खोजी पत्रकारों व संस्थाओं ने परिश्राम पूर्वक अडानी के साम्राज्य के विस्तार के अंदर छिपी गैर कानूनी प्रक्रियाओं का भंडाफोड़ किया तो सरकार ने पर्दादारी की सभी सीमाएं पार कर दी। यहां तक की आनन-फानन में विपक्ष के एक नेता की संसद सदस्यता खत्म कर दी गई। ताजा रिपोर्ट के अनुसार अडानी के साम्राज्य के विस्तार का सीधा संबंध मोदी और भाजपा सरकार से जुड़ा हुआ है।

सेवी सहित सभी नियामक संस्थाओं को अडानी के बचाव में लगा दिया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं पर जिस गति से अडानी का कब्जा हुआ है। वह हैरत अंग्रेज कर देने वाली परिघटना है। एलआईसी सहित सभी वित्तीय संस्थाओं का गला दबाकर उन्हें अडानी के डूबते आर्थिक साम्राज्य को बचाने के लिए मजबूर किया गया।

कॉरपोरेट वर्ल्ड में भी अब मोदी की नीतियों को लेकर विभाजन दिखाई दे रहा हैं। जिससे देश के अंदर आर्थिक युद्ध (कॉर्पोरेट वार) के हालात खड़े हो सकते हैं। (संघ के मुखपत्र पांचजन्य ने तो एक उद्योगपति को देशद्रोही तक कह दिया। संघ ने इसे भारत पर विदेशी हमला बताया।) (मित्र पूंजीवाद को भारतीय संस्करण)। समावेशी लोकतंत्र-सत्तापक्ष ने सचेतन ढंग से विपरीत विचारों को देशद्रोही और भारत विरोधी घोषित किया।

भाजपा सरकार में देश की बहुत बड़ी आबादी को भारत के विकास, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के साथ सामाजिक बहिष्करण का शिकार बनाया जा रहा है। मणिपुर के ताजा हालात भाजपा की इन्हीं नीतियों के स्वाभाविक परिणाम हैं। ऐसा ही सलूक देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह मुसलमानों के साथ हो रहा है। आदिवासी दलित व महिलाओं पर हमले तेज हो गये हैं। यह सामाजिक सहभागिता एकीकरण की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ठीक विपरीत है। हिंदुत्व के अंदर निहित विचार प्रक्रिया के कारण ऐसा हो रहा है। जिसे भाजपा अपराधिक तरीके से लागू कर रही है। इस नीति का सीधा परिणाम सामाजिक टकराव में जगह-जगह दिखाई दे रहा है। जो देश में सामाजिक एकता के बिखरने का स्पष्ट संकेत है।

धर्मनिरपेक्ष संविधान और समाज के विरोध में संघ-भाजपा

धर्मनिरपेक्षता-सुनते ही भाजपा और संघ के कार्यकर्ता उबल जाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने लोकतंत्र के झीने आवरण को उतार कर हिंदू धर्म रक्षक का कवच धारण कर लिया है। मोदी ने हिंदू धर्मस्थलों के विकास और उनके व्यापारीकरण द्वारा हिंदुत्व के विचारों और परंपराओं को राजकीय संस्थाओं और लोकतांत्रिक जीवन पर आरोपित कर दिया है। स्पष्टत: संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की अंत्येष्टि क्रिया हो चुकी है। (मोदी द्वारा राम मंदिर का शिलान्यास और विश्वनाथ कॉरिडोर के समय किया गया प्रदर्शन)।

लोकतंत्र का भीड़ तंत्र में रूपांतरण

विहिप 15 सितंबर से 15 अक्टूबर के बीच 5 लाख धर्म योद्धा तैयार करेगी और 5 लाख गांवों में लव जिहाद, धर्मान्तरण, आतंकवाद आदि को लेकर शौर्य यात्रा निकालेगी। धर्म योद्धाओं का गठन स्पष्ट करता है कि मोदी सरकार के संरक्षण में समानांतर सत्ता के केंद्र विकसित हो रहे हैं। बाबरी मस्जिद का विध्वंस गुजरात नरसंहार और हालिया नूंह की घटना भीड़तंत्र के विजय का संकेत है।

तार्किक और वैज्ञानिक चेतना पर हमला

संघ और भाजपा हर समय अतीत के गौरव गान और हिंदू भारत के सांस्कृतिक महानता के नाम पर भारत में तर्कवादी वैज्ञानिक लोकतांत्रिक व्यक्तियों और संस्थानों पर हमला करते रहे हैं। मोदी ने लोकतांत्रिक चेतना के ऊपर कर्मकांड, परंपरा, आस्था को थोपने का हर संभव प्रयास किया है। जो भारत के संविधान की मूल भावना के विपरीत है। इस उद्देश्य से बौद्धिकों, लेखकों, पत्रकारों, छात्रों, युवाओं, चिंतकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर जेलों में डाला गया। साथ ही हिंदूवादी संगठनों ने हत्याएं तक की। दूसरी तरफ कूढ़ मगज, परंपरावादी, पाखंडी, हत्यारे, बलात्कारी धर्म गुरुओं और नफरती हिंसा फैलाने वालों को भाजपा सरकारों में सहयोग समर्थन और छूट मिलती रही है। (राम रहीम को सातवीं बार पैरोल और बिलकिस बानो के बलात्कारियों की जेल से रिहाई)। यानी मोदी सरकार की प्राथमिकताएं एक पक्षीय है।

संविधान और लोकतंत्र की भावना के विपरीत धर्म सत्ता (नई संसद में सिंगोल राजदंड की स्थापना)-जो मूलतः मध्यकालीन हिंदूराजशाही का प्रतीक चिन्ह है-को संसद में पुनर्स्थापित कर आजादी के बाद लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राज्य पर बनी आम सहमति को भंग कर दिया गया है। (मोदी के मध्यकालीन राजाओं जैसी जीवन प्रणाली और चिंतन का प्रतीक राजदंड)।

लोकतांत्रिक संस्थाओं का विनाश

लोकतंत्र में सत्ता का विकेंद्रीकरण होता है। इसलिए अलग-अलग स्वायत्त संस्थाएं बनती है। जिनके कार्य क्षेत्र निश्चित कानूनी दायरे में निर्धारित रहते हैं। इनके द्वारा राज्य अपने क्रियाकलाप संचालित करता है। यह कार्य विभाजन ही सत्ता के अलग-अलग अंगों में संतुलन बनाए रखता है। इन सभी संस्थाओं की स्वायत्तता को खत्म करते हुए एक व्यक्ति (छोटी सी कोटरी) के प्राधिकार के अधीन सभी संस्थाओं को ला दिया गया है। नौकरशाही के अलग-अलग अंग सीबीआई, ईडी, आईटी, रिजर्व बैंक, पुलिस, पैरा मिलिट्री फोर्सेस तथा निचली संस्थाओं को उनके कानूनी दायित्व के बाहर ले जाकर खुलेआम दुरुपयोग हो रहा है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश इसका स्पष्ट गवाह है। जहां कानून की जगह पर बुलडोजरी न्याय और एनकाउंटरों से कानून व्यवस्था लागू की जा रही है। यह गैर कानूनी एक पक्षीय तरीका देश में कानून के राज्य के अंत की घोषणा है।

मोदी सरकार का संघीय ढांचे पर हमला

राज्यपालों को इस सरकार में जिस तरह से राज्य सरकारों के रोजमर्रा के कामों में हस्तक्षेप करते हुए देखा गया है। वह एक नया प्रयोग है। जिसके द्वारा राज्यों की स्वायत्तता को खत्म करने की कोशिश हो रही है। जिस कारण राज्य व केंद्र टकराव बढ़ रहा है। जीएसटी जैसे अनेक कानून बनाए गए हैं। जो राज्यों के वित्तीय स्वायत्तता में सीधा हस्तक्षेप है।

जम्मू कश्मीर के राज्य का दर्जा खत्म करने के बाद दिल्ली भी इसका शिकार हो चुका है। मणिपुर में हम जो कुछ देख रहे हैं वह संघात्मक भारत की शव परीक्षा ही है। ईडी, सीबीआई, आईबी और राज्यपालों द्वारा राज्यो में हस्तक्षेप इस बात का प्रतीक है कि भारत के संघात्मक ढांचे को खत्म कर विपक्ष रहित भारत बनाने का खेल चल रहा है। वस्तुत: यह केंद्रीकृत सैन्य राज्य बनाने की तैयारी है। जो संघ परिवार की राज्य की अवधारणा के अनुकूल है।

सूचना और अभिव्यक्ति के अधिकार पर हमला

भारत एक ऐसा लोकतांत्रिक देश बन गया है। जहां मीडिया की स्वायत्तता खत्म कर उसे विपक्ष के खिलाफ अभियान चलाने में लगा दिया गया है। मीडिया सरकार के दिन रात गुणगान के साथ‌ नफरती झूठी खबरों को फैलाने घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश कर अल्पसंख्यकों के दानवीकरण में पूरा दिन खर्च कर देता है। राज्य अत्याचार और दमन को छुपाते हुए कमजोर गरीब वर्गों और जनता के बुनियादी सवालों से ध्यान हटाने के लिए वह दिन रात सरकार के एजेंडे पर काम करता है। शायद ही दुनिया के किसी लोकतांत्रिक देश में ऐसा गुलाम मीडिया हो।

संविधान प्रदत्त नागरिक के मौलिक अधिकार अभिव्यक्त की आजादी दांव पर लगी है। आस्था, धर्म और विश्वास के नाम पर नागरिकों के जुबान को बंद करने में सरकार और न्यायालयों तक का दुरुपयोग हो रहा है। सरकार की नीतियों की समीक्षा करना अपराध है। इसको रोकने के लिए सरकार के हमले के साथ समानांतर गिरोह खड़े हो गए हैं। जो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरनाक स्थिति है।

न्यायपालिका को दबाव में रखने की रणनीति

एक चुने हुए मुख्यमंत्री ने कहा की वकील फैसला लिख कर ले आते हैं। इसी क्रम में आपको याद होगा कि जस्टिस लोया की मौत के बाद भी यह सवाल उठा था और कपिल सिब्बल ने प्रेस कांफ्रेंस करके घटनाक्रम को राष्ट्र के समक्ष रखा था। यानी निचले स्तर पर न्यायपालिका सरकारों के दबाव में हैं। गुजरात हाई कोर्ट द्वारा मानहानि के मामले में राहुल गांधी को दिए गए अधिकतम सजा पर सर्वोच्च न्यायालय ने आश्चर्य व्यक्त किया था। हम देख रहे हैं किस तरह से न्यायालय को प्रतिबद्ध बनाने के लिए मोदी सरकार नए-नए पैतरें चल रही है। वह न्यायपालिका को चुनी हुई सरकार के अधीन लाना चाहती है। उसका कहना है कि हम जनता द्वारा निर्वाचित है। इसलिए हमारे किसी काम में न्यायपालिका का दखल स्वीकार नहीं है।

चुनाव आयोग को कमजोर करने का विधेयक

इसी क्रम में हम चुनाव आयोग की दयनीय दशा पर भी नजर डाल सकते हैं। जिसका स्वायत्त और निष्पक्ष होना लोकतंत्र की वैधता के लिए जरूरी होता है। हमने इसी मानसून सत्र में देखा कि चुनाव आयुक्त के नियुक्ति के लिए मोदी सरकार किस ढिठाई के हद तक उतर गई थी। अब चुनाव आयोग अन्य संस्थाओं की तरह बीजेपी की शाखा के रूप में काम करेगा।

संसद के विशेष सत्र पर उठ रहे सवाल

मोदी सरकार मोदी सरकार ने 18 से 23 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र आहूत किया है। प्रेक्षकों का अनुमान है कि इस विशेष सत्र में कुछ ऐसा होने जा रहा है जो भारतीय लोकतंत्र के लिए टर्निंग पॉइंट होगा। इस सत्र में मानसून सत्र के दौरान लाए गए सभी विधेयक कानून बन जाएंगे। इस सत्र के बाद भारत में जनतंत्र वैसा निर्बाध काम नहीं कर सकेगा जैसा अभी तक करता रहा है। क्योंकि अमृत काल के अमृत पर्व पर प्रधानमंत्री घोषणा कर चुके हैं कि अधिकारों की बात बहुत हो चुकी। अब हमें कर्तव्य पथ पर चलना होगा।

आम सहमति के भंग का काल है अमृतकाल

अमृतकाल भारत के शासक वर्ग के बीच आम सहमति के भंग होने का काल है। भारत जैसे सांस्कृतिक सामाजिक वैचारिक धार्मिक जातीय भाषाई नस्लीय भिन्नता वाले देश जिसमें अनेकों जीवन प्रणाली क्षेत्रीय भौगोलिक विविधता मौजूद हो। उसमें लोकतांत्रिक सहमति और विश्वास ही राष्ट्रीय एकता समाजिक सौहार्द और शांति की आवश्यक शर्त है। अगर जातीय धार्मिक भाषाई विविधता को उचित सम्मान नहीं दिया गया। किसी एक विचार भाषा संस्कृति धार्मिक विश्वासों को थोपने की कोशिश हुई। तो निश्चय ही 1947 के सबसे बुरे काल में हमारे पूर्वजों ने अथक परिश्रम करके भारत राष्ट्र के निर्माण के लिए सहमति के जिन बिंदुओं और मूल्यों को संविधान द्वारा सूत्रबद्ध किया था। वह खतरे में पड़ जाएंगे। जो हमारे मुल्क के लिए एक त्रासदी होगी।

मोदी सरकार ने संविधान को बदलने का संकेत देकर और मोहन भागवत के “भारत कहने की आदत डालने” के सुझाव पर जिस तत्परता से सरकार ने जी-20 के समय “प्रेसिडेंट ऑफ भारत” के नाम से निमंत्रण जारी कर संघ प्रमुख के प्रति आस्था और प्रतिबद्धता प्रदर्शित की है। उसने संविधान द्वारा भारत में बनी शासक वर्गीय एकता को भंग होने का ऐलान कर दिया गया है।

अगर एक शब्द में कहे तो हिंदुत्व कॉर्पोरेट फासीवाद भारत के संवैधानिक संघात्मक गणतंत्र को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ा चुका है। हो सकता है नई संसद के उद्घाटन‌ के बाद जनवरी में राम मंदिर के उद्घाटन तक यह प्रक्रिया संपन्न कर ली जाएगी।

अब देखना है कि “इंडिया दैट इज भारत” जो संविधान का पहला नीति उद्घोष है। उस पर हो रहे हमले से “जुड़ेगा भारत -जीतेगा इंडिया” नामक आवाहन कैसे निपटता है। संसद से लेकर सड़कों तक चल रहे जन संघर्षों द्वारा निर्मित हो‌ रही जन एकता के समन्वय से इंडिया गठबंधन (INDIA Alliance) 2024 के चुनावी मैदान में कितना सशक्त प्रतिरोध कर पता है। इसी पर भारत के लोकतंत्र तथा राष्ट्रीय एकता का भविष्य निर्भर करता है।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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