Saturday, April 27, 2024

प्रेस की आज़ादी पर मोदी के अंतिम हमले का आगाज हो चुका है

19 अक्तूबर, 2020 की शाम थी, कश्मीर टाइम्स के रिपोर्टर और फोटोग्राफर अपने काम के लिए निकले थे, सरकारी अधिकारी पुलिस के साथ श्रीनगर में अखबार के दफ्तर में घुसे और स्टाफ को बाहर निकालकर दरवाज़े पर ताला जड़ दिया जो आज तक लगा हुआ है। मेरे लिए यह छापा एक सज़ा थी, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों पर सवाल उठाने की हिम्मत करने की।

अखबार, जिसकी मैं कार्यकारी संपादक थी, 1954 में मेरे पिता ने स्थापित किया था और तब से ही जम्मू कश्मीर राज्य की स्वतंत्र आवाज़ था। इस अवधि में युद्ध और सैन्य नियंत्रण के कई कठिन दशक शामिल हैं। लेकिन यह शायद पीएम मोदी के समय में नहीं बच पाएगा। उनकी दमनकारी मीडिया नीतियां कश्मीर में पत्रकारिता को तबाह कर रही हैं मीडिया संगठनों को डरा-धमकाकर सरकार के भोंपू बना रही हैं और लगभग 1 करोड़ 30 लाख की आबादी वाले क्षेत्र में सूचना के अभाव का माहौल पैदा कर रही हैं।

अब पीएम मोदी ऐसे कदम उठा रहे हैं जिससे यह विक्षोभकारी मॉडल राष्ट्रीय स्तर लागू हो सकता है। उनके हिंदू अंधराष्ट्रवादी अभियान, जिसने मुस्लिमों के खिलाफ असहिष्णुता और हिंसा को नॉर्मलाइज़ कर दिया है, से कभी बिंदास रही भारत की पत्रकारिता काफी दबाव में है, पत्रकारों की निगरानी की जा रही है, पत्रकारों को जेलों में डाला जा रहा है और सरकार को लुभाने वाली कवरेज के लिए हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है। जनवरी में जो डिजिटल मीडिया दिशानिर्देशों में संशोधनों का मसौदा लाया गया है, उसके अनुसार सरकार ऐसी कोई भी सामग्री ब्लॉक कर सकेगी जो उसे पसंद नहीं है। दूसरे शब्दों में, भारत का बाकी हिस्सा भी कश्मीर जैसा ही दिखने लगेगा।

2019 में नरेंद्र मोदी की सरकार ने अचानक बिना क्षेत्र के लोगों की राय के कश्मीर का स्वायत्त दर्जा समाप्त कर दिया था, हज़ारों सैनिक भेज दिये, इंटरनेट सेवा ठप्प कर दी। तालाबंदी करीब छह महीने चली और सैकड़ों पत्रकारों को अपनी खबरें फाईल करने के लिए इकलौते निर्धारित स्थान पर कतार लगाने के लिए मजबूर कर दिया, जहां इंटरनेट पहुंच मुहैया कराई गयी थी। हर किसी के पास केवल पंद्रह मिनट होते थे। इंटरनेट स्पीड तब से ही काफी धीमी है।

अगले साल नये नियम लाये गये जो अधिकारियों को कश्मीर में मीडिया सामग्री को “फेक न्यूज़ नकल, अनैतिक या राष्ट्रद्रोही” करार देने और पत्रकारों व प्रकाशनों को दंडित करने में सक्षम बनाते हैं। विडंबना देखिये, नियमों का उद्देश्य “पत्रकारिता के उच्चतम मापदंडों को बढ़ावा देना” बताया गया।

पत्रकारों को पुलिस की तरफ से बुलाना, पूछताछ करना और उन्हें आयकर उल्लंघन, आतंकवाद या अलगाववाद के आरोप मढ़ने की धमकियां देना आम हो गया। कई प्रमुख पत्रकार हिरासत में लिये गये हैं या कारावास की सज़ा सुनाई गई है।

हम डर के साये में काम कर रहे हैं। मैंने 2021 के अंत में युवा पत्रकार साजिद गुल से बात की जिसे उनकी रिपोर्टिंग को लेकर परेशान किया जा रहा था। उन्होंने मुझे बताया कि गिरफ्तारी की आशंका से-यदि कभी तुरंत निकलने की नौबत आये तो-वह रात को भी पूरी तरह कपड़े पहनकर सोते हैं और जूते बिस्तर के पास रखते हैं।

यह कश्मीर में असाधारण बात है जहां परंपरागत तौर पर जूते घर में प्रवेश से पहले उतार दिये जाते हैं। उन्हें पिछले साल जनवरी में गिरफ्तार किया गया और आज भी वह हिरासत में ही हैं। कई पत्रकारों ने सेल्फ सेंसरशिप का सहारा लिया है या पत्रकारिता ही छोड़ दी है। कुछ ने गिरफ्तारी की आशंका से देश छोड़ दिया है। भारत सरकार ने कम से कम 20 अन्य को नो-फ्लाई सूची में रखा है ताकि वह देश न छोड़ सकें।

कश्मीर में पत्रकारिता हमेशा जोखिमकारी रही है। पाकिस्तान और भारत दोनों पहाड़ी क्षेत्र पर दावा ठोंकते हैं, जो दशकों से युद्ध, अलगाववादी उग्रवाद से ग्रसित है। पत्रकार बीच में फंस गये हैं और भारतीय सुरक्षा बल व उग्रवादी, जो खबरों पर नियंत्रण चाहते हैं, इन्हें डराते-धमकाते हैं। 1990 से 2018 के बीच कम से कम 19 पत्रकार मारे गये थे।

इसके बावजूद कश्मीरी पत्रकारिता फलती-फूलती रही। अखबार और वेबसाइट बढ़ते रहे और प्रतिभाशाली युवा खोजी पत्रकारों की नयी पीढ़ी ने बेहतरीन अनुसंधान के साथ जनहितकारी रिपोर्टिंग, जो अक्सर सरकार को सच्चाई का आईना दिखाती थी, के साथ कश्मीरी समस्याओं को देखने का नया नज़रिया दिया।

नरेंद्र मोदी की सरकार के तहत यह सब गायब हो गया, जिनकी सरकार का उद्देश्य किसी भी अलगाववादी आवाज़ या जो कश्मीर में सुलह-समझौते या बातचीत से समाधान की वकालत करते हैं, की आवाज़ को शांत करना है। कश्मीरी अखबार बहुत हद तक सरकारी विज्ञापनों और मीडिया रियायतों पर निर्भर हैं और सरकार इसी का फायदा उठाती है और सुनिश्चित करती है कि अखबार केवल सच का आधिकारिक रूप से मंज़ूर संस्करण प्रस्तुत करें। आज कुछेक मीडिया संस्थान ही सरकारी नीति पर सवाल उठा पाते हैं और कई अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए खुलेआम सरकारी भोंपू बन चुके हैं।

मेरा अपना अखबार मुश्किल से बचा हुआ है। 2019 में मैंने इंटरनेट शटडाऊन को चुनौती देते हुए अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था। जाहिर है प्रतिशोध की कार्यवाही के तौर पर सरकार ने हमारा श्रीनगर स्थित कार्यालय सील किया। हमारे कई पत्रकार छोड़कर चले गये हैं और हमारा कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुआ है। आज जब मैं सुझाव देती हूं कि जनता के मुद्दों पर हमें आक्रमक तरीके से खबरें देनी चाहिए तो मुझे अपने बचे-खुचे घबराये स्टाफ से प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है।

जनता, जिसे उनके यहां क्या हो रहा है इस बारे में पर्याप्त सूचना नहीं मिलती या फिर गलत सूचना मिलती है, के साथ कश्मीर पर सूचना के अभाव के माहौल का साया है। सरकार को रास आने के लिए महत्वपूर्ण समाचार दबाये जाते हैं, हल्के कर पेश किये जाते हैं या तोड़मरोड़कर पेश किये जाते हैं।

जब सैयद अली शाह जिलानी, अलगाववादी मुहिम के बड़े नेता, की 2021 में मौत हुई, खबर कश्मीर में दबा दी गयी या फिर संक्षेप में निबटा दिया गया। पिछले महीने सरकार ने हज़ारों घरों, जो अधिकारियों के अनुसार सरकारी ज़मीन पर अवैध तरीके से बनाए गये थे, पर बुलडोज़र चलाने का अभियान शुरू किया। कश्मीर के एक प्रमुख अखबार ने इसे बेनामी “प्रभावशाली ज़मीन हड़पुओं” के खिलाफ कड़ी कार्यवाही के रूप में पेश किया। अचानक बेघर कर दिये गये गरीब निवासियों या उन बाशिंदों, जिनका दावा था कि स्वामित्व के वैध दस्तावेज उनके पास थे, के बारे में एक शब्द नहीं था।

अज्ञानी जनता और किसी तरह की समीक्षा व जवाबदेही से मुक्त सरकार लोकतंत्र के लिए खतरा है। लेकिन पीएम मोदी यह देश भर में दोहराना चाहते हैं। डिजिटल मीडिया के लिए प्रस्तावित संशोधन जो जनवरी में लाये गये हैं, कश्मीर में लागू किये गये उपायों जैसे ही हैं, सरकारी फैक्ट चेकर्स को ऑनलाइन सामग्री को “फेक न्यूज़” करार देने की ताकत देने वाले।

इन संशोधनों की घोषणा के चंद दिनों बाद सरकार ने ऑनलाइन मंचों को प्रधानमंत्री की आलोचना करने वाले बीबीसी वृत्तचित्र “इंडिया: द मोदी क्वेश्चन” के लिंक ब्लॉक करने का आदेश दिया। भारतीय कर अधिकारियों ने ब्रिटिश ब्रॉडकास्टर के भारतीय कार्यालयों पर छापेमारी की। ऐसे छापों का इस्तेमाल मीडिया में आलोचनात्मक स्वरों को दबाने के लिए लगातार किया जा रहा है।

2014 से जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आये, उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से भारत के लोकतांत्रिक आदर्शों को खत्म किया है, अदालतों, सरकारी मशीनरी का मनमाना इस्तेमाल कर।

मीडिया उन चंद अंतिम संस्थाओं में शामिल है जो भारत को अधिनायकवाद से बचा सकती हैं। लेकिन अगर नरेंद्र मोदी सूचना नियंत्रण के कश्मीर मॉडल को बाकी देश में लागू करने में सफल हो जाते हैं तो खतरे में सिर्फ प्रेस की आज़ादी ही नहीं होगी बल्कि भारतीय लोकतंत्र भी खतरे में पड़ जायेगा।

(कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन के न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित लेख का अनुवाद महेश राजपूत ने किया है।)

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