Wednesday, April 24, 2024

नेहरू ने कभी नहीं रखा था पटेल को कैबिनेट सूची से बाहर

नई दिल्ली। सरकारी अफसर और एक दौर में देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के बेहद खास रहे वीपी मेनन की एक जीवनी प्रकाशित हुई है। नारायणी बसु की लिखी इस जीवनी में कहा गया है कि सरदार पटेल को नेहरू के कैबिनेट के लिए बनी पहली सूची से वास्तव में बाहर रखा गया था। इस दावे का हवाला देते हुए वरिष्ठ पत्रकार करन थापर ने 2 फरवरी को अपनी एक टिप्पणी में कहा कि किताब कम या ज्यादा इस बात को लेकर अभी तक जो चीजें हवाओं में थी उसकी पुष्टि करती है।

एक ऐसे समय में जबकि पटेल को नेहरू के खिलाफ खड़ा करना नरेंद्र मोदी सरकार का सबसे महत्वपूर्ण काम हो गया है। उसमें बसु की किताब में इस खास बिंदु पर लोगों का चर्चा करना कोई अचरज भरी बात नहीं है।

इसका दावा सबसे पहले 1969 में एचवी होडसन ने अपनी किताब ‘दि ग्रेट डिवाइड: ब्रिटेन, इंडिया, पाकिस्तान’ में किया था। मेनन के ब्रायोग्राफर बसु का ऐसा कहना है। और उसमें उन्होंने मेनन के साक्षात्कार का हवाला दिया था। इसमें कहा गया है कि मेनन के होडसन को बताए मुताबिक उन्हें पता चला था कि नेहरू ने पटेल को बाहर कर दिया है। उसके बाद उन्होंने भारत के आखिरी वायसराय को इसका नतीजा भुगतने की चेतावनी दी थी।

बाद में उनके कहने पर माउंटबेटन ने महात्मा गांधी से मुलाकात की और फिर सरदार का नाम आखिर में शामिल किया गया। इस सिलसिले में बसु माउंटबेटन द्वारा होडसन को लिखे गए एक पत्र का भी हवाला देते हैं। जिसमें कहा गया था कि ‘यह कहानी मेरे भीतर एक बेहोशी वाली घंटी की तरह बजती है…..यह उतनी गरम स्टोरी थी कि मैंने शायद इसको एक चाय के समय नेहरू से जिक्र किया। साथ ही कहा कि इसे कहीं भी दर्ज करने की जरूरत नहीं है। और शायद यहां तक कि किसी से कहने की भी नहीं।’

पत्र जिन्होंने सत्य का खुलासा किया

आजकल देश में क्रोनोलॉजी को समझने पर बहुत ज्यादा बल दिया जा रहा है। इसलिए आइये सीधे उसी पर चलते हैं। बसु लिखते हैं: ‘अगस्त के पहले सप्ताह में नेहरू ने उन लोगों की पहली आधिकारिक सूची पेश की जिन्हें वह स्वतंत्र भारत की पहली कैबिनेट में रखकर सेवा लेना चाहते थे। सूची में सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर होना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं था।’ हम एक तथ्य के तौर पर जानते हैं कि नेहरू ने इस सूची को 4 अगस्त 1947 को माउंटबेटन को सौंपी। लेकिन हकीकत यह है कि सूची में वास्तव में सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर था। अब हम पीछे चलकर घटनाओं की पूरी कड़ी की तलाश कर सकते हैं।

पहली बात, बसु 28 जुलाई को संपन्न माउंटबेटन की एक स्टाफ मीटिंग का हवाला देते हैं जहां वीपी मेनन इस बात को नोट करते हैं कि उन्हें उम्मीद थी कि “यह प्रतिभाशाली लोगों का मंत्रालय होगा और शायद इसमें ढेर सारे युवा शामिल किए जाएंगे। फिर भी ऐसा लगता है कि पंडित नेहरू के लिए अपने प्रति निष्ठा रखने वालों को भूल पाना बहुत कठिन हो रहा है।” युवा मंत्रियों को शामिल किए जाने और अपने पुराने सहयोगियों के प्रति नेहरू की निष्ठा के मामले में मेनन की चिंता को माउंटबेटन ने नेहरू के साथ उस साझा किया जब 1 अगस्त को दोनों की मुलाकात हुई। (माउंटबेटन 30-31 जुलाई 1947 को कोलकाता में थे।)

उनके बीच बातचीत के पूरे विवरण की कोई जरूरत नहीं है। माउंटबेटन ने पूरी बेरुखी से नेहरू को बताया कि ‘जब तक वह (नेहरू) राजगोपालाचारी और मौलाना आजाद जैसे ढेर सारे बोझ को उतार नहीं फेंक देते, वह खुद को भीषण खतरे में डालेंगे।’ पटेल पर कोई बहस नहीं हुई थी। इसके विपरीत माउंटबेटन ने 1 अगस्त को रिपोर्ट किया कि कैबिनेट के गठन में पटेल सीधे शामिल थे: “पटेल पूरी तरह से मेरे पक्ष में खड़े हो गए और अब वो रात-दिन बैठकर एक बेहतर कैबिनेट के निर्माण में जुट गए हैं।”

वास्तव में नेहरू नई कैबिनेट के निर्माण में पटेल के साथ मिलकर काम कर रहे थे। 30 जुलाई को उन्होंने पटेल को लिखा कि कानून मंत्रालय के लिए उन्होंने अंबेडकर से मुलाकात की है और उन्हें तैयार कर लिया है। उन्होंने यूपी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रफी अहमद किदवई से भी बात की है। नेहरू ने पटेल से गुजारिश की कि वह श्यामा प्रसाद मुखर्जी और आरके शणमुखम चेट्टी (इनमें से कोई कांग्रेस का नहीं था) और राजा जी से बात कर लें (पश्चिम बंगाल का गवर्नर बनने के लिए)। 1 अगस्त को नेहरू ने जॉन मथाई को पत्र लिखा कि ‘जैसा कि आप जानते हैं अपवाद स्वरूप राजा जी को छोड़कर जिन्हें बंगाल का गवर्नर बनना है, कैबिनेट के सभी सदस्य (पाकिस्तानियों को अलग कर) बरकरार रहेंगे।’

उसी दिन 1 अगस्त, 1947 को नेहरू ने पटेल को एक छोटा पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने कहा कि ‘जैसा कि कुछ हद तक औपचारिकताओं का निभाया जाना जरूरी है, मैं आपको नई कैबिनेट में शामिल होने के लिए आमंत्रित करता हूं। यह लिखा जाना एक हद तक जरूरत से ज्यादा महत्व रखता है क्योंकि आप कैबिनेट के सबसे मजबूत खंभे हैं।’ पटेल का नेहरू को दिया गया 3 अगस्त का उत्तर भी कोट करने लायक है।

उन्होंने नेहरू के पत्र के जवाब में कहा कि “हमारा एक दूसरे के लिए बगैर किसी गैप के लगातार 30 वर्षों का लगाव, प्रेम और कामरेडशिप किसी औपचारिकता के न होने की स्वीकार्यता है। मैं आपके निर्देशों के मुताबिक सेवा के लिए तैयार हूं, और मैं उम्मीद करता हूं कि मेरा बाकी जीवन बगैर किसी सवाल के पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ उस काम के लिए आप के साथ खड़ा रहे जिसके लिए भारत में किसी और के मुकाबले आपने ज्यादा बलिदान दिया। हमारी जोड़ी अटूट है और उसी में हमारी ताकत निहित है।”

माउंटबेटन की अविश्वसनीयता और मेनन की गलती

यह आपसी विश्वास का बिस्तर और इच्छित साझेदारी का नतीजा था जो तमाम मतभेदों के बाद भी नेहरू और पटेल का रिश्ता जारी रहा। पटेल की सहमति हासिल करने के बाद ही नेहरू ने 4 अगस्त को कैबिनेट मंत्रियों की सूची माउंटबेटन को भेजी। पटेल का नाम न केवल कैबिनेट सूची में सबसे ऊपर था बल्कि वो उप प्रधानमंत्री होने वाले थे।

लेकिन वीपी मेनन के होडसन को किए गए दावे के बारे में क्या कहा जाए? इसकी सबसे रक्षात्मक व्याख्या यह है कि उन्होंने पटेल को बाहर रखने के एक बेसिर पैर की अफवाह को पकड़ा और फिर उसे माउंटबेटन से जोड़ दिया। इस बात का तिनके भर का कोई पुरातात्विक दस्तावेजी प्रमाण नहीं है कि माउंटबेटन ने गांधी या फिर नेहरू के सामने कोई इस तरह का मामला लाया हो। बड़बोलापन माउंटबेटन के चरित्र का केंद्रीय हिस्सा था। वह यह बताने का कोई भी मौका नहीं खोते थे कि अपने आस-पास से जुड़े विकास के वह मुख्य निर्माता थे।

उदाहरण के लिए 1 अगस्त, 1947 के अपने उसी नोट में माउंटबेटन ने दावा किया था कि उन्होंने नेहरू को कश्मीर की यात्रा करने से मना किया था और यह कि पटेल ने एक मित्र को बताया था कि ऐसा करके ‘मैंने (माउंटबेटन) शायद नेहरू का राजनीतिक कैरियर बचा लिया।’ जैसा कि नेहरू के साथ कैबिनेट में युवा प्रतिभाओं को लाने संबंधी अपनी बातचीत में माउंटबेटन ने उछलकर कर कहा: सनसनी!!! इसलिए यह किसी के लिए भी समझना कठिन नहीं है कि माउंटबेटन अपने कहने पर पटेल को नेहरू कैबिनेट में हिस्सा दिलाने जैसी इस तरह की कोई महत्वपूर्ण बात खुद तक सीमित रखते।

इस मामले में माउंटबेटन की अविश्वसनीयता एक दूसरे स्रोत से भी प्रमाणित होती है। यहां तक कि उन्होंने 16 मार्च 1970 को होडसन को लिखे एक पत्र में इस एपिसोड को याद करते हुए नेहरू के जीवनी लेखक सर्वपल्ली गोपाल को 28 मई 1970 को बताया था कि जब उन्होंने इस अफवाह के बारे में सुना तो उसे नेहरू से जिक्र करना भी जरूरी नहीं समझा। इस साक्षात्कार की ट्रांसस्क्रिप्ट गोपाल के प्राइवेट पेपर्स में आज भी उपलब्ध है।

और यह किसी की समझ से परे है कि एक नौकरशाह वीपी मेनन की तर्ज पर क्या कांग्रेस के सदस्य भी इसे आसानी से पचा जाते? पटेल न केवल कैबिनेट के सबसे मजबूत स्तंभ थे बल्कि उस पार्टी के भी जिसके नेहरू अध्यक्ष थे। नेहरू द्वारा उनको छोड़े जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। और जैसा कि पटेल ने उन्हें भरोसा दिलाया था उनकी पार्टनरशिप बिल्कुल अटूट साबित हुई। 

(दि प्रिंट में अग्रेंजी में प्रकाशित श्रीनाथ राघवन के लेख का यह अनुवाद है।)

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