Friday, April 19, 2024

हजार साल बाद हमारे राजनीतिक इतिहास की क्लास

समय आज से एक हजार साल बाद की कोई शाम। एक रोबोटिक गुरु किशोर वय के विद्यार्थियों को शिक्षाप्रद कहानियों के माध्यम से देश के राजनीतिक इतिहास का ज्ञान करा रहे हैं और साथ ही व्यवहारिक राजनीति का ऑनलाइन प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। सभी विद्यार्थी अपने अपने मोबाइल पर तल्लीन होकर उनकी यांत्रिक और कदरन तीखी आवाज़ में यह रोचक वृत्तांत सुन रहे हैं। रोबोटिक गुरु कहते हैं- मरु प्रदेश का निर्वाचित राजा पदभार ग्रहण करने के बाद से ही संकट में था। संकट का कारण था एक युवा तुर्क जिसका मानना था कि मरु प्रदेश पर इससे पहले शासन करने वाली रानी को अपदस्थ करने और जनता का विश्वास जीतने में उसकी निर्णायक भूमिका, परिश्रम और साहस को नजरअंदाज करते हुए वर्तमान राजा को राज गद्दी सौंप दी गई थी।

कारण संभवतः यह था कि वयोवृद्ध वर्तमान राजा का उस परिवार से निकट संबंध था जो देश के उस अग्रणी राजनीतिक दल पर एकाधिकार रखता था जिससे वर्तमान राजा और उसका युवा प्रतिद्वंद्वी सम्बद्ध थे। यदि तुममें से कोई अभिनय और निर्देशन में रुचि रखता हो तो वह इस कथा पर आधारित कोई धारावाहिक भी बना सकता है। यह तत्कालीन भारतीय राजनीति के घर घर की कहानी है। इसमें तीन परिवार हैं, वयोवृद्ध राजा और लोकसभा चुनावों में पराजित उसका बेटा, अपने स्वर्गीय पिता के राजनीतिक संबंधों का लाभ उठाता युवा तुर्क और कांग्रेस दल का शीर्ष परिवार जो इस सत्ता संघर्ष को शांत करने की नाकामयाब कोशिश कर रहा है।

कथा का क्रम टूट गया है क्योंकि एक जिज्ञासु किशोर के कई सवाल रोबोटिक गुरु के सामने रखी स्क्रीन पर उभरने लगते हैं-  आपने निर्वाचित राजा की अभिव्यक्ति का प्रयोग किया, यह कुछ अटपटा नहीं है क्या? हमें बताया गया है कि लोकतंत्र में चुनाव होते हैं और उसमें जो जनप्रतिनिधि निर्वाचित होते हैं वे मुख्य सेवक और प्रधान सेवक का चयन करते हैं। निर्वाचित भी और राजा भी – यह कैसे संभव है कृत्रिम प्रज्ञा शिरोमणि? रोबोटिक गुरु ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहना प्रारंभ किया – तुम एक संस्कारवान बालक हो, तभी इस तरह का सैद्धांतिक प्रश्न कर रहे हो। तुम्हें यही पढ़ाया गया है न कि लोकतंत्र में जनता ऐसे योग्य लोगों को चुनती है जो रात दिन एक कर उसकी सेवा करते हैं, उसकी समस्याओं को हल करते हैं और उसका विकास करते हैं। किंतु भारतीय लोकतंत्र का व्यवहारिक रूप एकदम अलग था।

यहां चुनाव जीतना लॉटरी लगने जैसा माना जाता था। टिकट प्राप्त करने के लिए भावी उम्मीदवार पार्टी दफ्तर में बोलियां लगाते थे। और चुनाव जीतने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने को तत्पर रहते थे। साम-दाम-दंड-भेद का खुलकर प्रयोग होता था। हिंसा का आश्रय और बल प्रयोग भी आम थे। प्रत्येक उम्मीदवार हिंसा के लिए बाहुबलियों का सहारा लेता था।  कई बार बाहुबली खुद ही उम्मीदवार बन जाते थे क्योंकि दूसरों को जिताते-जिताते उनमें यह समझ आ जाती थी कि चुनावी सफलता के सूत्रधार वही हैं। लोकसभा और विधान सभाओं में उनकी अच्छी खासी संख्या थी। बहरहाल इतनी जद्दोजहद चुनाव जीतने के लिए भला क्यों की जाती थी? क्या तुमने इस विषय में कभी कुछ सोचा है? चुनाव के बाद विजेताओं के ऐश्वर्य का काल प्रारंभ होता था।

जितना खर्च चुनावों में किया गया होता उससे सैकड़ों गुना अधिक कमाई! चारों ओर सुरक्षा कर्मियों का घेरा! बंगलों में काम करने के लिए निरीह कर्मचारी- जिनकी तुलना तुम दास-दासियों से कर सकते हो! प्रशस्ति गान के लिए टीवी चैनलों के एंकर!  शत्रुओं को बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया की असामाजिक ट्रोल सेनाएं! प्राचीन काल के चारण और भाट कौशल एवं समर्पण के मामले में गोदी मीडिया कहे जाने वाले छवि चमकाऊ रणनीतिकारों के सामने कुछ भी नहीं थे। चुनावों में विजय प्राप्त करने के बाद पुनः मंत्री पद के लिए और कई बार मुख्य सेवक या प्रधान सेवक पद के लिए भी बोलियाँ लगती थीं। बड़े-बड़े व्यापारिक घराने अपने हितों के लिए काम करने वाली सरकार बनाने हेतु इन बोलियों में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे।

इस प्रकार मुख्य या प्रधान सेवक और उसकी मंत्रिपरिषद के सदस्य अपने पूरे कार्यकाल में जनता से कटे हुए, सुख भोगों का आनंद लेने वाले शासकों का रूप ले लेते थे जो बड़े बड़े देशी-विदेशी व्यापारिक घरानों की उन्नति के लिए कार्य करते थे। इसी कारण मैंने इन्हें निर्वाचित राजा कहा। आशा है कि तुम्हारी शंका का समाधान हो गया होगा। मैं तुम्हारे लिए चिंतित हूँ, तुममें अभी भी पुराने संस्कारों का अवशेष बचा हुआ है। तुम जिस युग में हो वह संस्कार और सिद्धांत शून्यता का युग है। मैं जेनेटिक इंजीनियरिंग के विशेषज्ञों से चर्चा करूँगा और उनसे तुम्हें संस्कार मुक्त करने का आग्रह करूँगा जिससे तुम निर्बाध रूप से विकास कर सको। 

इस प्रकार छात्र की जिज्ञासा का समाधान कर रोबोटिक गुरु ने अन्य विद्यार्थियों से आग्रह किया- यदि किसी अन्य को कोई जिज्ञासा हो तो पूछ लो अन्यथा मैं कथा आगे बढ़ाऊँ! तत्काल एक किशोरी छात्रा का प्रश्न स्क्रीन पर आया-  आपने इस कथा को तीन परिवारों की कहानी बताया। हे संवेदनाशून्य ज्ञान के पुंज! मुझे समझाएं कि लोकतंत्र में तो हर किसी के लिए समान अवसर होता है, ऐसा हमें बताया गया है फिर यह परिवार कहां से आ गए?

रोबोटिक गुरु ने कहा- यह तुमने अच्छा प्रश्न किया। भारतीय लोकतंत्र कहने को तो लोकतंत्र था। लेकिन नायक पूजा और परिवारवाद जैसी विशेषताएं इसे राजतंत्र के निकट ला खड़ा करती थीं। मैं तुम्हें उदाहरण देकर बताता हूँ। यदि तुम छोटे राज्यों की बात करो तो मुलायम-शिवपाल-अखिलेश-डिम्पल-अपर्णा, लालू-राबड़ी-तेजस्वी-तेजप्रताप, रामविलास पासवान-चिराग पासवान, बाल ठाकरे-उद्धव ठाकरे-राज ठाकरे-आदित्य ठाकरे, शरद पवार-अजित पवार-सुप्रिया सुले, बीजू पटनायक-नवीन पटनायक, देवीलाल-ओमप्रकाश चौटाला-अजय चौटाला-दुष्यंत चौटाला, चौधरी चरण सिंह-अजित सिंह-जयंत चौधरी, प्रकाश सिंह बादल-सुखबीर सिंह बादल- हरसिमरत कौर बादल, शिबू सोरेन-हेमंत सोरेन, करुणानिधि-स्टालिन-अलगिरि-कनिमोझी, एन टी रामाराव-चंद्रबाबू नायडू, एच डी देवेगौड़ा-कुमारस्वामी,

अजीत जोगी-रेणु जोगी-अमित जोगी, अशोक गहलोत- वैभव गहलोत, राजेश पायलट- सचिन पायलट,दिग्विजय सिंह- जयवर्धन सिंह, शिवराज चौहान-कार्तिकेय चौहान, विजया राजे सिंधिया-वसुंधरा राजे सिंधिया-यशोधरा राजे सिंधिया-माधव राव सिंधिया-ज्योतिरादित्य सिंधिया, प्रेम कुमार धूमल-अनुराग ठाकुर, ममता बनर्जी-अभिषेक बनर्जी, जितेंद्र प्रसाद-जतिन प्रसाद, प्रियरंजन दास मुंशी-दीपा दास मुंशी, तरुण गोगोई-गौरव गोगोई आदि कितने ही उदाहरण ऐसे हैं जिसमें एक परिवार की सत्ता से निकटता रही। किंतु दुर्भाग्यवश परिवारवाद के विमर्श को नेहरू-गाँधी परिवार पर केंद्रित कर दिया गया है। सच्चाई यह है कि भारतीय जनता तर्क के स्थान पर भावना से संचालित होती है। हर बड़े नेता में कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो उसे जनता में लोकप्रिय बनाती हैं। ऐसे नेता के परिजन स्वाभाविक रूप से राजनीति में रुचि रखते हैं। जनता उस नेता के इन परिजनों में भी इन्हीं विशेषताओं को तलाशने लगती है और उन्हें चुनावी सफलता भी मिलती है। इस प्रकार परिवारवाद का जन्म होता है। महान नेताओं के अयोग्य परिजन भी चाटुकारों द्वारा महिमामंडित होते होते स्वयं को विलक्षण समझने लगते हैं और जनता भी उन्हें ढोती रहती है। 

इस प्रकार रोबोटिक गुरु ने छात्रा की शंका का समाधान किया और आगे कथा प्रारंभ की- स्वयं को मुख्य सेवक न बनाए जाने से असंतुष्ट युवा तुर्क ने वृद्ध राजा के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और अपने समर्थकों के साथ पड़ोसी कुरु प्रदेश के एक विलास भवन में जा बैठा। कुरु प्रदेश का राजा विरोधी दल से था। उसने युवा तुर्क को हाथों हाथ लिया। इस समय भारत वर्ष पर महाबली नरेंद्र दामोदर दास मोदी का आधिपत्य था। जनता एक ही परिवार से नायक चुनते चुनते ऊब चुकी थी तब उसने नया नायक चुना। तुमने सदी के फिल्मी महानायक अमिताभ बच्चन के किस्से सुने होंगे। किंतु नरेंद्र मोदी जैसा विश्व नायक आज तक नहीं हुआ। महाबली वेताल, स्पाइडर मैन, जेम्स बांड जैसे दंत कथाओं के नायक  मोदी के धरावतरण के बाद अप्रासंगिक हो गए थे। 

आइंस्टीन और विलियम हॉकिंग जैसे विश्व विख्यात वैज्ञानिकों, बुद्ध और गांधी जैसे युगपुरुषों तथा समस्त सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं, कवियों, वक्ताओं आदि की सारी विशेषताएं उनमें थीं। उनके कुछ प्रशंसक उन्हें भारत का नया राष्ट्रपिता कहते थे जबकि मीडिया में उन्हें दैवीय गुणों से सम्पन्न अलौकिक अवतारी पुरुष बताया जाता था। जनता मोदी की अदाओं की दीवानी थी। उन्हें यह विलक्षण शक्ति प्राप्त थी कि वे सच और झूठ की विभाजन रेखा को मिटा देते थे। सच झूठ की तरह और झूठ सच की भांति लगने लगता था। जनता भारत के नेतृत्व के लिए उन्हें ही चुनती थी। किन्तु यदा कदा वह छोटे-छोटे राज्यों में विरोधी दलों की सरकार भी बना देती थी। कदाचित जनता यह कौतुक इसलिए करती थी कि वह भूल न जाए कि उसे लोकतंत्र में चयन और परिवर्तन का अधिकार है। या शायद जनता अपने महाबली नेता की विध्वंसक शक्तियों की परीक्षा लेती थी। वह देखना चाहती थी कि यह अलौकिक जननायक जनता के फैसले को पलटने की सामर्थ्य रखता है या नहीं। और चमत्कार तो इस महानायक के युग में अपनी चौंकाने की क्षमता खो चुके थे।

अपने कार्यकाल के पहले 6 वर्षों में महाबली मोदी ने उत्तराखंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, गोवा एवं कर्नाटक तथा मध्यप्रदेश आदि राज्यों की निर्वाचित सरकारों को लीला भाव से अस्थिर किया। जबकि सिक्किम और महाराष्ट्र आदि राज्यों में उनके प्रयासों को शत प्रतिशत सफलता नहीं मिली और सत्ता हासिल न हो पाई। यह भी उनकी लीला का एक भाग था। स्वयं को मनुष्य सिद्ध करने के लिए कभी कभी पराजित होना भी पड़ता था। महाबली मोदी विनम्रता की प्रतिमूर्ति के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने अपनी सफलताओं का श्रेय कभी स्वयं नहीं लिया अपितु निर्वाचित सरकारों को अस्थिर करने का महकमा अपने बहादुर सेनापति अमित भाई शाह को सौंप कर उन्हें ही श्रेय दिया। अमित भाई शाह में भी देवताओं के सारे गुण थे। उनके भक्त तो उन्हें महाबली मोदी से भी अधिक पराक्रमी और बुद्धिमान मानते रहे। कुछ राजकवियों ने अपने टीवी चैनलों पर उन्हें चाणक्य की संज्ञा दी।

यद्यपि उत्साह के अतिरेक में वे यह भूल गए कि इस प्रकार वे महाबली मोदी को चंद्रगुप्त के रूप में रिड्यूस कर रहे हैं। किंतु क्षमाशील महानायक नरेंद्र भाई ने मीडिया के चारण और भाटों की इन प्रस्तुतियों का कभी बुरा नहीं माना। महाबली मोदी जो भी करते थे उसका सत्ता प्राप्ति से कोई संबंध नहीं होता था। उनके विचार विराटता की चरम सीमा को स्पर्श करते थे। उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत का क्रांतिकारी नारा दिया था किंतु राज्य सरकारों को अस्थिर करने की अपनी लीला में उन्होंने कांग्रेस के अतिरिक्त तेलुगुदेशम, समाजवादी पार्टी, तृण मूल कांग्रेस और बीजू जनता दल तथा एनसीपी के विधायकों- सांसदों को अपनी माया से मोहित कर लोकतंत्र को ही हताहत करने हेतु प्रेरित किया। उनका नारा अब और विशाल रूप में क्रियान्वित हो रहा है और हम विपक्ष मुक्त भारत के निर्माण की ओर अग्रसर हैं।

2019 के लोकसभा चुनावों के समय उनकी सिंह गर्जना – ममता दीदी आपके चालीस विधायक हमारे संपर्क में हैं- युगों युगों तक दलबदल को बढ़ावा देने वाले राजनेताओं को प्रेरित करती रहेगी। यह ऐसा युग था जब भारत स्वाधीनता के बाद अंगीकृत संविधान द्वारा थोपी गई धर्म निरपेक्षता और स्वतंत्रता-समानता आदि कुरीतियों की चपेट में था। महाबली मोदी इन कुरीतियों से संविधान को मुक्त करना चाहते थे। उस युग में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को इतिहास की विषयवस्तु बनाया जा रहा था और अडानी-अम्बानी जैसे धन कुबेर महाबली की उपासना करते करते अधीर हो रहे थे। इन्हें भी निजीकरण को बढ़ावा देकर तपस्या का फल देना था। इन सब कार्यों की सिद्धि लिए राज्य सभा में आवश्यक बहुमत दलबदल द्वारा ही अर्जित हो सकता था। गुर्जरत्रा प्रदेश के विधायकों का दलबदल इसी कारण से कराया गया। 

खैर मोदी महिमा गाते गाते युग बीत जाएंगे। अब हम मूल कथा की ओर आते हैं। इधर मरु प्रदेश के असंतुष्ट युवा तुर्क को  कुरु प्रदेश के राजा ने भाजपा के क्रेताओं से संपर्क करने की सुविधा दी उधर मरु प्रदेश का वयोवृद्ध राजा भी सक्रिय हो गया। उसे भी विधायकों की खरीद-फरोख्त का विशद अनुभव था। वह कांग्रेस दल के वित्त पोषण का कार्य भी देखता था और आलाकमान का कमाऊ सिपहसालार था। उसने भी अपने समर्थक विधायकों को एक बहुत ही भव्य और दिव्य विलास भवन(इसे उस युग में रिसोर्ट कहा जाता था) में एकत्रित कर दिया और उनके लिए आमोद प्रमोद के साधन एकत्रित कर दिए। विदूषक( तब वे स्टैंड अप कॉमेडियन कहलाते थे) उन्हें हंसाने लगे। मुग़ल-ए-आजम जैसी फिल्में उन्हें दिखाई जाने लगी।

कैसा अद्भुत और रोमांचक दृश्य था! इधर राजस्थान की जनता कोविड-19 नामक वैश्विक महामारी से त्राहि-त्राहि कर रही थी और उधर उसके द्वारा चुने गए विधायक घोड़े और बकरों का रूप धरकर चारा चरते हुए आनंद कंद बने हुए थे और बोली में अपने बढ़ते दामों को देखकर हर्षातिरेक में नाना प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न कर रहे थे। सारे विद्यार्थी जोर से बोलो – जय लोकतंत्र!  इधर मरु प्रदेश के राजा के गुप्तचर युवा तुर्क के समर्थकों के फोन टेप करने लगे और इनके पीछे मरु प्रदेश की पुलिस लग गई, उधर अमित भाई शाह की सेना के आयकर अधिकारी और ईडी के खोजी वयोवृद्ध राजा के सहयोगियों के यहां छापे डालने लगे। अमित भाई का सबसे घातक दस्ता सीबीआई भी वयोवृद्ध राजा के ओएसडी से पूछताछ करने पहुंच गया।

अब दो संवैधानिक पदों का परिहास उड़ाया जाना शेष था- स्पीकर और राज्यपाल के पद। इन पदों के बारे में भोले भाले संविधान निर्माताओं ने बड़ी हसीन कल्पना की थी-  यह विद्वान होंगे, संसदीय प्रक्रिया के जानकार होंगे, निष्पक्ष होंगे, शपथ लेते ही ये विचारधारा और पार्टीगत निष्ठाओं से ऊपर उठ जाएंगे, ये लोकतंत्र की मर्यादा तथा गरिमा के रक्षक होंगे आदि आदि। किंतु व्यवहार में राज्यपाल का पद वयोवृद्ध राजनेताओं के सक्रिय राजनीति से स्वैच्छिक या जबरन सन्यास के बाद उनके पुनर्वास के लिए प्रयुक्त होने लगा। खुद को उपकृत करने वाले अपनी पार्टी के सत्तारूढ़ साथियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का कोई भी मौका इस काल के राज्यपाल छोड़ना नहीं चाहते थे। स्पीकर को सदन के संचालन की प्रक्रिया के जानकार और सदन की गरिमा के प्रहरी के रूप में चित्रित किया गया था। किंतु वह धीरे धीरे मोहल्ला क्रिकेट के मैचों के अनाड़ी, जिद्दी और पक्षपाती अंपायर में बदल गया। मरु प्रदेश के इस घटनाक्रम में एक कमी थी जो युवा तुर्क ने पूरी कर दी। वह स्पीकर की कार्रवाई से बचने के लिए न्यायालय की शरण में चला गया।

एक एक सुनवाई में अपनी हाजिरी का 40-50 लाख लेने वाले वकील संवैधानिक प्रावधानों को कुरेद कुरेद कर संविधान को घायल करने लगे। न्यायाधीश मंद मंद मुस्काते हुए इन तर्कों को सुन रहे थे। यह काल भारतीय न्यायपालिका के उत्कर्ष का काल था। इस काल में न्यायाधीशों को ऐसे फैसले देने को कहा जाता था जो सरकार को स्वीकार्य हों और ऐसे अलोकप्रिय फैसले देने से बचने की सलाह दी जाती थी जो बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचाते हों। धीरे धीरे न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका एक ही भाषा बोलने लगे। सारे चेक्स एंड बैलेंसेस खत्म हो गए। सबका एक ही नारा था नेशन फर्स्ट। जिस नेशन की बात होती थी उसमें दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि को सशक्त बनाने की कोशिश में समय और ऊर्जा नष्ट नहीं की जाती थी। यह नेशन सकारात्मक सोच वाले प्रभु वर्गों का स्वर्ग बन रहा था। इनकी सोच इतनी सकारात्मक थी कि विरोध और असहमति की नकारात्मक बातों के लिए स्थान खत्म हो रहा था और ऐसी बेहूदा बातें करने वाले लोगों को दंडित भी किया जाता था।

यहां तक कथा सुनाकर रोबोटिक गुरु रुके और कहने लगे- मरु प्रदेश की इस कहानी में भारतीय लोकतंत्र के  दलबदल प्रकरणों की सारी लाक्षणिक विशेषताएं मौजूद हैं, मैं तुम्हें यह टास्क देता हूँ कि शेष कथा तुम अपने विवेक से पूर्ण कर प्रस्तुत करना। जिस विद्यार्थी द्वारा सुझाया गया अंत वास्तविक अंत से मिलता जुलता होगा उसके सम्मान में ताली और थाली बजाई जाएगी। इस प्रकार हम उस काल के भारत का पुण्य स्मरण करेंगे जिस काल की यह घटना है। 

रोबोटिक गुरु ने आगे कहा – मैंने तुमसे कहा था कि स्वाधीन भारत में दलबदल, निर्वाचित सरकारों को अस्थिर करने, उन्हें भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाने आदि के विषय में होम वर्क कर लेना क्योंकि अब जो क्विज प्रतियोगिता होगी उसमें तुम्हारी यही तैयारी काम आएगी। तुम्हारा पहला प्रश्न स्क्रीन पर आता है अब-  1967  के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की लोकप्रियता घट गई थी। सात राज्यों में कांग्रेस की सरकार तक नहीं बन पाई थी। इसके बाद दलबदल का खेल शुरू हुआ। तुम्हें बताना है 1967 से 1971 के मध्य कितने जन प्रतिनिधियों ने दलबदल किया और इन्हें क्या पुरस्कार मिला? तीन छात्राओं ने एक साथ मोबाइल पर बना बजर आइकॉन दबाया था। स्लो मोशन में देखकर एक छात्रा को मौका दिया गया। उसने बताया- 1967 से 1971 के बीच 142 सांसदों और 1969 विधायकों ने दलबदल किया और इनमें से 212 को मंत्री पद देकर पुरस्कृत किया गया। रोबोटिक गुरु ने कहा- एकदम सही जवाब।

अब हम आते हैं अगले सवाल पर-  विधायकों को टूटने से बचाने के लिए किसी अज्ञात स्थान पर ले जाने की परिपाटी किसने और कब शुरू की? इस बार एक ही छात्र ने बजर दबाया और उसका उत्तर भी सही था- 1983 के विधानसभा चुनावों में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की पराजय हुई। तेलुगु देशम पार्टी के एनटीआर मुख्यमंत्री बने। लेकिन 1984 में एनटीआर का स्वास्थ्य बिगड़ गया और उन्हें इलाज हेतु अमेरिका जाना पड़ा। श्रीमती इंदिरा गांधी के करीबी अरुण नेहरू सरकार को अस्थिर करने में लगे थे।

आंध्र सरकार के वित्त मंत्री भास्कर राव को दलबदल के लिए राजी किया गया और कांग्रेस समर्थक राज्यपाल ने तत्काल उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। तब एनटीआर के दामाद चंद्रबाबू नायडू ने तेलुगुदेशम के 163 विधायकों को एनटीआर के बेटे के रामकृष्ण स्टूडियोज में नजरबंद कर बाद में इन्हें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के सम्मुख पेश किया तब जाकर एनटीआर को सत्ता वापस मिली और राज्यपाल को हटना पड़ा। रोबोटिक गुरु ने सही उत्तर के लिए छात्र को शाबासी देते हुए अगला प्रश्न किया- किस प्रधानमंत्री के शासन काल में सर्वाधिक बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया? इस बार तो लगभग सारे विद्यार्थियों ने बजर दबाया और जिस विद्यार्थी को उत्तर देने का अवसर मिला उसका जवाब तथ्यपूर्ण था- श्रीमती इंदिरा गांधी(जनवरी 1966 से मार्च 1977 -35 बार तथा जनवरी 1980 से अक्टूबर 1984 -15 बार) कुल 50 बार।

रोबोटिक गुरु सवालों का क्रम आगे बढ़ाते उससे पहले कक्षा के एक मेधावी छात्र ने सवाल दाग दिया-  हे निर्जीव एवं शुष्क तर्क पद्धतियों के ज्ञाता! आपके द्वारा सवालों का चयन निरंतर उसी कालखंड से क्यों किया जा रहा है जिसे महाबली मोदी बार बार- आजादी के बाद के सत्तर साल- कहते हैं? कहीं आप प्रधान सेवक से यह श्रेय छीनना तो नहीं चाहते हैं कि जनादेश को नकार कर छल-कपट द्वारा अपनी सरकार बना लेने का उनका कौशल नया नहीं था अपितु इस कला को कांग्रेस दल के नेता पहले ही नई ऊंचाइयां दे चुके थे? यदि रोबोटिक गुरु में भावनाएं होतीं तो वे अवश्य मुस्कुराते। जरा ठहर कर उन्होंने कहा- हां, मैं यही दर्शाना चाहता था कि भारतीय लोकतंत्र में व्याप्त मूल्यहीनता में कोई खास बदलाव नहीं आया था चाहे वह कांग्रेस का शासन हो या भाजपा का। किंतु प्रधान सेवक जब भी कांग्रेस की कमियां गिनाते थे तो वे ऐसा अपनी निरंकुशता, स्वेच्छाचारिता, अवसरवादिता और भ्रष्टाचार को जस्टिफाई करने के लिए करते थे।

एक छात्र ने प्रतिप्रश्न किया- फिर प्रधान सेवक भाजपा को- पार्टी विद डिफरेंस – क्यों कहते हैं? रोबोटिक गुरु ने कहा- प्रधान सेवक कभी झूठ नहीं बोलते। कांग्रेस के साथ स्वाधीनता संग्राम की विरासत थी। यही कारण था कि जब भी बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्यों से भटकाव आया तब यह आशा बनी रहती थी कि कांग्रेस की अंदरूनी ताकत- जिसे तुम मनुष्यों के संबंध में वाइटल फ़ोर्स कहते हो- इस भटकन को दूर कर देगी और कई बार ऐसा हुआ भी। भाजपा के पितृ पुरुष अतीत से  ही हर उस बात का विरोध करते रहे जिससे आजाद भारत का अस्तित्व संभव हुआ।

स्वाधीनता संग्राम से असहमति, अहिंसक आंदोलन पद्धति से असहमति, स्वाधीनता आंदोलन के अग्र पुरुष महात्मा गांधी का विरोध, भारत के संविधान की आलोचना, सार्वजनिक क्षेत्र को महत्व देने वाले आर्थिक विकास के मॉडल से असहमति, धर्म निरपेक्षता का नकार, तटस्थ विदेश नीति का विरोध, अनावश्यक सैन्य हस्तक्षेप न करने की नीति का विरोध, नागरिकता देने की प्रक्रियाओं और नागरिकता की प्रकृति पर मतभेद और बहुसंख्यक वर्ग के महत्व और वर्चस्व को सीमित रखने के विषय में असहमति – भाजपा का पूरा राजनीतिक दर्शन उन बुनियादी मूल्यों को अस्वीकार करता है जिनसे देश आजादी के बाद से संचालित होता रहा। केवल सत्ता लोलुपता, अवसरवादिता, सिद्धांतहीनता आदि विकृतियों को भाजपा ने कांग्रेस से ग्रहण किया और इनके आचरण में अल्पकाल में ही कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया।

कांग्रेस से जो सबसे बड़ी बात भाजपा ने सीखी वह थी-  भारतीय मतदाता की नायक पूजा की प्रवृत्ति को भुनाना। इसके लिए भाजपा ने तीन स्तरों पर प्रयास किए- कुछ पुराने नायकों को चतुर छवि परिवर्तन द्वारा अंगीकार करना, अन्य पुराने नायकों पर आक्रमण कर उनकी छवि को धूमिल करना और नए महानायकों का निर्माण। भाजपा अंततः एक प्रतिक्रियावादी दल था। उसने संवैधानिक मूल्यों की शब्दावली नहीं बदली- उनके अर्थ और महत्व में परिवर्तन कर दिया। कई बार भाजपा कांग्रेस के दर्पण प्रतिविम्ब से सादृश्य का अनुभव कराती थी जो देखने में बिल्कुल समान लगता है लेकिन होता ठीक उल्टा है। भाजपा परिवर्तनकामी से अधिक प्रतिशोध हेतु इच्छुक दल बन गया था। 

इसके बाद रोबोटिक गुरु ने कक्षा की समाप्ति से पहले एक अंतिम प्रश्न पूछा- हे विद्यार्थियों! यदि तुम उस कालखंड में होते तो भारतीय लोकतंत्र में बदलाव लाने के लिए क्या करते? सभी छात्रों का समवेत उत्तर था- हम रात्रि के नौ बजे अपने अपने घरों में पूर्ण अंधकार कर देते और फिर मोबाइल की फ़्लैश लाइट, टॉर्च और दीपक जला कर उच्च स्वर में कहते – तमसो मा ज्योतिर्गमय! यदि रोबोटिक गुरु के स्थान पर कोई जीवित गुरु होता तो इस उत्तर से शायद हताश होता कि एक हजार साल बाद भी भारतीय जनता परिवर्तन के लिए चमत्कारों पर ही उम्मीद लगाए हुए है। लेकिन वह तो रोबोट था उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बिल्कुल वैसे ही जैसे आज हम लोकतंत्र की धज्जियां उड़ते देखकर भी मौन हैं। 

(डॉ. राजू पाण्डेय लेखक और गांधीवादी चिंतक हैं। आप आजकल रायगढ़ में रहते हैं।)

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