बात भारत के मौजूदा सूरत-ए-हाल से शुरू करते हैं। इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट की दो टिप्पणियों ने इसकी एक झलक दिखाई। वैसे तो वो टिप्पणियां बेहद साधारण किस्म की ही मानी जाएंगी। फिर भी वो अखबारों में प्रमुख सुर्खियां बनीं। सोशल मीडिया में उन्हें सर्वोच्च न्यायालय का एक महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप बताया गया।
वो टिप्पणियां साधारण इस लिहाज से हैं कि किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इन्हें कहने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी पहलू है। भारतीय संविधान के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। मगर आज हालात ऐसे हो गए हैं कि इस अधिकार का इस्तेमाल करना जोखिम भरा हो गया है। ऐसे मामले अक्सर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं और अंततः कोर्ट को संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करनी पड़ती है।
तो पहली टिप्पणी संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द करने के वर्तमान सरकार के कदम की आलोचना से संबंधित थी। एक प्रोफेसर ने कहा था कि जिस रोज ये कदम कदम उठाया गया, वह एक “काला दिन” था। पुलिस ने इस बयान को संगीन जुर्म माना और उस प्रोफेसर पर सांप्रदायिक दुराव फैलाने का मुकदमा दर्ज कर दिया गया।
इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा- ‘हर भारतीय नागरिक को जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को रद्द करने की आलोचना करने का अधिकार है। जिस रोज ये अनुच्छेद रद्द किया गया, उसे काला दिन बताना प्रतिरोध की भावना और रोष की अभिव्यक्ति है। अगर राज्य की हर आलोचना या प्रतिरोध को धारा 153-ए के तहत अपराध ठहराया जाएगा, तो लोकतंत्र- जो भारतीय संविधान की अनिवार्य विशेषता है- टिक नहीं पाएगा।’
दूसरी टिप्पणी पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर उसे बधाई दिए जाने से संबंधित थी। इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी भी अन्य देश को स्वतंत्रता दिवस की बधाई देने के पीछे दुर्भावना की तलाश नहीं की जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त को कोई भारतीय नागरिक अगर शुभकामना देता है, तो इसमें कुछ गलत नहीं है। यह सद्भावना का इजहार है। वह नागरिक किसी खास मजहब से संबंधित हो, इसलिए ऐसी अभिव्यक्ति के पीछे दुर्भावना की तलाश नहीं की जानी चाहिए। जाहिर है, अभियुक्त मुस्लिम थे, जिन पर सांप्रदायिक द्वेष फैलाने का इल्जाम लगाया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया है। लेकिन अगर आम तजुर्बे के लिहाज से देखें, तो आज ऐसी घटनाएं इक्का-दुक्का नहीं हैं। और यह संगीन सूरत हमारे सामने है कि ऐसे साधारण मामलों में भी इंसाफ के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ता है।
जब हालात ऐसे हों, तो क्या इस बात पर कोई हैरत हो सकती है कि लोकतंत्र की स्थिति को लेकर रिपोर्ट तैयार करने वाली पश्चिमी संस्थाएं अपने सूचकांक पर भारत का दर्जा गिराती चली गई हैं? उनकी रिपोर्टों में यह अब आम रुझान हो चुका है। इसकी ताजा मिसाल स्वीडन स्थित संस्था- वेराइटी ऑफ डेमोक्रेसीज (वी-डेम) की ताजा रिपोर्ट में देखने को मिली है।
वी-डेम ने दोहराया है कि भारत अब लोकतंत्र नहीं है। उसने भारत को निर्वाचित अधिनायकतंत्र की श्रेणी में 2018 में ही रख दिया था। अपनी ताजा रिपोर्ट में उसने कहा है कि 2023 के अंत तक भारत इसी श्रेणी में बना रहा। गौरतलब है कि लोकतंत्र की सूरत पर रिपोर्ट तैयार करने वाली अमेरिकी विदेश मंत्रालय से जुड़ी संस्था फ्रीडम हाउस भारत को आजाद (free) देशों की श्रेणी से बाहर कर चुका है। फ्रीडम हाउस ने भारत को आंशिक आजादी वाले देशों (partially free) की श्रेणी में रखा है।
वी-डेम ने इस वर्ष अपने सूचकांक में 179 देशों को शामिल किया है। उनके बीच भारत को 104वें पायदान पर रखा गया है। संस्था ने कहा है- 2013 के बाद भारत में तानाशाही प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। इस तरह वह उन देशों में शामिल हो गया है, जहां हाल के समय में तानाशाही सबसे तेजी से बढ़ी है। इस रूप में भारतीय लोकतंत्र उस जगह पहुंच गया है, जहां 1975 में था- यानी जब देश में इमरजेंसी लागू हुई थी।
वी-डेम ने इस ओर ध्यान खींचा है कि फिलहाल दुनिया में तानाशाही प्रवृत्ति बढ़ने की लहर आई हुई है। यह प्रक्रिया 42 देशों में चल रही है, जहां की कुल आबादी दो अरब 80 करोड़ हैं- यानी जहां दुनिया की कुल आबादी का 35 प्रतिशत हिस्सा रहता है। दुनिया की 18 फीसदी आबादी भारत में रहती है। इस तरह जो आबादी बढ़ रही तानाशाही प्रवृत्ति वाले देशों में है, उनका आधा हिस्सा भारत में मौजूद है।
नरेंद्र मोदी सरकार ऐसी रिपोर्टों को ठेंगे पर रखती है (या कम-से-कम वह ऐसा करने का संकेत देती है)। सार्वजनिक बयानों में वह ऐसी तमाम रिपोर्टों पर आक्रोश का इजहार करती है। इन्हें तैयार करने वाली संस्थाओं को वह भारत विरोधी सोच या भारत के प्रति ईर्ष्या की भावना से प्रेरित करार देती है।
मगर यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारत की पहचान अगर एक लोकतांत्रिक देश की बनी, तो वह उन पैमानों पर बेहतर सूरत की वजह से ही बनी, जिनको लेकर वी-डेम या फ्रीडम हाउस जैसी संस्थाएं सूचकांक बनाती हैं। इसी पैमानों को लेकर भारतीय नेता और आम भारतवासी भी यह दावा करते रहे हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का बाशिंदा हैं।
वी-डेम के मुताबिक गुजरते वक्त के साथ दुनिया में लोकतंत्र के पांच स्वरूप उभरे। ये हैः
- चुनावी लोकतंत्र (electoral democracy)
- उदारवादी लोकतंत्र (liberal democracy)
- सहभागिता आधारित लोकतंत्र (participatory democracy)
- राय-मशविरे से संचालित लोकतंत्र (deliberative democracy)
- समतामूलक लोकतंत्र (egalitarian democracy)
इन पांचों तरह के लोकतंत्र के आधारभूत पहलुओं को लेकर वह सूचकांक तैयार करती है। उसकी और अन्य ऐसी संस्थाएं इस निष्कर्ष पर हैं कि इन कसौटियों पर भारत का दर्जा गिर रहा है। जाहिर है, इसके लिए उन संस्थाओं की कथित दुर्भावना को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। आखिर जो बातें वो संस्थाएं कह रही हैं, वैसा ही अनुभव बहुत सारे भारतवासियों का भी है।
यह कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि पश्चिमी संस्थाएंदुर्भावना और पूर्वाग्रह से मुक्त रह कर काम करती हैं। ना ही यह कहने का तात्पर्य यह है कि सूचकांक तैयार करने की उनकी विधि दोषमुक्त है। बल्कि इन दोनों कसौटियों पर बहुत सारे ठोस एवं गंभीर प्रश्न इन संस्थाओं पर खड़े किए जा सकते हैं। असल में गंभीर बहसों के दौरान ऐसा किया भी गया है।
मगर भारत के मुख्यधारा विमर्श में इस प्रश्न पर शायद ही कभी गंभीर चर्चा हुई हो कि जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं- उसका वास्तविक स्वरूप एवं चरित्र क्या है? इसमें सचमुच लोक यानी आम जन के लिए कितनी जगह है? उसमें आम जन की वास्तविक भूमिका क्या है? यह बात तर्क और तथ्यों के साथ कही जा सकती है कि जिस लोकतंत्र पर हम गर्व करते हैं, उसमें उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण (democratization) की संभावना बहुत सीमित समय तक ही रही। जल्द ही- जैसाकि दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक प्रयोगों के साथ हुआ है- प्रभु वर्ग ने इस संभावना को कुंद कर दिया और फिर इस पर अपना पूरा शिकंजा कस लिया। इस रूप में यह व्यवस्था अभिजात्य तंत्र (oligarchy) या धनिकतंत्र (plutocracy) में तब्दील हो गई।
वी-डेम या फ्रीडम हाउस जैसी संस्थाओं की सीमा यह है कि वे लोकतंत्र और तानाशाही की परिभाषा political economy के मूलभूत स्वरूप और उससे जुड़े सवालों को पूरी तरह दरकिनार रखते हुए तैयार करती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वे ऐसा जानबूझ करती हैं। इसके पीछे कारण उनके अपने पूर्वाग्रह और साथ ही फंडिंग के उनके स्रोतों द्वारा तय किया उनका दायरा भी होता है। इस रूप में वे पश्चिमी सत्ता-तंत्र के हितों के अनुरूप नैरेटिव निर्माण के व्यापक नेटवर्क का एक हिस्सा हैं। इस रूप में वे पश्चिमी शासक वर्ग के हितों और उनकी सोच के मुताबिक परिभाषा तय करती हैं और फिर बाकी दुनिया को उसी खांचे में डाल कर उनके बारे में राय बना लेती हैं। यानी अपनी कसौटी पर बाकी दुनिया को कस कर एक तरह की प्रचार सामग्री तैयार करने में वे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैँ।
अपनी इस भूमिका के तहत ये संस्थाएं लोकतंत्र के उन प्रयोगों को बदनाम करने का जरिया बनी रहती हैं, जहां लोकतंत्र को आम जन के जीवन स्तर को ऊंचा करने और समाज में शोषण एवं उत्पीड़न पारंपरिक तंत्र से मुक्ति की परियोजना के रूप में अपनाया गया है। वे लोकतंत्र को इस रूप में पेश करती हैं, जैसे उसका सामाजिक वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया एवं अवस्था से कोई संबंध ना हो। इसलिए उनका जोर आदर्शवादी और हवाई मूल्यों पर अधिक होता है।
बेशक अगर आम जन के हितों के नजरिए से लोकतंत्र को समझने और देखने की कोशिशकी जाए, तो फिर भारत का ऐतिहासिक रूप से लोकतंत्र के सूचकांक पर क्या दर्जा रहा और आज क्या है, इसकी बहस बिल्कुल अलग दायरे और संदर्भ में चली जाएगी। परंतु इस रूप में भारत की मेनस्ट्रीम चर्चा में लोकतंत्र को समझने की कोशिश कभी नहीं हुई। जिस व्यवस्था पर यहां गर्व किया गया, वह उसी परिभाषा के तहत लोकतंत्र था, जिसे पश्चिम ने तैयार और प्रचारित किया है।
उस कसौटी पर भारत की सूरत बिगड़ रही है, यह आम अनुभव है। वी-डेम उसी अनुभव को अपनी इंडेक्सिंग पद्धति के जरिए बता रही है। वह हमें वो आईना दिखा रही है, जिसमें हमारी सूरत बिगड़ती चली गई है। भारत सरकार अपनी यह सूरत देखने के बजाय आईने पर गुस्सा निकालती है, तो इसे उसकी बदनीयती ही कहा जाएगा।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)