बिहार में एक नया समीकरण जन्म ले रहा है। लालू यादव के ‘माय’ यानी मुस्लिम-यादव समीकरण को तोड़ने के लिए नया ‘माय’ समीकरण बन रहा है। लालू का समीकरण लंबे समय से चल रहा है और आज भी यह मजबूत है। हालात ये हैं कि लालू प्रसाद की पार्टी भले ही सरकार बनाने से चूक जाती हो, लेकिन माय समीकरण की वजह से वह मजबूत विपक्ष के रूप में खड़ी रहती है, लेकिन इस बार एक नया ‘माय’ बना है। यह माय हैदराबाद वाले असदुद्दीन ओवैसी और पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव के मिलन से बन रहा है। इस ‘माय’ की कोशिश एनडीए से लड़ाई नहीं है। इसकी कोशिश लालू के ‘माय’ को ध्वस्त करना है। सवाल उठाया जा रहा है कि अगर ऐसा है तो क्या इस ‘माय’ को बीजेपी या फिर एनडीए की ‘बी टीम’ नहीं माना जाना चाहिए?
राजनीति का चरित्र
ठगिनी राजनीति के क्या कहने! इसका न कोई आचार-विचार है और न संस्कार। कल तक जो एक झंडे के नीचे मर मिटने की कसमें खा रहे थे, पलक झपकते ही दूसरे झंडे को उठाए लोकतंत्र की रक्षा की दुहाई देने लगते हैं। राजनीति का यह चरित्र कभी भरमाता है तो कभी लुभाता भी है। ये तमाम बातें अभी बिहार चुनाव के सन्दर्भ में कही जा रही हैं, जहां हर रोज नेता पाला बदलते नजर आते हैं।
टिटिहरी नमक एक चिड़िया होती है। जिसकी आवाज को लोग अपशकुन मानते हैं, लेकिन पकड़ में आ जाए तो भक्षण करते देर नहीं लगती। उस चिड़िया की समझ भी निराली है। मिथ है कि रात में सोते वक्त वह अपने दोनों पैरों को ऊपर करके सोती है। उसे गुमान होता है कि अगर आकाश गिर जाए तो वह अपने पैरों से अपने अंडों को बचा लेगी। ये राजनीति करते जीव उसी चिड़िया के सामान हैं। उसे भले ही जनता छोड़ चुकी हो, लेकिन उसे लगता है कि वह अभी भी जनता का लीडर है। उसकी बातें जनता सुनती है और आगे भी सुनेगी। बिहार में ऐसे लोगों की कमी नहीं। ऐसे नेता रूपी जीवों की कमी नहीं।
ओवैसी पर आरोप
अभी हाल में ही दक्षिण भारत से बिहार में राजनीति करने असदुद्दीन ओवैसी पधारे हैं। हैदरावाद की राजनीति करते हैं और शिक्षा-रीयल स्टेट के बिजनेस के व्यापारी हैं। कट्टरता से भरे हैं और देश के युवाओं को भी कट्टरता का ककहरा पढ़ाने से बाज नहीं आते। पिछले पांच सालों में उनकी राजनीति खूब चमकी। दो से तीन सांसद उनकी पार्टी से चुने गए। दो विधायक भी अन्य राज्यों में चुने गए। बिहार और महाराष्ट्र की राजनीति में घुसने की कोशिश है और अगली नजरें यूपी, बंगाल और असम के चुनाव पर भी है।
ओवैसी पर कई तरह के आरोप हैं। पहला आरोप तो यही है कि इनकी पार्टी देश के मुस्लिम युवाओं को कट्टरता की शिक्षा देती है। दूसरा आरोप है कि राजनीतिक मोल-भाव करके अच्छी कमाई करते हैं और अपने बिजनेस को आगे बढ़ाते हैं। तीसरा आरोप है कि ये बीजेपी की बी टीम हैं। सबसे मजेदार आरोप है कि बीजेपी के अधिकतर नेताओं से इनके अच्छे सरोकार हैं। इसमें क्या सच है कोई नहीं जानता, लेकिन यह सच है कि ओवैसी कम ही समय में चमकते राजनीतिक सितारे के रूप में दिखने लगे हैं।
नया माय समीकरण
बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी राजद की ताकत लालू प्रसाद का बनाया एमवाई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण है। इन दोनों का वोट 30 फीसदी के करीब है और इसी वोट बैंक की वजह से लालू प्रसाद सत्ता से बाहर होने के बाद भी राज्य की राजनीति में प्रासंगिक बने हुए हैं। राजद की राजनीति हमेशा इस वोट बैंक के साथ एकाध दूसरी जातियों का वोट जोड़ने की रहती है। जब कामयाबी मिलती है तो सीटें बढ़ जाती हैं और कामयाबी नहीं मिलती है तो सीटें कम हो जाती हैं, पर राजद का वोट प्रतिशत एक निश्चित सीमा तक हमेशा ही रहता है। बहरहाल, जब तक राजद के एमआई समीकरण में सेंध नहीं लगेगी, तब तक बिहार में राजद एक बड़ी ताकत बनी रहेगी।
इस बार जहां कई दल मिलकर महागठबंधन के जरिए एनडीए को सत्ता से हटाने को तैयार हैं, वहीं ओवैसी और पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र प्रसाद यादव मिलकर माय समीकरण का निर्माण करते दिख रहे हैं। देवेंद्र यादव मिथिलांचल की राजनीति करते रहे हैं, लेकिन पिछले कई सालों से संसद नहीं पहुंच पाए और न ही विधानसभा पहुंच पाए। एक वक्त देवेंद्र यादव का इकबाल था और उनकी राजनीति खूब चलती थी, लेकिन वक्त के साथ वे हाशिये पर चले गए।
उन्होंने समाजवादी जनता दल नामक पार्टी भी बना रखी है। अब ओवैसी और यादव का नया समीकरण नए माय के रूप में देखा जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में राजद के इस वोट बैंक को बांटने की गंभीर राजनीति हो रही है। आरोप लग रहे हैं कि जैसे हर राज्य में विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिम वोट बांटने के लिए असदुद्दीन ओवैसी अपनी पार्टी लेकर पहुंच जाते हैं वैसे ही वे बिहार भी पहुंच गए हैं।
ओवैसी और बिहार
पिछले साल अक्टूबर में हुए उपचुनाव में मुस्लिम बहुल किशनगंज सीट पर ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार कमरूल हुदा ने भाजपा को हरा कर सीट जीती थी। पहली बार एमआईएम का बिहार में खाता खुला था। इसके बाद से ही माना जाने लगा कि मुस्लिम बहुल इलाकों में ओवैसी की पार्टी राजद गठबंधन को कमजोर करेगी। ओवैसी के साथ देवेंद्र यादव के मिल जाने और पूर्व सांसद पप्पू यादव के स्वतंत्र रूप से राजनीति करने से राजद के मुस्लिम-यादव वोट बैंक पर वास्तविक खतरा दिख रहा है। पप्पू यादव की कहानी समझ से परे है।
एक बात तो साफ़ है कि वे राजद और कांग्रेस से मिलना भी चाहते हैं और अपनी अस्मिता को भी बचाए रखना चाहते हैं। कभी वे चिराग के संग दिखाई पड़ते हैं तो कभी तेजस्वी पर जान छिड़कते नजर आते हैं, लेकिन अब जानकारी मिल रही है कि पप्पू यादव की जनाधिकार पार्टी स्वतंत्र रूप से बिहार चुनाव लड़ेगी। उन का भी वोट बैंक यादव, मुस्लिम और कई समाज के युवा वर्ग हैं। अगर ये सभी माय समीकरण वाले चुनाव में उतरते हैं तो साफ़ है कि महागठबंधन की राजनीति भोथरी होगी और एनडीए का खेल सफल होगा।
(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)