Wednesday, April 24, 2024

राज्य के बढ़ते हमलों के बीच प्रेस की स्वतंत्रता पर बढ़ा खतरा

भारत में प्रेस की आजादी बहुत गम्भीर स्थिति में पहुंच गई है। अब देश के अन्य हिस्सों में दिल्ली से ही बता दिया जाता है कि क्या लिखना और बोलना है। अभी देश की राजनीति और जनता एक जैसे विचार रखती है।

पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने वाले अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संगठन ‘रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर्स’ द्वारा 180 देशों में पत्रकारिता की स्थिति का विश्लेषण कर जारी की गई रिपोर्ट ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2023’ में भारत 161 वें पर है और भारत में प्रेस की आजादी बहुत गम्भीर स्थिति में पहुंच गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 1 जनवरी 2023 से अब तक भारत में एक पत्रकार को मार दिया गया, यह हत्या महाराष्ट्र में हुई।

रिपोर्ट में कुलीन वर्गों द्वारा ‘मीडिया अधिग्रहण’ को भारत में प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त होने की मुख्य वजह बताया गया है।

पिछले साल जब भारत ‘रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर्स’ की इस सूची में 150 वें स्थान पर था, तब भारत सरकार ने कहा था कि  वह इन निष्कर्षों से सहमत नहीं है। भारत सरकार भले ही एक संगठन के निष्कर्षों से सहमत नहीं थी पर पिछले साल ‘रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर्स’ को मिलाकर विश्व के दस प्रमुख मानवाधिकार संगठनों ने भी भारत में प्रेस को दबाने की बात कही थी। इन संगठनों में ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’, ‘फ्रीडम हाउस’, ‘पेन अमेरिका’,  ‘इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स’, ‘सिविकस, एक्सेस नाउ’, ‘इंटरनेशनल कमीशन ऑफ ज्यूरिस्ट्स’, ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ और ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ शामिल थे।

4 मई की सुबह पत्रकार साक्षी जोशी का ट्वीट भी भारत में प्रेस की खत्म होती स्वतंत्रता पर मुहर लगाता है। दिल्ली में पहलवानों के प्रदर्शन को कवर करने जा रही साक्षी जोशी को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। साक्षी जोशी ने ट्वीट करते हुए लिखा था कि मुझे हिरासत में लिया, धक्के मारे ,कपड़े फाड़े, कैमरा छीना। उनके द्वारा साझा किए वीडियो में दिख रहा है कि किस तरह एक पत्रकार को उसकी खबर कवर करने से रोका गया।

राज्य प्रेस की स्वतंत्रता के लिए सबसे सम्भावित खतरा।

बी मुगन्धन और सी रेनुगा के भारत में प्रेस की स्वतंत्रता पर लिखे एक रिसर्च पेपर में भारतीय प्रेस के लिए सुझाव देते हुए लिखा है कि समाचार पत्र के सम्पादकों में खबर छापने को लेकर दबाव न हो इसके लिए समाचार पत्रों में उनके पूंजीपति मालिकों का दबाव कम करना होगा। साथ ही स्वतंत्र, नए और छोटे समाचार पत्रों को जमाने के लिए भी जरूरी कदम उठाने की आवश्यकता बताई गई है। इन सब सुझावों पर काम करना जरूरी बताया गया है क्योंकि स्वतंत्रता के बाद से राज्य प्रेस की स्वतंत्रता के लिए सबसे संभावित खतरे का स्रोत बना हुआ है।

स्वतंत्रता से लिखना हो रहा है मुश्किल, गांव वालों को बनाने होंगे अपने पत्रकार।

इस अप्रैल उत्तराखंड के चमियाला में आयोजित 31 वें उमेश डोभाल स्मृति समारोह में प्रेस की स्वतंत्रता पर वरिष्ठ पत्रकार शंकर सिंह भाटिया ने कहा था कि “जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मैंने बीस-पच्चीस साल पत्रकारिता करी है, मैंने साल 2000 से पहले और आज की पत्रकारिता भी देखी है। पहले सारी खबरें रिपोर्टर ही तय किया करते थे और आज दिल्ली से ही बता दिया जाता है कि खबर कैसे लिखनी है। आठ साल पहले मैंने अखबार की नौकरी छोड़ दी थी क्योंकि मुझे लग गया था कि अब हम इस माहौल में काम नहीं कर पाएंगे। आज मीडिया की हालत बहुत खराब है, स्वतंत्रता से लिखना सम्भव नहीं हो पा रहा है”।

इसी समारोह में एक स्थानीय व्यक्ति का कहना था कि हमारी खबरें कोई नहीं दिखाता। पहाड़ों में रोजगार, पानी की कमी, लचर स्वास्थ्य व्यवस्था जैसी खबरें मीडिया में कभी नहीं छाती हैं। टीवी चैनलों और अखबारों में अधिकतर वह खबरें ही दिखाई जाती हैं, जिनका हमसे कोई मतलब नहीं होता।

इसके बाद मुझे जब मंच में अपने विचार रखने का मौका मिला तो मैंने उस स्थानीय व्यक्ति का उत्तर देते हुए कहा था कि देहरादून, दिल्ली बैठे व्यक्ति को आपकी खबरों से क्या मतलब होगा! आप ग्रामवासियों को अपने पैसे से अपने पत्रकार बनाने चाहिए, जो प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ सोशल मीडिया के इस युग में आपकी बात सही तरीके से दुनिया तक पहुंचाएं। उस पत्रकार पर किसी संस्थान का दबाव नहीं होगा और उसकी लिखने की स्वतंत्रता भी समाप्त नहीं होगी।

क्षेत्रीय पत्रकारिता हमेशा से उपेक्षित रही है।

प्रेस की स्वतंत्रता से क्षेत्रीय पत्रकारिता पर पड़ रहे असर पर नोएडा में रहने वाले प्रिंट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार सारंग उपाध्याय कहते हैं कि क्षेत्रीय पत्रकारिता पहले से ही उपेक्षित रही है। दिल्ली को छींक आ जाए तो देश को जुकाम और बुखार हो जाता है लेकिन ग्राम, देहात और बाकी देश मीडिया में हैं ही नहीं। यही नहीं अब तो मुम्बई सहित देश के कई बड़े महानगर भी राष्ट्रीय मीडिया से बाहर होते जा रहे हैं।

जब तक मुद्दों को प्राथमिकता नहीं, पत्रकारिता हाशिए पर ही रहेगी।

प्रेस की स्वतंत्रता, स्थानीय पत्रकारिता और इसकी मजबूती पर ‘जनज्वार’ समाचार वेब पोर्टल के सम्पादक अजय प्रकाश से बात की गई तो उन्होंने बताया कि स्थानीय पत्रकारिता हमेशा से हाशिए पर ही रही है। उसकी वजह यह है कि स्थानीय समाज से ही देश चलता है। जब हमारे देश में धर्म जाति को छोड़ मुद्दों को प्राथमिकता मिलने लगेगी तब प्रेस भी मजबूत हो जाएगी।

देश की नीतियों का अमल होना या न होना, इसकी सच्चाई गांव और उसके आसपास के इलाकों से ही पता चलती है। जब दिल्ली या राज्यों की राजधानियों से सरकारें घोषणा करती हैं कि हम इतने लाख करोड़ की योजनाएं लाए हैं। तब उनका सच हर रोज़ सौ या पचास रुपए में जीने वालों के जरिए उजागर होता है।

जब भ्रष्टाचार थोड़ा कम था तब भी कहा जाता था कि विकास के लिए आने वाले एक रुपए में अस्सी पैसा रास्ते में रह जाता है, अब तो कमीशनखोरी बहुत बढ़ गई है। कर्नाटक में चुनाव हो रहा है, वहां कहा जाता है चालीस फीसदी की सरकार। मतलब कोई भी काम कराना है तो चालीस फीसदी सरकार लेगी।

अब सवाल यह है कि इनका सच बताना, जाहिर तौर पर वह पत्रकार ही बताएगा। स्थानीय पत्रकार इतना कमजोर होता है कि उसको सिस्टम में जगह तब मिलेगी जब वह सत्ता में बैठे लोगों या बड़े पदों में बैठे लोगों की जी हुजूरी करेगा, उनके पक्ष में खबरें छापेगा। मेरे दो दशक के पत्रकारिता अनुभव बताते हैं कि जिन भी पत्रकारों ने स्थानीय स्तर पर सही और सच्चाई के साथ मुद्दे उठाने की कोशिश की, उन्हें दबाया ही गया है।

इसीलिए ऐसा होता है कि जब स्थानीय पत्रकार बड़ा मुद्दा उठाते हैं, उन्हें कोई नहीं पूछता पर दिल्ली बैठा पत्रकार जब उसी मुद्दे को उठाता है तो वह बड़ा मुद्दा बन जाता है।

क्या हम स्थानीय स्तर पर पत्रकार बन सकते हैं। हां बन सकते हैं और ऐसी हजारों कोशिशें हुई हैं। स्थानीय और ईमानदार लोगों ने नौकरियों को छोड़कर पहले अखबार निकाले हैं और चंदे से भी निकाले हैं। अब भी समाचार वेब पोर्टल, यूट्यूब चैनल निकाले जा रहे हैं। पर सत्ता संरचना इतनी बड़ी और पैसे वाली है कि ऐसे पत्रकार उसमें फिट नहीं बैठ पाते।

इसका उपाय क्या है इस पर भी सोचना चाहिए। देश की राजनीति जैसी चलती है, वहां की जनता वैसी होती है। जैसे राजनीति भ्रष्ट है तो जनता भी भ्रष्ट है। इसलिए लोग स्थानीय राजनीति में भी मुद्दों पर कभी वोट नहीं देते। मुद्दों वाली पत्रकारिता इसलिए हाशिए पर है। और वह तब तक हाशिए पर रहेगी जब तक राजनीति में मुद्दों को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी।

आप देखते हैं स्थानीय स्तर पर वही युट्यूबर सफल हैं जो राजनीति से जुड़ी खबरों को नहीं छूते या सत्ता या विपक्ष किसी एक से जुड़ी खबरें दिखाते हैं। वह पत्रकार नहीं पार्टी प्रवक्ता होते हैं। और दिल्ली से देहात तक यही स्थिति है।

अगर इस देश मे राजनीति धर्म और जाति के नाम पर होगी। चाहे वह पक्ष द्वारा हो या विपक्ष के द्वारा, तो पत्रकारिता भी इसी के आसपास होगी। मेरा मानना है कि यह इस देश का बदलाव का दौर है। अभी इसमें एक दशक लगेगा। इसके बाद ही पत्रकारिता मजबूत होगी।

प्रेस की स्वतंत्रता बचाने के लिए जरूरी है कानून बनाना।

प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में पहले नम्बर पर काबिज नॉर्वे में मीडिया को कानूनी सुरक्षा प्राप्त है।नॉर्वे के संविधान के अनुच्छेद 100 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। जहां मीडिया को स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है। इस अनुच्छेद के अनुसार वहां हर कोई राज्य के प्रशासन और किसी भी अन्य विषय पर खुलकर अपने मन की बात कहने के लिए स्वतंत्र होगा, साथ ही सभी को राज्य और नगर पालिकाओं के दस्तावेजों तक पहुंच का अधिकार है।

वहीं भारत में मीडिया के लिए ऐसा कोई विशिष्ट कानून नहीं है, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है पर कई मामलों में मीडिया के लिए इस लचीले कानून के अर्थ बदल जाते हैं। कई बड़े मीडिया संस्थानों में सरकारी एजेंसियों के हालिया छापे इसका उदाहरण हैं। भारत में प्रेस की खत्म होती स्वतंत्रता को देखकर अब प्रेस की स्वतंत्रता बचाने के लिए अलग से कानून बनाया जाना जरूरी लगता है।

(हिमांशु जोशी लेखक हैं।)

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