इलाहाबाद। बहुत ही अजीब सा मौसम है। लगभग हर घर में एक दो लोग बीमार हैं। बादल रोज घेरे हुये हैं। लोग-बाग सरसों काटने में जुटे हैं। कहते हैं बूंदा-बांदी हो गई तो सरसों का एक भी दाना हाथ नहीं आयेगा। साथ ही आलू की खुदाई भी चालू है। गेहूँ पकने में अभी समय है। इसी में होली का त्योहार सिर पर आ धमका है। किसान के पास गल्ला नहीं है, न नकद नारायण। फिर कैसे हो त्योहार। हर चीज तो बाज़ार से ही ख़रीदना है। कृषि मजदूर राजमन पटेल ने जिन-जिन के यहां पहले काम किया है उनके यहां मजदूरी मांगने जा रहे हैं, कहते हैं एक जन के यहां 500 रुपया आलू की लगवाई बाक़ी है और एक के पास 300 बकाया है मिल जाये तो रंग गुलाल खोआ ख़रीदकर ले आयें।
बबुआपुर जलालपुर के राहुल पटेल की उम्र 20 साल है। राहुल गांव के कई हम उम्र बेरोज़गार युवाओं के साथ होली से ठीक 10 दिन पहले दिल्ली गये थे काम की तलाश में। जो लिवा गया था उसने बताया था महीने में 15 हजार रुपये मिलेंगे। वहां पहुंचकर जाना कि केवल 8 हजार मिलेंगे और काम पोल पर चढ़कर काम करने का है। देखते ही हूक खिसक गई। सबके सब वापसी का टिकट कटा लिये। ट्रेन में राहुल का मोबाइल चोरी हो गया। दो महीन पहले 10 हजार रुपये में नया लिया था। राहुल की मां कहती हैं होली पर लोग घर लौटते हैं और ये घर छोड़ परदेश कमाने गये थे घर के उड़द जँगेले में गँवाय आये। हो गया सब होली फगुआ।
घर के बाहर मिट्टी के चूल्हे पर घर के दूध का खोवा बनातीं सुमन देवी कहती हैं बाज़ार में खोवा का दाम ढाई तीन सौ रुपये किलो है। चीनी भी पचास रुपये किलो। रिफांइड तेल 200 रुपये लीटर। मेवा तो ददा के भाव बिक रहा है। गांव जंवार के लोग होली मिलने आते हैं तो मीठे में गुझिया और चिप्स पापड़ से उनका आव भगत किया जाता है। इस महंगाई में परिवार के लिये गुझिया बनाना भारी पड़ रहा है गांव जवार के लिये कहां से बने। पहले था तो हर घर में गुझिया और चिप्स पापड़ बनता था। लोग बाग एक-आध खाये नहीं खाये मुंह जूठा करके ही काम चला लिये। लेकिन अब बहुत कम लोग गुझिया बना रहे हैं। बल्कि लड्डू ख़रीदकर खिलाना सस्ता पड़ता है। एक तो बहुत खटकरम लगता है, बहुत समय, और मेहनत लगता है ऊपर से इस महंगाई में पैसा बहुत लगता है। लोगों ने गुझिया बनाना ही छोड़ दिया है। पूरे गांव में जुज्बी ही लोग अब गुझिया बना रहे हैं।
सड़क पर गिरे कचनार के फूलों को कुचलते बादशाहपुर, फूलपुर, बरना, बुढ़िया के इनारा की सवारियां लिये टाटा 407 बस सहसों के गोल चौराहे को पार कर रही। इलाहाबाद लेबर चौराहे के लिये घर से निकले मजदूर बस में आपस में बातें करने लगे। तभी किराये को लेकर कंडक्टर ने एक सवारी से हुज्ज़त कर लिया। एक मजदूर 10 रुपये कम किराया दे रहा था। और अपने मजदूर होने की दुहाई दे रहा था। बस कंडक्टर ने कहा कि मजदूर हो तो क्या गाड़ी डीजल पीती है पानी से नहीं चलती और मजदूर भी चार-पाँच सौ रुपये से कम दिहाड़ी नहीं कमाते। उक्त मजदूर ने बिल्कुल याचक मुद्रा में कहा कि रोज काम नहीं मिलता है भाई।
कई बार बस का किराया भी जाया चला जाता है। बस पर बच्चों के लिये 10 रुपये में तीन किताब बेंच रहे राम मिलन कहते हैं सरकार ने जनता का तेल निकाल लिया है। रोज की रोटी खायें कि त्योहार मनायें। इसी बीच मजदूरों के बीच त्योहार की तैयारी को लेकर बातचीत होने लगी। एक मजदूर ने कहा दबे हाथ भी करेंगे कम से कम तीन हजार रुपये का ख़र्चा है। जेब में फूटी कौड़ी नहीं है किसी से कर्ज़ लेकर ही त्योहार मनेगा।
कल परसों ही होली है लेकिन ताज़्ज़ुब की बात यह कि जो बाज़ार पखवाड़े पहले ही सज जाते थे वो इस बार सूने सूने हैं। इक्का दुक्का दुकानों पर ही गुलाल पिचकारी दिख रही है वो भी पुराना माल जो बचा था वही दुकानदार ने धूल धक्कर झाड़कर दुकानों पर रख दिया। इलाहाबाद की तमाम तहसीलों और शहरों के बाज़ारों फूलपुर, हंडिया, बारा, नैनी, चायल, सिविल लाइन्स, दारागंज तथा पड़ोसी जिलों प्रतापगढ़ और जौनपुर, सुल्तानपुर में भी बाज़ारों में सन्नाटा पसरा है। होली, दीवाली, रक्षाबंधन जैसे त्योहारों के थोक सामान दिल्ली के सदर बाज़ार से लाकर अपने बाज़ार के दुकानदारों को मुहैया करवाने वाले कमलेश केसरवानी कहते हैं सब खत्म हो गया।
दो साल से कोरोना ने होली दीवाली सब त्योहारी धंधे का नाश कर रखा है। इसके अलावा लोगों की नौकरियां जाने और काम धाम छूटने से भी बहुत फर्क पड़ा है। गांव में हर घर से कोई न कोई लड़का बाहर जाकर कमाता था। वो त्योहार पर कुछ भेजता था तो परिवार के लोग त्योहार मनाते थे। कोरोना लॉकडाउन के बाद सारे कमाऊ पूत तो घर बैठे हैं, या कहीं कुछ मिलता है तो कर लेते हैं। मनरेगा का काम भी बंद पड़ा है ऐसे में लोग त्याहोर मनायें तो कैसे।
शिवकुटी तेलियरगंज में परिवार के तीन लोग संग मिलकर किराना दुकान चलाने वाले भारती होली मिलन के सवाल पर कहते हैं मैं तो साईकिलधारी हो गया हूँ। हर जगह जहां भी जाना होता है साईकिल से जाता हूँ। कई महीने हो गये मोटरसाईकिल पर चढ़े। होली मिलने जाने के लिये पिछले कुछ महीने से पैसे इकट्ठे कर रहा हूँ ताकि बाइक में पेट्रोल डलवा सकूँ। मोटरसाईकिल में पेट्रोल डलवाऊंगा तो नाते-रिश्तेदार, यार-दोस्तों से मिलने जाऊंगा।
एक और दुकानदार गोकुल प्रसाद जायसवाल बताते हैं कि लोगों की ख़रीदने की क्षमता बहुत कम हो गई है। उनकी दुकान पर जहां पहले रोज़ाना पंद्रह सौ से लेकर 3 हजार रुपये तक की बिक्री हो जाती थी वहीं अब रोज़ाना की बिक्री 500-700 रुपये ही हो पाती है। गोकुल बताते हैं कि होली पर उनकी दुकान पर बच्चों से लेकर बड़ों तक के लिये कुर्तों की बड़ी मांग रहती थी लेकिन अब कोई पूछता ही नहीं। दो साल पहले का स्टॉक अभी तक बचा हुआ है। दो दिन बाद ही होली है लेकिन कोई टोपी पिचकारी तक नहीं पूछ रहा है।
लाल मन दो साल से बेरोज़गार बैठे हैं। इससे पहले वो इलाहाबाद में एक कंपनी में स्टोरकीपर का काम करते थे महीने के 7000 रुपये मिलते थे। लालमन बताते हैं कि बीवी की दवाई में कर्ज़दार हो गये हैं। बड़ा बेटा 19 साल का हो गया है इधर-उधर सटरिंग का काम कर लेता है तो परिवार चलता है। इधर यह काम भी बंद है। छोटा बेटा-बेटी पढ़ाई छोड़कर घर बैठे हैं। त्योहार पर बच्चों का उदास मुंह देखकर कुछ कर लेने का मन होता है। दुकानदार के यहां पहले से ही काफी कर्ज़ है लेकिन किसी तरह कुछ सामान ले आया हूँ होली पर बना खा लेंगे लोगों को रंग गुलाल लगाकर गले मिल लेंगे और इस महंगाई और बेरोज़गारी में कर ही क्या सकते हैं हम लोग।
बुजुर्ग अमृत लाल कहते हैं चैती फगुआ सब हेराय गा भइया। चार-छः दिन पहले से कम से कम होली के फिल्मी गीत बजते थे तो एक माहौल बनता था। इधर तो फिल्मी होली गीत भी नहीं सुनाई पड़ रहे। इससे अंदाजा लगा लीजिये कि लोग किस हद तक परेशान हैं महंगाई और बेरोज़गारी से। वो बिल्कुल भी हर्ष और उल्लास के मूड में नहीं हैं। पिछले साल तो गांव में एक हादसा हो गया था। इफको में बॉयलर फटने से एक जवान लड़के की मौत हो गई थी। तब उसके दुख में पूरे गांव ने होली नहीं मनाई थी लेकिन इस बार तो ऐसा कुछ भी नहीं है फिर भी लगता है कि जैसे हर कोई किसी के मातम में है।
(इलाहाबाद से सुशील मानव की रिपोर्ट।)
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