आजकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर्नाटक की अपनी धुआंधार रैलियों, भाषणों और रोड शो के बाद दिल्ली न आकर राजस्थान और गुजरात की तीन दिवसीय दौरे पर हैं। राजस्थान में माउंट आबू स्थित ब्रह्मकुमारी में एक आधुनिकतम सुविधा से संपन्न मेडिकल कॉलेज का उद्घाटन करते हुए उन्होंने 2014 से पूर्व और मोदी दौर में मेडिकल कालेजों की स्थापना की तुलना पेश की है, और पिछले 9 साल की उपलब्धियों में इसे एक बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाया है। पीएम मोदी के अनुसार, “हेल्थकेयर की चुनौती में डॉक्टर, नर्स की संख्या महत्वपूर्ण है।
पिछले 9 वर्षों के दौरान इस कमी को सुधारने के लिए अभूतपूर्व कार्य किया गया है। 2014 के बाद से देश में 300 मेडिकल कॉलेज खोले गये हैं। पिछले 9 वर्षों में औसतन हर महीने एक नया मेडिकल कॉलेज खोला गया है। 2014 से पहले के 10 वर्षों में 150 से भी कम मेडिकल कॉलेज बनाये गये थे, जबकि 9 वर्षों में 300 से अधिक नए मेडिकल कॉलेज बने हैं। 2014 से पहले हमारे पूरे देश में एमबीबीएस की 50,000 सीट थीं, जो आज देश में 1 लाख से भी ज्यादा हो गई हैं। 2014 से पहले पीजी की भी 30 हजार सीटें थीं, अब पीजी सीटों की संख्या 65,000 से ज्यादा हो गई हैं”
इसके बाद एक अन्य समारोह में राष्ट्रीय राजमार्गों के उद्घाटन के दौरान पीएम मोदी ने एक और बार इस विषय को उठाते हुए कटाक्ष किया, जो काबिले गौर है और मीडिया ने भी इसे अपनी सुर्खी बनाया है।
उन्होंने अपने भाषण में कहा है, “अगर देश में पहले से ही पर्याप्त संख्या में मेडिकल कॉलेज बनाये गये होते तो हमें डाक्टरों की जो कमी आज हो रही है, वह नहीं होती। यदि हर घर को पानी मिल गया होता तो हमें 3.5 लाख करोड़ रुपये की ‘जल जीवन मिशन योजना’ नहीं शुरू करनी पड़ती।” जल जीवन मिशन योजना में करीब 2 लाख करोड़ रुपये केंद्र सरकार की ओर से दिए जाने हैं, शेष राज्य सरकारों को वहन करना है।
लेकिन क्या यह सब इतना सरल है? समूचे देश के प्रत्येक जिले में मेडिकल कॉलेज बनाने का लक्ष्य भाजपा ने पेश किया है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि जो अस्पताल पहले से उपलब्ध हैं, उनमें ही डॉक्टर, नर्सिंग स्टाफ सहित आवश्यक मेडिकल उपकरण की भयानक कमी नहीं बनी हुई है? कई मामलों में पहले के जिला अस्पताल आज के मेडिकल कॉलेजों में उपलब्ध कराई जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं से बेहतर स्थिति में थे। इसे सबसे बेहतर तरीके से दिल्ली के एम्स और कई राज्यों की राजधानियों में निर्मित एम्स अस्पतालों से तुलना कर आसानी से समझा जा सकता है।
राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग की वेबसाइट जाने पर आप कुल 682 मेडिकल कॉलेजों की सूची पाएंगे। इसके अनुसार वर्तमान में कुल 1,04,483 सीटें उपलब्ध हैं। औसतन एक मेडिकल कॉलेज में प्रति वर्ष 150 एमबीबीएस छात्रों को प्रवेश दिया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के लिहाज से प्रति 1000 की आबादी पर कम से कम 1 चिकित्सक की नियुक्ति आवश्यक है। डब्ल्यूएचओ के मानकों के लिहाज से प्रति 11 राज्यों में से एक राज्य इस मानक को पूरा कर पाता है। कुछ राज्यों में यह औसत डब्ल्यूएचओ से बेहतर है। केरल, कर्नाटक में यह घनत्व 1.5, तो तमिलनाडु में 4, दिल्ली में 3, और पंजाब और गोवा में 1.3 है। लेकिन अन्य राज्यों में ऐसी स्थिति नहीं है।
पिछले साल जुलाई माह में केंद्रीय राज्य मंत्री प्रवीण पवार ने लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में सूचित किया था कि भारत में प्रति 854 लोगों पर एक डॉक्टर की उपलब्धता है जो विश्व स्वाथ्य संगठन के मानक 1:1000 से बेहतर है। राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग से प्राप्त जानकारी के अनुसार देश में कुल 13,08,009 एलोपैथिक डॉक्टर थे। लेकिन इसके साथ यदि 5.65 लाख आयुर्वेदिक डॉक्टर्स को भी जोड़ देते हैं तो उसके आधार पर 1:854 का आधार बनता है, जो कि भ्रामक है। इसके साथ ही क्षेत्रीय असमानता का आलम यह है कि तमिलनाडु में जहां 1000 की आबादी पर 4 डॉक्टर की उपलब्धता है, झारखण्ड राज्य में प्रति 8000 लोगों पर 1 डॉक्टर की उपलब्धता एक कड़वी सच्चाई है। इसी प्रकार हरियाणा में यह 4000+ है तो यूपी और बिहार जैसे राज्यों में 3000+ लोगों पर एक डॉक्टर की उपलब्धता बताती है कि व्यापक आबादी को आज भी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधायें मयस्सर होना एक दूर की कौड़ी बनी हुई है।
पिछले वर्ष 15 अप्रैल को पीएम मोदी ने गुजरात में एक मेडिकल कॉलेज का उद्घाटन करते हुए घोषणा की थी कि भविष्य में भारत में रिकॉर्ड संख्या में डॉक्टरों की संख्या होगी। यूपी विधानसभा चुनावों के दौरान एक के बाद एक दर्जन भर मेडिकल कॉलेज का उद्घाटन किया गया था। लेकिन क्या इतनी बड़ी संख्या में मेडिकल कॉलेज और एमबीबीएस डॉक्टरों की नियुक्ति से देश में चिकित्सा क्षेत्र में हालात सुधरे हैं? कई नए मेडिकल कॉलेज तो पीपीपी मॉडल पर बनाये जा रहे थे, जिनके बारे में सूचना है कि अधिकांश में काम ठप पड़ा है।
यह सही है कि 2014 के बाद से देश में मेडिकल कॉलेजों की संख्या में लगातार तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2013-14 में कुल 387 मेडिकल कॉलेज से जहां 51,348 मेडिकल छात्र प्रवेश पाते थे, यह आंकड़ा 2021-22 में 88,120 हो चुका था। लेकिन मेडिकल कॉलेजों में शिक्षण कार्यों के लिए की जाने वाली स्थायी नियुक्तियों का अकाल बना हुआ है। प्राइवेट मेडिकल कॉलेज ही नहीं सरकारी कॉलेज में भी अस्थाई आधार पर नियुक्तियां जारी हैं, और गुणवत्तापूर्ण मेडिकल शिक्षा से समझौता किया जा रहा है।
लेकिन इससे भी बड़ी चिंता की बात तो यह है कि एक के बाद एक मेडिकल कॉलेज का उद्घाटन तो हो जाता है, लेकिन डाक्टर्स, नर्सिंग स्टाफ सहित आवश्यक चिकत्सीय उपकरण का अभाव बड़े पैमाने पर देखा जा सकता है। अमेरिकी न्यूज़ एजेंसी रायटर्स ने कल ही इस बारे में एक खबर दी है, जिसे भारतीय अंग्रेजी समाचारपत्रों ने प्रमुखता से जगह दी है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि किस प्रकार देश की राजधानी दिल्ली से लगभग 1200 किमी की दूरी तय कर बिहार से मिथिलेश चौधरी अपने दादा के साथ दमा का इलाज कराने ‘आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस’ (एम्स) आया हुआ है। पिछले दो दिनों से पर्चा बनाने के लिए उसे लाइन में लगना पड़ रहा है, लेकिन अभी भी उसका नंबर नहीं आया है।
गरीबी और लाचारी के चलते मिथिलेश का परिवार एम्स अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर रात बिता रहा है, और सुबह होते ही जांच होने की आस में पर्ची बनवाने के लिए लंबी कतार में लग जाता है। मिथिलेश के दादा भीमलाल ने बताया, “हम पिछली दो रातों से फुटपाथ पर सो रहे हैं।”अपने जिले के कई अस्पतालों में मिथिलेश के इलाज के लिए दौड़-धूप की, लेकिन अच्छा डॉक्टर नहीं मिला। एक निजी अस्पताल के डॉक्टर ने अंत में सलाह दी कि दिल्ली के एम्स अस्पताल में जाकर मरीज को दिखाओ, इसलिए यहां पहुंचे हैं। आज भारत की मेडिकल व्यवस्था की यह कहानी और वीडियो दुनियाभर में देखी जा रही है, लेकिन भारत के लिए यह सच्चाई कोई अजूबा नहीं है।
कागजों पर और जमीन पर भी कई हद तक मेडिकल सेवाओं में देश ने काफी सुधार किया है। इसके लिए दिल्ली के एम्स की तर्ज पर अनेकों मेडिकल कालेज तक खुल गये हैं। बिहार की राजधानी पटना में भी एम्स आबाद है। इसी तरह दर्जनों एम्स और मेडिकल कालेज खड़े कर दिए गये हैं। लेकिन समुचित चिकित्सा के लिए आज भी देश में सरकारी चिकित्सा प्राप्त करने के लिए सभी के लिए चंद अस्पतालों के नाम ही याद होंगे। प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों में डाक्टर की नियुक्ति होती है तो अक्सर आप वहां पर केमिस्ट के हाथों ईलाज पायेंगे। समूचा ग्रामीण भारत आज अदृश्य हो चुके डाक्टरों और चिकित्साकर्मियों की मार से बेहाल है।
पीएम मोदी की आयुष्मान भारत योजना भारत के गरीब परिवारों के लिए एक वरदान के रूप में पेश की गई। लेकिन उसकी भी जमीनी हकीकत होश उड़ाने वाली है। अधिकांश मामलों में निजी अस्पताल और नर्सिंग होम पहले तो साफ़ मना कर देते हैं कि उक्त बीमारी का निदान या सर्जरी उनके अस्पताल में उपलब्ध नहीं है। इसके साथ ही अब कई अस्पताल सर्जरी के बाद भुगतान की समस्या से तंग आकर खुद को इस स्कीम से बाहर कर चुके हैं। लेकिन सरकारी कागजों और चुनावी भाषणों में दिखाने के लिए आयुष्मान योजना की मुनादी अभी भी जोरशोर से बज रही है। जो लोग इससे अछूते रह गये हैं, और खुद को विपन्न श्रेणी में पाते हैं उनके लिए आयुष्मान कार्ड को पाना एक उपलब्धि ही होगी। संभवतः इसी को ध्यान में रखते हुए आगामी 2024 लोकसभा के मद्देनजर आयुष्मान योजना को विस्तारित करने की योजना सरकार बना रही है।
इसका एक नकारात्मक असर यह हुआ है कि जो भी लचर ही सही सरकारी स्वास्थ्य योजना व्यापक स्तर पर अपने वजूद में थी, उससे भी आम लोगों ने दूरी बनानी शुरू कर दी है। आयुष्मान कार्ड से भविष्य में मेडिकल सुविधा को हासिल कर लेने का भरोसा मौजूदा सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को सिमटाने में मददगार ही साबित हो रहा है। कुछ राज्यों में तो सरकारी अस्पतालों को निजी तौर पर लीज पर आवंटित कर दिया गया है। शिक्षा के बाद स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से सरकार का संबंध विच्छेद कितना भयावह हो सकता है, इसकी एक बानगी देश कोविड-19 महामारी के दौरान महसूस कर चुका है।
यूरोप के कई देशों ने इस सबक को गहराई से आत्मसात किया और वहां पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को पहली प्राथमिकता पर लिया जा रहा है। भारत जैसे विकासशील देश में लाखों लोगों की मौत और उससे भी कई गुना लोगों को आये दिन कोविड के बाद के लक्षणों के चलते लगातार चिकित्सकीय परीक्षण से गुजरने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, फिर भी एक बड़ी समस्या के रूप में नहीं लिया जा रहा है। इसकी वजह साफ़ है, क्योंकि भारत में आज रोजी-रोटी और भविष्य को सुरक्षित बनाने से ही 90% आबादी को फुर्सत नहीं है। लाखों लोगों की अकारण मौत के बाद भी बचे हुए लोगों के पास दो जून की रोटी और बच्चों को उचित शिक्षा का लक्ष्य एक सपना बना हुआ है, उसमें स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में जागरूकता का पहलू निश्चित ही पीछे छूट जाता है।
ऊपर से 1 अप्रैल 2023 से देश में 384 जीवन रक्षक दवाओं में 11% की बढ़ोत्तरी निश्चित ही इस दावे को झूठा साबित कर रही है। देश में मेडिकल कॉलेजों की संख्या में इजाफा और 140 करोड़ लोगों के लिए सस्ता, सुलभ इलाज मुहैय्या कराना ये दो अलग-अलग चीजें हैं। एक से ग्लास आधा भरा नजर आएगा और लगेगा देश में सचमुच में कुछ अच्छा हो रहा है। लेकिन गौर से देखने पर पता चलता है कि इन इमारतों को वास्तविक अर्थों में मेडिकल कालेज बनाने के लिए अभी भी चिकित्सकों, नर्सिंग स्टाफ, सहायकों सहित अत्याधुनिक चिकत्सकीय उपकरणों के साथ-साथ स्वयं एमबीबीएस डाक्टरों की इस नई फ़ौज के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सबसे पहली शर्त है। इसी के साथ ग्रामीण भारत में चिकित्सकों के लिए रुचिकर स्थितियां बनाना भी उतना ही आवश्यक है, वरना चाहे कितने भी भवन बना लें, देश के दूर-दराज के लोगों के लिए स्वास्थ्य विपदा के बीच में दिल्ली का एम्स, लखनऊ और चंडीगढ़ के पीजीआई के अलावा कोई दूसरा आसरा नहीं रहने वाला है।
(रविंद्र पटवाल की रिपोर्ट।)
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