Friday, April 19, 2024

फासीवाद का विरोध: लोकतंत्र ‌के मोर्चे पर औरतें

दबे पांव अंधेरा आ रहा था। मुल्क के सियासतदां और जम्हूरियत के झंडाबरदार अंधेरे की शनै: शनै: हो रहे विस्तार को देख रहे थे। हमारी जम्हूरियत विश्व फासीवाद के विध्वंसकारी अवसान की डरावनी स्मृतियों के बीच ही आकार ले रही थी। फासीवाद के मलवे पर दुनिया में आजादी, ‌लोकतंत्र और समाजवाद की बुनियाद पुख्ता हुई। संभवतः लोकतंत्र प्रेमियों के मन में फासीवाद की मरणांतक पराजय के बाद भविष्य में उसके पुनरुत्थान के खतरे को लेकर चिंता लगभग खत्म हो गई थी। धरती पर स्वतंत्रता समता बंधुत्व और समाजवाद का परचम लहरा रहा था। ऐसी स्थिति में फासीवाद को जन्म देने वाली भौतिक परिस्थितियों (वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी समूह) के प्रति निगाहें ओझल हो जाना स्वाभाविक था। आजादी की मदहोशी में हमारे मुल्क में भी ऐसा ही हुआ।

हालांकि 1950 के आसपास कुछ राजनेता जिनमें पंडित नेहरू, श्रीपाद अमृत डांगे जैसे चिंतक थे। जो भारत में गांधी जी की हत्या और बंटवारे के समय हुए खूनी खेल को देखकर फासीवाद के आसन्न खतरे के प्रति सचेत थे। वे गांधी जैसे युगपुरुष की हत्या के बाद हिंदुत्व फासीवाद की विस्तारित हो रही आंतरिक ताकत और भारतीय समाज में गहरे तक धंसी हुई उसकी जड़ों को देख रहे थे। डॉक्टर अंबेडकर भारत के सामाजिक भूमि को फासीवाद के लिए नव स्वतंत्र देशों में सबसे उर्वर भूमि के बतौर संविधान सभा में ही घोषणा कर चुके थे। और चिंता व्यक्त की थी कि अगर वर्ण जाति व्यवस्था को जड़-मूल से खत्म नहीं किया गया तो राजनीतिक आजादी भी सुरक्षित नहीं रहेगी।

निम्न पूंजीवादी नेतृत्व वाली पार्टियों के सामने तात्कालिक लक्ष्य प्रधान होते हैं। इसलिए उन्होंने फासीवाद के खतरे को कम करके आंका और उसे सामाजिक वैधता देकर राजनीति की मुख्यधारा में ले आकर जीवनामृत प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई। (1967 की संविद सरकारें और 1977 की जनता पार्टी) अंध कम्युनिज्म विरोध पर खड़ी पूंजीवादी लोकतांत्रिक दुनिया फासीवाद के खतरे को या तो अनदेखा कर रही थी या उसे बचाये रखना चाहती थी। जिससे पूंजीवाद के असाध्य संकट के समय फासीवाद को आगे किया जा सके। भारत में भी विभिन्न कारणों से ऐसा ही हुआ।

अब तो 2014 के बाद फासीवाद भारतीय समाज का यथार्थ बन चुका है। अब वह काल्पनिक खतरा नहीं है। बल्कि केंद्र की सत्ता पर कब्जा करने के बाद हमारे देश के लोकतंत्र और समाज के लिए बड़ी चुनौती बन खड़ा है। सत्ता ‌में आने के बाद अपने प्रकृति के अनुसार वह लोकतांत्रिक संस्थाओं मूल्यों और सामाजिक विविधताओं से बने जटिल भारतीय समाज और उसके मिले-जुले संबंधों संस्कृतियों पर हमला कर रहा है।

लोकतंत्रिक संस्थाओं पर कब्जा करने के बाद वह एक काल्पनिक भय का सृजन करते हुए लोकतांत्रिक व्यक्तियों, वैज्ञानिकों, तर्क वादियों और साम्यवादियों से लेकर सभी तरह के अल्पसंख्यक समूहों को हर तरह से डराने-धमकाने और चुप करा देने के लिए पूरी ताकत झोंक चुका है। (ताजा उदाहरण मणिपुर) उसके पीछे कॉर्पोरेट पूंजी की लुटेरी ताकत खड़ी है। वर्ण-जाति का ब्राह्मणवादी ढांचा फासीवाद की सेवा में लगा है। जाति भेद पर खड़ा सामाजिक ढांचा गैर बराबरी की उर्वरक भूमि पर टिका होता है।

ऐसी स्थितियों में 2014 के महानिर्वाचन में कॉर्पोरेट पूंजी की ताकत के बल पर मोदी की विजय भारत के लोकतंत्र के भविष्य के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुई।

पहला, 2014 में जीत कर आने के बाद मोदी के निशाने पर सबसे पहले उनकी पार्टी थी। चुनाव के पहले ही गुरु आडवाणी को किनारे लगाकर मोदी पार्टी में लगभग सर्व शक्ति संपन्न हो गए थे। उन्होंने एक-एक कर पुराने महारथियों को किनारे करना शुरू किया। अपने पूर्व सहयोगी गुजरात की राजनीति और समाज में बदनाम अमित शाह को भाजपा का अध्यक्ष बनाकर मोदी ने पार्टी पर पूर्णतया अपना प्राधिकार कायम कर लिया। जो जस्टिस लोया की मौत के बाद तुरंत ही नए जज द्वारा दोष मुक्त कर दिए गए थे। पार्टी पर कब्जे के बाद मोदी ने सत्ता संस्थानों को धीरे-धीरे नियंत्रण में लेना शुरू किया। इसका चरम तब आया जब सीबीआई में आलोक वर्मा को रात्रि के 1 बजे निदेशक पद से हटा दिया गया।

दूसरा, न्यायपालिका पर पड़ रहे दबाव का भांडा 4 जजों द्वारा की जाने वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस के साथ फूट गया। इसी तरह सेना और नौकरशाही के ढांचे में अनेक तरह के परिवर्तन किए गए। धीरे-धीरे सभी संस्थानों की संवैधानिक स्वायत्तता को खत्म करते हुए मोदी ने भारतीय राज्य यंत्र को अपने कब्जे में कर लिया। इसके बाद शुरू हुआ विध्वंसक अभियान। पहले कार्यकाल में मोदी ने कॉर्पोरेट परस्त नीतियों को लागू करने तथा सत्ता के समानांतर संघ के अपराधी गिरोहों को मजबूत करने में अपनी शक्ति लगाई। संपूर्ण विमर्श लोकतंत्रवादियों मानवाधिकार संगठनों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ केंद्रित किया गया। कम्युनिस्ट तो पुराने शत्रु थे ही। जिसके कुछ बड़े उदाहरण है।

एक-2013 के भूमि अधिग्रहण और संरक्षण कानून को अध्यादेश के द्वारा पलटना।

दो-सत्ता की ताकत का खुला दुरुपयोग करते हुए मीडिया संस्थानों से लोकतांत्रिक आवाजों को बाहर करा देना।

तीन-शिक्षण संस्थाओं खासकर विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता खत्म कर संघ के व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाकर सांप्रदायिक नीतियों को लागू किया जाना।

चार-अल्पसंख्यकों दलितों और तर्क वादियों पर श्रृंखलाबद्ध हमले शुरू होना। इसमें भीमा कोरेगांव के दलित समारोह के बाद प्रगतिशील और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी, जेएनयू पर हमला, अखलाक की हत्या, कठुआ, उन्नाव और हाथरस के बलात्कार आदि। रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और दलित राष्ट्रपति आने के बाद अनुसूचित जाति के आरक्षण को‌ कमजोर करना।

पांच-महिला सुरक्षा से संबंधित कानूनों को नख-दंत विहीन करना।

छह-बाबरी मस्जिद को कानूनी तौर पर (गोगोई को दबाव में लाकर) न्यायालय द्वारा अपराधियों को सौंप देने के बाद मोदी ने लोकतांत्रिक खोल उतार कर हिंदुत्व का चोला ओढ़ लिया।

पहले कार्यकाल की प्रमुख उपलब्धियों में मोदी की हिंदुत्व के मजबूत नेता की छवि ‘जो गुजरात नरसंहार से निर्मित हुई थी’ उसे और पुख्ता किया जाना है। हिंदुत्व की बुनियाद जाति-वर्ण विभाजन पर टिकी है। इसके निचले पायदान पर दलित पिछड़े और महिलाएं आती हैं।

अगर भारत की विशिष्टता को जोड़ कर देखें तो धार्मिक भाषाई नस्लीय (नृजातीय) अल्पसंख्यक समूह चौथी श्रेणी में आ जाते हैं। (हिंदुत्व की आत्मा में “दलित पिछड़े और महिला समूह” सबसे घृणित और उपेक्षित तबके हैं। जिन्हें किसी भी स्तर पर बराबरी का दर्जा नहीं दिया जा सकता) लेकिन संघ नीति सरकार ने धूर्तता पूर्वक अल्पसंख्यकों को प्राथमिकता में निशाने पर लिया। उनके खिलाफ हिंदुत्ववादियों द्वारा पिछले 100 वर्षों से अनवरत अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान की एक लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है।

इसलिए मोदी के पहले कार्यकाल से ही जो नीतियां ली गई उनकी अंतरात्मा जहां कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा संचालित थी। वहीं उनकी धार स्वाभाविक तौर पर अल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों के खिलाफ केंद्रित होती गई। जिससे इन सब तबकों में सरकार के प्रति विरोध बढ़ा। दलितों ने सरकार के खिलाफ बड़े-बड़े मोर्चे लगाए। लेकिन एक समय आया जब औरतों ने हिंदुत्व फासीवाद के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व संभाल लिया। जिसे हम पिछले 9 वर्षों के दौरान स्पष्ट रुप से देख रहे हैं।

दूसरा कार्यकाल-पुलवामा की घटना की पृष्ठभूमि में 2019 का चुनाव जीतने के बाद मोदी का असली चेहरा सामने आ गया। वे संघ के घोषित एजेंडे को डंके की चोट पर लागू करने लगे। सर्वप्रथम राजशक्ति का प्रयोग करते हुए कश्मीर का विभाजन कर धारा 370 को हटा दिया गया। भारी दमन शुरू हुआ। कश्मीर में तीखे जनविरोध के अलावा शेष भारत में इस सवाल पर बड़ा प्रतिवाद नहीं खड़ा किया जा सका। जिसके परिणामस्वरुप आज कश्मीर और ज्यादा अलगाव में चला गया है।

दूसरा-संघ की बहुत पुरानी नीति रही है की भारत के अल्पसंख्यकों को किसी न किसी बहाने संदिग्ध बताकर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया जाय। मुसलमानों का दानवीकरण कर उनकी पूरी आबादी को शंका के घेरे में ला दिया जाए। संघ का घुसपैठिए का नारा बहुत पुराना है। जिसको केंद्र कर वह पूर्वोत्तर भारत में राजनीतिक आधार खड़ा करने में लगा रहा है। दूसरे कार्यकाल की दूसरा बड़ा नीतिगत फैसला सीएए-एनआरसी को लागू करना था। नागरिकता की नई परिभाषा सावरकर की घोषणा के आधार पर बनाई गई। जिसमें धर्म को घुसा दिया गया। जो भारत के संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।

भारत के नागरिकों को सरकार द्वारा निर्धारित (संघनीति) नियमों के आधार पर नागरिकता प्रमाणित करने के लिए कानून बनाने का फैसला आया। अमित शाह घूम-घूम कर कहने लगे की एनआरसी को पूरे देश में लागू कर एक-एक घुसपैठिये को चुन-चुन कर देश से बाहर निकाला जाएगा। ज्योंहि यह कानून बहस के लिए लाया गया। सम्पूर्ण देश में अल्पसंख्यकों सहित सभी लोकतांत्रिक नागरिक सशंकित हो गए और इसका विरोध संसद और संसद के बाहर सड़कों पर शुरू हो गया। लेकिन सरकार अपनी योजनानुसार आगे बढ़ती रही। खबरें आने लगी की असम सहित भारत के अनेक इलाकों में डिटेंशन कैंप बनाए जा रहे हैं।

शुरू में एनआरसी को असम और पूर्वोत्तर भारत तक सीमित रखा जाना था। असम के नागरिकों को नागरिकता प्रमाणित करने के लिए सरकार द्वारा निर्धारित पैमाने पर खरा उतरना था। जहां एनआरसी लागू कर दी गई थी। खबरें आने लगीं कि करीब 17 लाख लोग (एक आंकड़ के अनुसार 32 लाख) अपनी नागरिकता प्रमाणित नहीं कर सके। उसमें कई ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति भी थे जो भारतीय सेना में रहते हुए मोर्चों पर लड़े थे और सरकार द्वारा सम्मानित हो चुके थे।

यह खबर भी आयी कि पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का परिवार भी नागरिकता प्रमाणित करने में असफल रहा है। ऐसे नागरिकों को डिटेंशन कैंपों में भेजा जाने लगा। जो जानकारी मिली थी उसमें 13 लाख से ज्यादा हिंदू भी नागरिकता प्रमाणित नहीं कर सके। ये डिटेंशन कैंप मनुष्य के लिए नारकीय जीवन जीने के साथ अघोषित कैदखाने थे। जहां तिल-तिल कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। पाकिस्तान अफगानिस्तान और बांग्लादेश से हिंदुओं सिखों बौद्धों को भारत लाकर नागरिकता देने का कानून में प्रावधान भी रखा गया। (उदारता या सांप्रदायिक विभाजन)

जब दादियों और बेटियों ने मोर्चा संभाला-कानून का विरोध करने वालों पर मुसलमान परस्त, देशद्रोही, आतंकी, घुसपैठियों का हमदर्द घोषित किया जाने लगा। उत्तर प्रदेश सहित कई राज्य में अल्पसंख्यकों के विरोध का भारी दमन हुआ। अनेकों लोग मारे गए। मुस्लिमों सहित नागरिक समाज “जिसमें छात्र नौजवान और बुद्धिजीवी थे” जेलों में डाला जाने लगा। उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाइयों की तैयारी शुरू हुई। इस परिस्थिति में दिल्ली के शाहीन बाग में छोटी बच्चियों से लेकर 80 साल की दादियों तक ने मोर्चा संभाल लिया जो भारत के इतिहास का अपने तरह का अनूठा प्रतिरोध था। जिस पर दुनिया की निगाहें गई। इतिहास के शब्दकोश में “शाहीन बाग” नाम का नया शब्द जुड़ गया।

महिलाओं का महिलाओं के नेतृत्व में संचालित आंदोलन- “शाहीन बाग”-राजधानी दिल्ली में सरकार के नाक के नीचे शाहीनबाग मोहल्ले में हजारों महिलाएं एनआरसी के विरोध में सड़क पर आकर बैठ गई। इनके खिलाफ आरएसएस नीति भाजपा सरकार और गोदी मीडिया दुर्भावनापूर्ण प्रचार में उतर पड़े। आंदोलन के खिलाफ दमन करने का रास्ता चुना गया। लेकिन दादियों और नानियों के नेतृत्व में शांतिपूर्ण आंदोलन चलता रहा। वे सड़क पर बैठी रहीं। इनसे बातचीत करने के बाद कोई भी आदमी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। शाहीन बाग का प्रभाव और विचार आग की तरह पूरे देश में फैलने लगा। देखते-देखते देश के लगभग सभी राज्यों महानगरों कस्बों तक में शाहीनबाग जन्म लेने लगे। (जानकारी के अनुसार पूरे भारत में 355 जगहों पर) हर जगह नागरिक समाज इनके साथ मजबूती से डटा रहा।

शाहीन बाग नारी मुक्ति का प्रतीक-

दलित और अल्पसंख्यक बेटियां और औरतों के खिलाफ सरकार का रवैया दमनकारी रहा। दुष्प्रचार चरित्र हनन के साथ ही समानांतर सत्ता केंद्रों द्वारा पुलिस के संरक्षण में हमले प्रायोजित किये जाने लगे। इसमें शाहीन बाग पर गोली चलाने वाले लंपटों सहित सरकार के जिम्मेदार लोग आंदोलन के दमन का आवाहन करने लगे। अमित शाह ने तो दिल्ली चुनाव को ‘शाहीनबाग बनाम भाजपा’ बना देने की कोशिश की। सभी तरह के उकसावे दुष्प्रचार हमले से निरपेक्ष रहते हुए शाहीन बाग की औरतों ने दुनिया में नए तरह का शांतिपूर्ण आंदोलन का इतिहास रच डाला। जिन मुस्लिम औरतों के बारे में भाजपा और संघ का प्रचार तंत्र लगातार पीड़ित शोषित पुरुषों के अत्याचार की शिकार घरों में कैद की जाने वाली और अपढ़ कूपमंडूक न जाने कितने विशेषणों से नवाजा जाता रहा है। वही लड़कियां और औरतें वीरांगना बन सत्याग्रह के मंच पर आ गई। सच में भारत की आधी मानव शक्ति की उर्जा क्षमता और योग्यता को दुनिया ने अचंभित होकर देखा।

सरकार के हाथ पांव फूल गए। शाहीन बाग की रोशनी पूरे देश में फैलती जा रही थी। अंत में भाजपा ने दिल्ली को दंगे की आग में जलाकर शाहीन बाग को खत्म करने का षड्यंत्र रचा। अनेकों लड़कियों को जो इस आंदोलन की नेता थी। जेलों में डाल दिया गया। गुलफिसां, सफूरा जरगर, देवांगना कलिता, नताशा नरवल जैसे नाम लोगों की जुबां पर चढ़ गए। जो जेलों में रहते हुए प्रतिरोध साहस और कुर्बानियों की मिसाल बन गईं। शायद स्वतंत्रता आंदोलन के बाद ऐसी बहादुर नायिकाएं लोकतंत्र के लिए संघर्ष के मैदान में पहली बार दिखी। (भीमा कोरेगांव के केस में जेल में बंद सुधा भारद्वाज को भी याद किया जाना चाहिए।) इस तरह औरतें फासीवाद के खिलाफ लोकतंत्र के संघर्ष के मोर्चे की अग्रिम कतार में आ डटी।

किसान आंदोलन-कोविड-19 के बीच शाहीनबाग को पीछे हटना पड़ा। लेकिन उसकी लोकतांत्रिक प्रतिरोध की उर्जा भारत की महिलाओं के दिलो-दिमाग और चेतना में भर गई थी। इसलिए जब कोविड-19 की पहली लहर उतरते ही तीन कृषि कानूनों अध्यादेश द्वारा लाए गए तो हजारों किसान 26 नवंबर को दिल्ली की तरफ कूच कर दिए। तो किसान महिलाएं उनके बगल में आ डटीं। जिन लोगों ने टिकरी सिंघू और गाजीपुर बार्डर पर महिलाओं का जुझारू तेवर सहनशीलता और सेवा देखी है। वे निश्चित ही इस बात को स्वीकार करेंगे कि कॉर्पोरेट फासीवाद के हमले का सबसे बड़ी प्रतिरोधक शक्ति महिलाएं हैं।

बॉर्डर पर संघ परिवार के हमलावरों ने जब भी किसान आंदोलन पर हमले की कोशिश की तब पंजाब के साथ हरियाणा और आसपास की हजारों महिलाएं दिल्ली की तरफ दौड़ पड़ी। इस आंदोलन में कई महिला नेता जैसे जसवीर कौर, नवकिरण नथ आदि चर्चा में आई। इन्हें शाहीन बाग की दादियों और बेटियों की तरफ ख्याति मिली। कई महिलाएं तो किसान आंदोलन में बॉर्डर पर शहीद हुईं।

जामिया, डीयू और जेएनयू की छात्राएं- मोदी सरकार आने के बाद शिक्षा और शिक्षण संस्थानों पर सुनियोजित हमले शुरू हुए। तो छात्राएं हमले के विरोध में चले आंदोलन की अग्रिम कतार में आ गई। जिन्हें अमित शाह की पुलिस का दमन भी झेलना पड़ा। जामिया और जेएनयू की छात्राओं पर तो एबीवीपी गुंडों ने हमला किया। छात्रों के साथ छात्राएं और महिला शिक्षक भी घायल हुए। कोमल शर्मा नामक विद्यार्थी परिषद की नेता जिसके ऊपर एफआईआर दर्ज है। अभी तक पकड़ी नहीं जा सकी। जबकि वह सार्वजनिक मंचों पर दिखाई देती रहती है। इन आंदोलनों में शामिल कई लड़कियां को जेल जाना पड़ा। लेकिन इतिहास याद करेगा कि जब फासिज्म का सुनियोजित हमला शिक्षण केंद्रों पर शुरू हुआ तो प्रतिरोध की कतार में ‌छात्राएं भी पीछे नहीं रही।

उन्नाव, कठुआ, हाथरस में बलात्कार और हत्याएं हुई तो महिलाएं इसके प्रतिरोध में बढ़-चढ़कर उतरी। अगर कुलदीप सेंगर के खिलाफ पूरे देश में नागरिक समाज के साथ महिलाएं एकजुट नहीं हुई होती तो शायद उसे सजा दिला पाना संभव न होता। यही स्थिति जम्मू के कठुआ और उत्तर प्रदेश के हाथरस में भी देखने को मिला।

2023, महिला पहलवान और फासीवाद- जाति वर्ण वाले पुरुष प्रधान समाज ‌में बलात्कार एक हथियार है। जिसे ‌महिलाओं के आत्मसम्मान और गरिमा को ध्वस्त करने के लिए सचेतन तौर पर प्रयोग किया जाता है। बजरंग दल, विहिप के गुंडे दंगों में आमतौर पर बलात्कार को मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं। गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक कई राज्यों में इसे अस्त्र की‌ तरह आजमाया‌ गया। गुजरात यूपी में दंगों के दौरान हुए बलात्कार में कई भाजपाइयों को सजाएं हुई है। लेकिन दर्जनों केस ऐसे हैं जहां बलात्कारी अभी भी छुट्टा घूम रहे हैं।

महिला पहलवानों द्वारा लगाए गए आरोप इसी बात की पुष्टि करते हैं। कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह ने पिछले 14 वर्षों में महासंघ को महिला रेसलर के लिए यातना गृह में बदल दिया है (आपने विनेश फोगाट, साक्षी मलिक द्वारा पुलिस और प्रेस को दिए गये बयान देखे होंगे)। कुश्ती संघ में जो कुछ हुआ है। अभी उसका बहुत छोटा हिस्सा सामने आया है। अगर खेल संघों की समग्र जांच कराई जाए तो बहुत कुछ सामने आ सकता है। महिला पहलवानों द्वारा प्रधानमंत्री के समक्ष और विभिन्न जगहों पर उठाए गए सवाल इस बात की गवाही देते हैं कि मोदी राज महिलाओं के लिए कितना यातनादायी हो चुका है।

एक सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि लड़कियों का पहलवान बनना स्वयं एक बहुत बड़ा आत्म संघर्ष है। इस संघर्ष के कई आयाम होते हैं। परिवार, समाज, पुरुष सत्तावादी समाज की मानसिकता और सामाजिक रूढ़ियों से लड़कर ही कोई लड़की पहलवान बनने की सोच सकती है। यह उसका पितृसत्तात्मक सामंती समाज में लोकतंत्र के लिए लड़ा गया महान संघर्ष है। इसलिए अखाड़े में उतरते हुए वह मूलतः एक बदली हुई लोकतांत्रिक नागरिक बन चुकी होती हैं।

यहां सवाल सिर्फ बलात्कार पर कार्रवाई की ही नहीं है। बल्कि उससे बहुत आगे जा चुका है। जहां मोदी सरकार बलात्कारियों के साथ खड़ी होकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त महिला पहलवानों के साथ क्रूरता बर्बरता की सारी हदें पार कर रही है। लेकिन बधाई देना चाहिए महिला पहलवानों को कि उन्होंने इस अंधकार भरे दौर में सार्वजनिक मंच पर आकर बच्चियों के साथ कुश्ती संघ के अध्यक्ष द्वारा किए गए यौन शोषण के सवाल को उठाया है। जो अध्यक्ष सवर्ण सामंती पुरुषवादी सत्ता का सबसे खूंखार चेहरा है।

खुशनुमा महलों और अपने आरामगाहों में सुरक्षित लोग इस पर बहस चला रहे हैं कि अब तक इन लड़कियों ने यह सवाल क्यों नहीं उठाया। उनकी मध्यवर्गीय भीरुता और लिजलिजी संवेदना पर शर्म आती है।

महिला पहलवानों का संघर्ष भारत में फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के एक नए युग की शुरुआत है। हम उम्मीद करते हैं कि यह शुरुआत भारत में नवजागरण का आधार बनेगा। 28 मई को जब भारत की नई संसद का उद्घाटन हो रहा था तो महिला पहलवान फासिज्म के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष के मैदान में डटी थी। इसलिए उन्हें जंतर-मंतर की सड़कों और पुलिस थानों में अमानवीय पीड़ा और यातना से गुजरना पड़ा। उनके धरनास्थल के कैंप उखाड़ दिए गए और घोषणा कर दी गई कि आंदोलन समाप्त हो गया है।

खेल के मैदान और सम्मान के संघर्ष में अप्रतिम साहस और शक्ति दिखाने वाली महिला पहलवानों ने इस बर्बरता के बाद भी ऐलान किया कि वह लड़ाई हारी नहीं है। उनका आंदोलन जारी रहेगा और बलात्कारी के खिलाफ लड़ाई अंतिम दम तक लड़ी जाएगी।

वर्षों तक अनेकों यातना सहने के बाद अब महिलाएं अपनी स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष के मंच पर आ खड़ी हुई हैं। तो हमें समझ लेना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र के लिए संघर्ष अब नई मंजिल में प्रवेश कर चुका है। जो निश्चय ही भारत में नए सामाजिक जागरण का वाहक बनेगा। खाप पंचायतों के पुरुषवादी समाज में पली-बढ़ी लड़कियां अगर पुरुष सत्ता (हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़) के सबसे खूंखार हथियार बलात्कार के अपराधी को पूरी क्षमता के साथ चुनौती दे रही हैं। तो समझ लेना चाहिए कि वे भारत में लोकतंत्र के संघर्ष की नेतृत्वकारी भूमिका में आ चुकी है।

महिला सम्मान और आधिकारों के लिए संघर्षों का फैलता दायरा- आज हम जिधर भी निगाह उठा कर देख रहे हैं। महिलाएं संघर्ष के मोर्चे की अग्रिम कतार में हैं। चाहे वह आशाकर्मी हो, पैरा-शिक्षक हो, आंगनबाड़ी, रसोईयां, घरेलू महिला कामगारिनें हों या खेत मजदूर महिलाएं। सभी बेहतर सुविधाएं और लोकतांत्रिक व्यवहार के लिए संघर्ष के मोर्चे पर लड़ती हुई दिखाई दे रही हैं।

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ती औरतों से लेकर जल-जंगल-जमीन और अपनी सभ्यता बचाने तक के संघर्षों में उतरती आदिवासी महिलाएं आज भारत में लोकतंत्र बचाने की वीरांगना हैं।

हमें उम्मीद है महिला पहलवानों का यह संघर्ष महिलाओं के साथ सभी लोकतांत्रिक ताकतों को नई राह दिखाएगा। अनेकानेक उत्पीड़ित समाज महिला पहलवानों के संघर्ष से प्रेरणा लेकर हिंदुत्व फासीवाद के खिलाफ मोर्चे पर आएंगे। फासीवाद के खिलाफ शहीद पोलिश महिला नेता रोजा लक्जमबर्ग की भारतीय संताने स्वतंत्रता आंदोलन में शरीक अपने भारतीय महिला पूर्वजों के इतिहास को दोहराते हुए नई इबारत लिखेगी।

28 मई को जब भारत में संवैधानिक लोकतंत्र की जगह सेंगोल राजतंत्र का आगाज हो रहा था तो ठीक उसी समय फासिस्ट अंधेरे में डूबी दिल्ली की सड़कों पर महिला पहलवानों के सम्मान के लिए लड़े जा संघर्षों से लोकतंत्र की नई किरण फूटती दिखाई दे रही थी। इस उम्मीद की किरण का स्वागत हर भारतीय को खुले दिल से आगे बढ़कर करना होगा। आज के समय में यही सच्ची देशभक्ति और समाज सेवा होगी।

(जयप्रकाश नारायण स्वतंत्र टिपप्णीकार हैं।)

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