Saturday, April 20, 2024

शिलांग बनाम लतीफ़पुरा: जिनके पास काग़ज़ात नहीं होते

सवाल यह है कि जिनके पास काग़ज़ात नहीं होते, क्या वे इंसान नहीं होते? क्या केवल नक्शों, काग़ज़ों, अभिलेखों के आधार पर ही ज़मीन का मालिकाना हक़ हो सकता है? जिस ज़मीन के टुकड़े पर वह दशकों से रहता है, क्या उस ज़मीन पर रहने का अधिकार किसी व्यक्ति का कुदरती अधिकार नहीं हो जाता? …पंजाबी लोक-मन में शब्द ‘लतीफ़’ शेख फ़रीद के श्लोक ‘फ़रीदा जे तू अकलि लतीफ़ु काले लिखू न लेखू। आपनड़े गिरीवान महें सिर नीवाँ कर देखु॥’ (अर्थात ए फ़रीद, अगर तू पाकसाफ़/बुद्धिमान है तो दूसरे लोगों के कर्मों की पड़चोल न कर; अपने भी गिरेबान में सिर झुका कर देख कि कैसे हैं तेरे कर्म) के कारण बसा हुआ है। लतीफ़पुरा शेख लतीफ़ के नाम पर बसा हुआ बताया जाता है।

मैं 1988 में पुलिस नौकरी के सिलसिले में मेघालय की राजधानी शिलांग पहुँचा। शिलांग में एक गुरुद्वारा राजभवन के करीब है; मैं हर गुरुपर्व के दिन वहाँ जाता था। फिर पता चला कि शिलांग में अन्य गुरुद्वारे भी हैं। एक गुरुद्वारा शिलांग के व्यापारिक केंद्र ‘बड़ा बाज़ार’ के पास उस बस्ती में स्थित है जिसे पंजाबी लेन के नाम से जाना जाता है। करीब 3 एकड़ की इस बस्ती में 300 से ज्यादा पंजाबी दलित परिवार रहते हैं जिन्हें 1920-30 के दशक में, साफ-सफाई के काम (जिसमें सूखे शौचालयों की सफाई भी शामिल थी) करने के लिए यहां लाकर बसाया गया था। इस बस्ती को स्वीपर्स (सफाई करने वालों की) कॉलोनी भी कहा जाता था। कई बुजुर्गों ने यह बताया कि कुछ परिवार तो 1895 में यहाँ आकर बस गए थे।

2007-08 में प्रख्यात इतिहासकार हिमाद्री बनर्जी शिलांग आईं। हिमाद्री बनर्जी ने उन्नीसवीं सदी के पंजाब पर शोध करने के बाद पंजाब से बाहर बसे सिखों (जिनमें पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, उड़ीसा आदि के सिख भी शामिल हैं) पर शोध करके उनका सामाजिक इतिहास कलमबद्ध किया है। इस विषय पर उनकी पुस्तक ‘द अदर सिख्स’ (The Other Sikhs) एक प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उनके कहने पर मैंने पंजाबी लेन में रहने वालों को पुलिस गेस्ट हाउस में बुलाया। उन दिनों ‘खासी’ जनजाति (जो पूर्वी मेघालय की मुख्य जनजाति है) के कुछ संगठनों ने यह अभियान शुरू किया हुआ था कि ये दलित यहां अवैध रूप से बसे हुए हैं; उन्हें यहां से निकाल दिया जाए।

इस अभियान को बड़े व्यापारियों और सरकार के कुछ तत्वों का समर्थन प्राप्त था। इस संदर्भ में सभी ने अपनी आप बीती सुनाई। तीन चार वक्ताओं के शब्दों ने लोगों को रुला दिया। उन्होंने जो कुछ कहा उसका सार यह था – “इन लोगों (अर्थात् शासकों) ने हमें उस समय यहां आमंत्रित किया जब हमारी जरूरत थी। दशकों तक, हर दिन, हमने उनका मल-मूत्र अपने सिर पर ढोया लेकिन अब हालात बदल गए हैं, अब हमारी जरूरत नहीं है, अब हमें यहाँ से निकलने के लिए कहा जा रहा है, हम यहां 80-90 साल से रह रहे हैं; यही हमारा घर है; हम कहां जाएं?”

2010 के दशक में इन लोगों को बेदखल करने की मुहिम ने जोर पकड़ा। 2018 में मामूली सी बात पर दंगे भड़क गए थे। खासी समुदाय के संगठनों ने पंजाबी लेन को घेर लिया; आगजनी हुई। तब मैं वहां पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) था। हमने सैकड़ों की गिनती में पुलिसकर्मियों को बिना हथियार के, दोनों समुदायों (पंजाबी और खासी) के बीच तैनात किया। कोई हताहत नहीं हुआ लेकिन तनाव बहुत बढ़ गया। कई दिनों तक कर्फ़्यू लगा रहा। पंजाब से कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और अन्य पंजाबी और सिख संगठनों के नेता शिलांग पहुंचे और पंजाबी समुदाय का हाथ थामा।

मामला अदालत में है। सरकार का कहना है कि यह लोग (पंजाबी) यह जगह छोड़ दें, हम उन्हें 500-600 वर्ग फुट के फ्लैट बनाकर देंगे। जो सबूत और कागज़ात पंजाबी निवासियों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं, उन्हें कानूनी रूप में स्वीकार नहीं किया जा रहा है। सबसे बड़ा सबूत, कि वे यहाँ एक सदी से रह रहे हैं, को भी मान्यता नहीं दी जा रही। पंजाब के राजनीतिक दल और संगठन पंजाबियों का समर्थन कर रहे हैं। पंजाबी अभी भी वहाँ रह रहे हैं, अभी उजड़े नहीं, उजड़ने की कगार पर हैं।

लेकिन यहाँ पंजाब में क्या हो रहा है? लतीफ़पुरा जालंधर का एक कस्बा है। 75 साल पहले यहाँ गरीब मुसलमान रहा करते थे। यह ज़मीन बूटा मंडी गांव के पास स्थित है।1947 में पंजाब का विभाजन हुआ। लाखों पंजाबी मारे गए और लाखों विस्थापित हुए। विस्थापित होने वालों में साहिब-ए-जायदाद (संपत्ति के मालिक) और भूमिहीन भी। सियालकोट के 35-40 भूमिहीन परिवारों ने अपने सिर की गठरिया लतीफ़पुरे में उतार दीं। 1948-50 में उनके कुछ और रिश्तेदार भी यहाँ आ बसे। ये सीमित साधन वाले भूमिहीन लोग थे। उन्हें सरकार ने ज़मीन तो क्या देनी थी; उनके पास तो दावे (Claims) पेश करने के लिए दस्तावेज़ भी नहीं थे।

लतीफ़पुरे के गरीब मुसलमानों के घरों में बसकर उन्होंने अपने जीवन का पुनः आरंभ किया। गाय-भैंसें पाल लीं और रोजी-रोटी चलाई। शहर बढ़ता-बढ़ता उनकी दहलीज़ तक आ गया। सरकारों, इम्प्रूवमेंट ट्रस्टों और अन्य संगठनों ने नक्शे बनाए तो उन नक्शों में इन लोगों का वजूद और हस्ती दर्ज नहीं की गई। आजादी के 75वें साल में उन्हें यहाँ से भी उजाड़ दिया गया है। कई पंजाबी 1947 को ‘उजाड़े’ के नाम से भी याद करते हैं ; लतीफपुरा के वासियों के लिए यह दूसरा उजाड़ा है। पंजाब की सरकार और संस्थाओं ने इन लोगों के साथ ऐसा सलूक किया मानो उनका अस्तित्व और यहाँ बसने के कोई मायने न हों। इस तरह का सलूक जैसा मेघालय में सरकार और संगठन वहाँ के पंजाबियों के साथ करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली है; यहाँ के सत्ताधारियों को कामयाबी मिल गई है; पंजाबियों को पंजाब में ही उजाड़ दिया गया है।

तर्क क्या है?

तर्क यह है कि ऐसा सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेशों का पालन करने के लिए किया गया है; यह मामला कई सालों से अदालतों में चल रहा था। बताया जा रहा है कि यह जगह ट्रस्ट ने कुछ लोगों को अलॉट कर दी थी। ऐसा कांग्रेस और अकाली सरकारों के समय हुआ था। आवंटियों ने कब्ज़ा न मिलने के कारण अदालत का दरवाजा खटखटाया। मुख्य सवाल यह है कि ऐसे मामलों को अदालत में कैसे पेश किया जाता है। अगर पंजाब सरकार, इंप्रूवमेंट ट्रस्ट और अन्य संबंधित संगठन इन लोगों के 1947 में हुए उजाड़े को सामने रखते हुए,  दशकों से इस ज़मीन के टुकड़े पर बसे इन लोगों के हक़ को स्वीकार कर लेते तो अदालत इस तरह का आदेश कभी न देती।  अदालत ने ऐसे आदेश इसलिए दिए क्योंकि सरकार, इंप्रूवमेंट ट्रस्ट आदि का तर्क यह था कि इन लोगों ने इसका अवैध तरीके से इस ज़मीन पर कब्जा किया हुआ है।

कानूनी तरीकों से कब्ज़े तो सिर्फ सरकार की सहमति से होते हैं; सरकारें नक्शे बनाती हैं और ज़मीन का अधिग्रहण करती हैं। प्रभावशाली व्यक्ति कब्ज़ा करके सरकारों और संस्थाओं से उसे नियमानुकूल नियमित करवा लेते हैं; और साधनहीन लोग पीछे रह जाते हैं जिनके छोटे-छोटे  मकान बनाने के अधिकार को भी स्वीकार नहीं किया जाता। यह अधिकार सरकारों, इंप्रूवमेंट ट्रस्टों और अन्य संगठनों के पास आ जाता है जिनकी इन ज़मीनों पर दशकों बाद नज़र पड़ती है। क्या उनके पास यह अधिकार इस वजह से आते हैं कि उनके पास सत्ता होती है? क्या मनुष्य के पास मनुष्य होने के चलते कुछ मौलिक अधिकार नहीं होते कि उसको बसने के लिए चंद गज ज़मीन चाहिए।

तर्क, वही तर्क: उनके पास काग़ज़ात नहीं हैं, लतीफ़पुरे और शिलांग के लोगों को विस्थापित करने का शासक वर्गों का तर्क साझा है, इन लोगों के पास सही काग़ज़ात नहीं है। शिलांग के पंजाबी बताते हैं कि शिलांग के स्थानीय राजा जिन्हें सिऐम (Syiem) कहा जाता है, ने उनकी मदद की; समकालीन सरकार उस मदद को कानूनी दस्तावेज नहीं मानती। लतीफ़पुरे के लोग बताते हैं कि वे 1947 में सियालकोट और अन्य स्थानों से उजड़कर यहाँ पहुंचे, यहां छोटे-छोटे घर बने तो बिजली के कनेक्शन लगे, राशन कार्ड बने, लेकिन उन काग़ज़ों को रहने वाले निवासियों के साक्ष्य नहीं माने गये।

फ्लैट मिलेंगे, फ्लैट

दोनों जगहों की सरकारों का तर्क एक ही है, आपको अन्य जगहों पर 50-70 वर्ग क्षेत्रफल में फ्लैट बनाकर दिए जाएंगे। कोई भी अनुमान लगा सकता है कि इस रकबे पर किस तरह का घर बनेगा; सरकारों की बुनियादी शर्त भी यही है कि अब जिस जगह पर आप दशकों से रह रहे हैं, उसे छोड़ दो, उजड़ जाओ, हम तुम पर ‘मेहरबानी’ करेंगे, तुम्हें एक फ्लैट बनाकर देंगे।

क्यों उजड़ जाएं? उसका कारण भी साझा है; क्‍योंकि जब तुम बसे थे, तब यह स्‍थान सुनसान था, यहां कोई नहीं रहता था। अब यह बेशकीमती ज़मीन बन गई है यहां व्यापारियों, कारोबारियों, अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों, साधनों वाले ‘सम्मानित’ और काग़ज़ात वाले व्यक्तियों को बसना है; आप की तरह गैर-दस्तावेजी/बिना दस्तावेज वाले व्यक्तियों ने नहीं।

कागज़ कैसे बनते हैं: जब उपनिवेशवादी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा आदि में गए, तो वहां के मूल निवासी रहते थे; उन्होंने अपने क्षेत्रों के नाम रखे थे और इलाके बांटे हुए थे। लेकिन उनके पास काग़ज़ात नहीं थे। नए शासकों ने नक्शे और काग़ज़ात बनाए; स्वामित्व के नक्शों और कागज़ों के आधार पर स्थापित हुआ; ज्ञान + शक्ति ने कागज़विहीन लोगों को उन ज़मीनों, जहां वे सैकड़ों वर्षों से बस रहे थे, से बेदखल कर दिया।

सवाल यह है कि जिनके पास काग़ज़ात नहीं होते, क्या वे मनुष्य नहीं होते? क्या सिर्फ नक्शों, काग़ज़ों, रिकॉर्ड के आधार पर धरती पर मालिकाना हक़ हो सकता है? क्या मनुष्य का ज़मीन के उस टुकड़े जहाँ पर वह दशकों से रहता है, पर बसने का अधिकार, उसका कुदरती अधिकार (natural right) नहीं बन जाता?

लतीफपुरे में जो हुआ, वह दिल दहला देने वाला है। विस्थापित लोगों के अनुसार उन्हें घर खाली करने का समय भी नहीं दिया गया। कईयों ने घरों से सामान निकाल लिया और कई निकाल ही नहीं सके। 

बुल्डोजर चलाए गए और दशकों से आबाद घरों को ध्वस्त कर दिया गया। कानून और सत्ता  सफल हुए और मानवता हार गई। कोई किराए का घर ढूंढ रहा है, कोई मवेशियों के बाड़े में बैठा है तो कोई खुले आसमान के नीचे। महिलाएं विलाप कर रही हैं और मर्द उदास हैं। बच्चों की परीक्षाएँ सिर पर हैं; जिस मानसिक तनाव से वे गुजर रहे होंगे, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल है।

कानून, विकास, पुनर्वास, वास्तुकला और शहरीकरण के क्षेत्रों में विशेषज्ञों की आँखों में चमक है; वे बताते हैं कि करोड़ों रुपए की ज़मीन जिस पर उनके मुताबिक अवैध कब्जा था, उसे कैसे हटाया गया है। अब उस स्थान का ‘विकास’ होगा। ये विशेषज्ञ कभी यह नहीं सोचते कि उन्होंने कितने परिवारों के सामाजिक और आर्थिक जीवन को नष्ट कर दिया। विस्थापित लोगों को फ्लैट देने के वादे इस विस्थापन से हुए सामाजिक विनाश की भरपाई नहीं कर सकते। राजनेता, अधिकारी, व्यापारी, उद्योगपति और विशेषज्ञ हमें यही बताते रहेंगे उन्होंने सब कुछ ठीक किया और हम मान भी जाएंगे; दूसरी ओर विस्थापित हुए लोग अव्यवस्थित वर्तमान और भविष्य का सामना कर रहे हैं; उनका दुख बांटना कठिन है। नैतिकता मांग करती है कि इस मामले में इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट यह जवाब दे कि उसने 1947 से लतीफपुरे में रह रहे लोगों के अधिकारों को मान्यता क्यों नहीं दी।

(स्वराजबीर पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक हैं।)

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