डा. बाबासाहेब भीम राव अंबेडकर ने सबसे पहले 1927 में महाड़ तालाब सत्याग्रह के दौरान धर्म परिवर्तन का संकेत दिया था, जब उन्होंने कहा था, “हम समाज में समान अधिकार चाहते हैं। हम जहां तक संभव होगा हिन्दू समाज में रहते हुए प्राप्त करेंगे या यदि जरूरी हुआ तो इस बेकार हिन्दू पहचान को लात मार कर करेंगे।“
शुरू में डा. अंबेडकर ने हिन्दू समाज में सुधार लाने की पूरी कोशिश की। वे हिन्दू धर्म में रहते हुए ही छुआछूत दूर करना चाहते थे। उनका महाड़ सत्याग्रह एवं नासिक कालाराम मंदिर सत्याग्रह (1930) उनके हिन्दू धर्म को सुधारने के लगातार प्रयासों के स्पष्ट उदाहरण हैं।
अंत में, बाबासाहेब ने दुख के साथ महसूस किया कि सवर्ण हिंदुओं के व्यवहार को बदलना असंभव है। अतः उन्होंने हिन्दू धर्म को त्यागने का फैसला किया। घुमाव का बिन्दु अक्तूबर 1935 में आया जब डा. अंबेडकर ने झटका देने वाली घोषणा की: “मैं हिन्दू अछूत पैदा हुआ यह मेरे बस की बात नहीं थी परंतु मैं हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं।“
1936 में डा. अंबेडकर ने इस्लाम, ईसाई तथा सिख तीन धर्मों, जिनके स्पष्ट अलग-अलग लाभ थे, में से एक धर्म को चुनने का विकल्प रखा। इन तीन धर्मों में इस्लाम तथा ईसाई धर्म अपनाने के बारे में उनका मत था कि इससे डिप्रेस्ड क्लासेस का विराष्ट्रीयकरण हो जाएगा और इससे स्वतंत्रता संघर्ष असंगठित हो जाएगा।
जबकि सिक्ख धर्म अपनाने से देश को कोई खतरा नहीं होगा। वास्तव में मई 1936 में डा. अंबेडकर ने अपने बड़े बेटे यशवंत और 13 अन्य लोगों को सिक्ख धर्म का अध्ययन करने के लिए सवर्ण मंदिर अमृतसर भेजा। परंतु जब उन्हें रिपोर्ट मिली कि जट सिक्ख भी दलित सिक्खों पर हिंदुओं की तरह ही अत्याचार एवं छुआछूत करते हैं तो उन्होंने सिक्ख धर्म अपनाने का विचार छोड़ दिया।
डॉ. बाबासाहेब भीम राव आंबेडकर ने 31 मई, 1936 को दादर (बम्बई) में “धर्म परिवर्तन क्यों? ” विषय पर बोलते हुए अपने विस्तृत भाषण में कहा था,” मैं स्पष्ट शब्दों में कहना चाहता हूं कि मनुष्य धर्म के लिए नहीं बल्कि धर्म मनुष्य के लिए है।
अगर मनुष्यता की प्राप्ति करनी है तो धर्म परिवर्तन करो। समानता और सम्मान चाहिए तो धर्म परिवर्तन करो। स्वतंत्रता से जीविका उपार्जन करना चाहते हो धर्म परिवर्तन करो। अपने परिवार और कौम को सुखी बनाना चाहते हो तो धर्म परिवर्तन करो।”
28 अगस्त, 1937 को बाबासाहेब ने अछूतों के समूह को संबोधित करते हुए अपने शिष्यों को हिन्दू धर्म के त्योहार मनाने को त्यागने हेतु कहा। उन्होंने कहा कि धर्म परिवर्तन तो होकर रहेगा ही परंतु इस मामले में काफी सोचने समझने की जरूरत है। “नया धर्म काफी जांच पड़ताल के बाद ही अपनाया जाएगा।“
अंत में बाबासाहेब ने 14 अक्तूबर, 1956 को दीक्षा भूमि नागपुर में पांच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया और कहा कि, “आज मेरा नया जन्म हुआ है।”
जब बाबासाहेब ने अछूतों के धर्म परिवर्तन की बात चलाई थी, तो इसका विरोध न केवल सवर्णों बल्कि अछूत नेताओं ने भी किया था। सवर्ण नेताओं का कहना था कि डा. अंबेडकर अछूतों को गुमराह कर रहे हैं। इससे उन्हें कोई फायदा होने वाला नहीं है।
इसके विपरीत कुछ का यह भी तर्क था कि डा. अंबेडकर मरे पशुओं को न उठाने की बात कह कर उनको चमड़े तथा हड्डियों से होने वाले चार सौ रुपए के लाभ से वंचित कर रहे हैं। इस पर डा. अंबेडकर ने कहा कि मैं मरे पशु के लिए पांच सौ रुपए देता हूं। सवर्ण आगे आएं और मरे पशु को उठाकर लाभ कमाएं और मुझ से पांच सौ रुपए भी ले लें। परंतु कोई सवर्ण सामने नहीं आया।
कुछ अछूत नेता धर्म परिवर्तन का यह कह कर विरोध कर रहे थे कि हमें अपने पुरखों का धर्म नहीं छोड़ना चाहिए और हिन्दू रह कर अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। उनका यह भी कहना था कि इससे अछूतों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में कोई अंतर आने वाला नहीं है।
आइए अब देखा जाये कि बाबा साहेब ने धर्म परिवर्तन के जिन उद्देश्यों और संभावनाओं का जिक्र किया था, उनकी पूर्ति किस हद तक हुई है। सब से पहले यह देखना उचित होगा कि बौद्ध धर्म परिवर्तन की गति कैसी है। सन 2011 की जन गणना के अनुसार भारत में बौद्धों की जनसंख्या लगभग 84 लाख है जो कुल जनसंख्या का लगभग 0.7 प्रतिशत है।
इसमें 13% परम्परागत बौद्ध और 87 % हिन्दू दलितों में से धर्म परिवर्तन करके बने नव-बौद्ध हैं। इसमें सबसे अधिक बौद्ध महाराष्ट्र में 65 लाख हैं। सन 2001 से सन 2011 की अवधि में बौद्धों की जनसंख्या में 6.1% की वृद्धि हुई है परंतु कुल जनसंख्या 0.8% से घट कर 0.7% हो गई है जो गंभीर चिंता का विषय है।
अब अगर नव-बौद्धों में आये गुणात्मक परिवर्तन की तुलना हिंदू दलितों से की जाये तो यह सिद्ध होता है कि नव-बौद्ध हिन्दू दलितों से सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ गए हैं जिससे बाबासाहेब के धर्म परिवर्तन के उद्देश्यों की पूर्ति होने की पुष्टि होती है।
अगर सन 2011 की जन गणना से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर नव-बौद्धों की तुलना हिन्दू दलितों से की जाये तो नव-बौद्ध निम्नलिखित क्षेत्रों में हिन्दू दलितों से बहुत आगे पाए जाते हैं:-
लिंग अनुपात: नव-बौद्धों में स्त्रियों और पुरुषों का लिंग अनुपात 965 प्रति हज़ार है जबकि हिन्दू दलितों में यह अनुपात केवल 945 है। इससे यह सिद्ध होता है कि नव-बौद्धों में महिलाओं की स्थिति हिन्दू दलितों से बहुत अच्छी है। नव-बौद्धों में महिलाओं का उच्च अनुपात बौद्ध धर्म में महिलाओं के समानता के दर्जे के अनुसार ही है।
जबकि हिन्दू दलितों में महिलाओं का अनुपात हिन्दू धर्म में महिलाओं के निम्न दर्जे के अनुसार है। नव-बौद्धों में महिलाओं का यह अनुपात राष्ट्रीय अनुपात 943, हिन्दुओं के 939, मुसलमानों के 951, सिक्खों के 903 और जैनियों के 954 से भी अधिक है।
बच्चों (0-6 वर्ष तक) का लिंग अनुपात: उपरोक्त जन गणना के अनुसार नव बौद्धों में 0-6 वर्ष तक के बच्चों में लड़कियों और लड़कों का लिंग अनुपात 933 है जबकि हिन्दू दलितों में यह अनुपात 933 है। यहां भी लड़के और लड़कियों का लिंग अनुपात धर्म में उनके स्थान के अनुसार ही है। नव-बौद्धों में यह अनुपात राष्ट्रीय दर 918, हिन्दुओं के 913, सिक्खों के 826 और जैनियों के 889 से भी ऊंचा है।
शिक्षा दर: नव-बौद्धों में शिक्षा दर 81.30% है जबकि हिन्दू दलितों में यह दर सिर्फ 66.10% है। नव-बौद्धों का शिक्षा दर राष्ट्रीय दर 72.98%, हिन्दुओं के 73.27% , मुसलमानों के 68.54% और सिक्खों के 75.4% से भी अधिक है।
इससे स्पष्ट तौर से यह सिद्ध होता है कि बौद्ध धर्म में ज्ञान और शिक्षा को अधिक महत्व देने के कारण ही नव-बौद्धों ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी तरक्की की है जो कि हिन्दू दलितों की अपेक्षा बहुत अधिक है।
महिलाओं का शिक्षा दर: नव-बौद्धों में महिलाओं का शिक्षा दर 74.04% है जबकि हिन्दू दलितों में यह दर केवल 56.50% ही है। नव-बौद्धों में महिलाओं का शिक्षा दर राष्ट्रीय महिला शिक्षा दर 65.46%, हिन्दू महिलाओं के 64.63%, और मुसलमानों के 68.50% से भी अधिक है। इससे यह सिद्ध होता है कि नव-बौद्धों में महिलाओं की शिक्षा की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है।
कार्य सहभागिता दर (नियमित रोज़गार): नव-बौद्धों में कार्य सहभागिता दर 43.1% है, जबकि हिन्दू दलितों में यह दर 40.87% है। नव-बौद्धों का कार्य सहभागिता दर राष्ट्रीय सहभागिता दर 39.8%, हिन्दुओं के 41.0%, मुसलमानों के 32.6%, ईसाईयों के 41.9%, और सिखों के 36.3% से भी अधिक है।
इससे यह सिद्ध होता है कि नव-बौद्ध बाकी सभी वर्गों के मुकाबले में नियमित नौकरी करने वालों की श्रेणी में सबसे आगे हैं जो कि उनकी उच्च शिक्षा दर के कारण ही संभव हो सका है। इस कारण वे हिन्दू दलितों से आर्थिक तौर पर भी अधिक संपन्न हैं।
उपरोक्त तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि नव-बौद्धों में लिंगानुपात, शिक्षा दर, महिलाओं की शिक्षा दर और कार्य सहभागिता दर न केवल हिन्दू दलितों बल्कि राष्ट्रीय दर, हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों और जैनियों से भी ऊंची है। इसका मुख्य कारण उन का धर्म परिवर्तन करके मानसिक गुलामी से मुक्त हो कर प्रगतिशील होना है।
इसके अतिरिक्त अलग-अलग शोधकर्ताओं द्वारा किये गए अध्ययनों में यह पाया गया है कि दलितों के जिन परिवारों और उप जातियों ने डॉ. आंबेडकर और बौद्ध धर्म को अपनाया है, उन्होंने हिन्दू दलितों की अपेक्षा अधिक तरक्की की है। उन्होंने पुराने गंदे पेशे छोड़ कर नए साफ सुथरे पेशे अपनाये हैं।
उनमें शिक्षा की ओर अधिक झुकाव पैदा हुआ है। वे भाग्यवाद से मुक्त हो कर अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं। वे जातिगत हीन भावना से मुक्त हो कर अधिक स्वाभिमानी हो गए हैं। वे धर्म के नाम पर होने वाले आर्थिक शोषण से भी मुक्त हुए हैं और उन्होंने अपनी आर्थिक हालत सुधारी है। उनकी महिलाओं और बच्चों की हालत हिन्दू दलितों से बहुत अच्छी है।
उपरोक्त संक्षिप्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि बौद्ध धर्म ही वास्तव में दलितों के कल्याण और मुक्ति का सही मार्ग है। नव-बौद्धों ने थोड़े से समय में ही हिन्दू दलितों के मुकाबले में बहुत तरक्की की है।
उनकी नव-बौद्धों के रूप में एक नयी पहचान बनी है। वे पहले की अपेक्षा अधिक स्वाभिमानी और प्रगतिशील बने हैं। उनका दुनिया और धर्म के बारे में नजरिया अधिक तार्किक और विज्ञानवादी बना है।
नव-बौद्धों में धर्म परिवर्तन के माध्यम से आये परिवर्तन और उन द्वारा की गयी प्रगति से हिन्दू दलितों को प्रेरणा लेनी चाहिए। उनको हिन्दू धर्म की मानसिक गुलामी से मुक्त हो कर नव-बौद्धों की तरह आगे बढ़ना चाहिए। वे एक नयी पहचान प्राप्त कर जात-पात के नरक से बाहर निकल कर समानता और स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं।
इसके साथ ही नव-बौद्धों को भी अच्छे बौद्ध बन कर हिन्दू दलितों के सामने अच्छा उदाहरण पेश करना चाहिए ताकि बाबासाहेब का भारत को बौद्धमय बनाने का सपना जल्दी से जल्दी साकार हो सके।
(एसआर दारापुरी रिटायर्ड आईपीएस और एआईपीएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
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