रोजगार और निश्चित आय का अभाव अपने-आप में अन्याय और भयावह विषमता का कारण बन जाता है। पूरी दुनिया की वर्तमान व्यवस्थाएं विषमताओं से पीड़ित है। ये पीड़ाएं विभिन्न रूपों में प्रकट होती रहती हैं। समय रहते विषमता के नतीजों का सही-सही आकलन और अनुमान लगाने में व्यवस्था संचालक अक्सर विफल रह जाते हैं।
फिर ऐसा कुछ होने लग जाता है, हो जाता है, अन्यथा जिस से बचा जा सकता था। यह ठीक है कि भविष्य में आंख गड़ाकर सुराख कर देखना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन वर्तमान की धड़कनों को कान लगाकर सुनने में बहुत मुश्किल नहीं होनी चाहिए। सत्तांध मन वर्तमान की धड़कन पर कान नहीं धरता है। बाद में कैफियत चाहे जैसी भी दी जाये, खामियाजा आवाम को भोगना पड़ता है। आवाम की बेहतर और सभ्य जिंदगी की संभावनाओं की जान-बूझकर अनदेखी करने का नतीजा कभी बेहतर नहीं होता है।
अलग-अलग भूखंडों, देशों पर अलग-अलग शासन व्यवस्था और शासक भले ही अलग-अलग दिखते हों, लेकिन खास अर्थ में दुनिया इतनी करीब और इतनी दूर इतिहास में पहले कभी नहीं थी। संक्षेप में यह है कि शोषक शक्तियां इतनी करीब कभी नहीं थी और शोषण के विरोध में सक्रिय शक्तियां इतनी दूर कभी नहीं थी। न्याय-वंचित दुनिया में असंतुलन और विचलन के असंख्य बिंदु और कोण होते हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि न्याय-वंचना हर तरह की विषमताओं की जननी होती है। न्याय-वंचना अपने-आप में लोकतंत्र के निषेध से जन्म लेती है और फिर लोकतंत्र का निषेध भी करती हैं। निस्संदेह इस राजनीतिक दुश्चक्र को सामाजिक शुभ-चक्र से निष्क्रिय किया जा सकता है, हालांकि यह बहुत आसान भी नहीं होता है।
दुनिया को अविलंब विषमताओं पर गंभीर चर्चा के लिए तैयार होना चाहिए। विषमताओं पर बात शुरू करने के पहले यह समझ लेना जरूरी है कि क्या दुनिया की व्यवस्थाओं में अन्याय और विषमताओं को दूर करने में कोई वास्तविक दिलचस्पी है? इस सवाल का कोई सीधा, सरल और सुनिश्चित जवाब नहीं दिया जा सकता है। सारी व्यवस्थाएं कल्याणकर और उदार होने की बात तो करती हैं, लेकिन विषमताओं की बाढ़ पर लगाम कसने में उन्हें जरा भी कामयाबी नहीं मिल पाती है! इस मामले में भारत भी अपवाद नहीं है।
इस स्थिति को कोई भी अपने नागरिक अनुभव और सामान्य बुद्धि के अनुमान से सहज ही महसूस कर सकता है। अनुभव और अनुमान से घुटन चाहे जितनी बढ़े, रास्ता सुझाई नहीं पड़ता है। जाहिर है कि साधारण आदमी को कोई समाधान मिलता नहीं है, बस घुटन का एहसास ही हिस्सा में आता है। हकदारी का सवाल विषमताओं से जनमे दुख के पहाड़ के नीचे दबा रहता है।
आरोप-प्रत्यारोप की बात नहीं, हकदारी और समझदारी का सवाल है। देश में लोकतंत्र है, चुनाव है। लेकिन रोजी-रोजगार का असाध्य दिखनेवाला अभाव भी है। एक तो सही-सही रोजगार नहीं मिलता है, किसी तरह से किसी प्रकार का रोजगार मिल भी जाये तो, सही-सही रोजी नहीं मिल पाती है।
सरकारी व्यवस्था रोजगार से संबंधित डाटा के संग्रह का काम करने के लिए ऐसी नीति-निर्देशिकाएं लागू करती है, जिनसे जनता की कष्टकर स्थिति को आच्छादित करते हुए मिथ्या तत्व की प्रशंसात्मक स्वीकृति के माध्यम से खुशगवार माहौल बनती हो। सचाई के सामने आते ही खुशगवार माहौल हवा हो जाती है।
क्या रोजगार मिला, कितनी कमाई हुई यह सब छिपाकर सिर्फ यह रेखांकित किया जाता है कि कितनों का नाम रोजगार प्राप्ति के खाता में दर्ज हुआ। देश की अर्थ-व्यवस्था में ‘वृद्धि’ का डंका इतनी जोर से पीटा जाता है कि जीवन की गुणवत्ता में लगातार हो रही गिरावट की अपनी ही सिसकियां भी सुनाई न पड़े!
इस समय, मनुष्य के बुनियादी स्वभाव से जोड़कर प्रकृति-सभ्यता-संस्कृति के युग्म से बनी त्रिज्या (diameter) को समझना जरूरी है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति और सभ्यता के संघर्ष के बीच से संस्कृति विकसित होती रही है। यहां यह भी टांक लेना चाहिए कि सभ्यता और संस्कृति की अलग-अलग चाक्रिक गतिमयता में निहित टकराव और सहभाव की क्रमिकता में प्रकृति-पर्यावरण, सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ है।
टकराव अधिक होने से विज्ञान की और सहभाव अधिक होने से अध्यात्म की प्रवृत्तियां विकसित हुई। यहां टकराव और सहभाव को उनके द्वंद्वात्मक अनुपात के बदलते झुकाव के परिप्रेक्ष्य में समझने का ध्यान रखना महत्वपूर्ण है। द्वंद्वात्मक अनुपात के बदलते झुकाव का अध्ययन ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक अध्यात्मवाद के रूप में हीगेल ने समझा और ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के रूप में मार्क्स ने समझा।
हीगेल का संबंध भाववाद और मार्क्स का संबंध वस्तुवाद से है। भाववाद और वस्तुवाद के संबंधों के असर को समझने की कोशिश बार-बार की जानी चाहिए। स्वीकार करना ही होगा कि हम ने राजनीतिक हड़बड़ी में हीगेल और मार्क्स के द्वंद्व से ऊपर उठकर ऐतिहासिक द्वंद्वात्मकता को निरद्वंद्व होकर समझने और लागू करने में निश्चित ही कुछ बड़ी गलतियां की हैं।
विषमता और समानता के द्वंद्व को भी समझना प्रासंगिक है। हम दुनिया में कहीं चले जायें, हमें मनुष्य के रूप में पहचान लिया जाता है। असंख्य लोगों के बीच होने से भी हमें जाननेवाला, व्यक्ति के रूप में हमें पहचान लेता है। इसका सीधा, सरल और सुनिश्चित मतलब यह है कि मनुष्य के रूप में हमारी पहचान अभिन्नताओं, अर्थात समानताओं के आधार पर और व्यक्ति के रूप में हमारी पहचान भिन्नताओं, अर्थात असमानताओं के आधार पर संभव होती है।
मनुष्य कहें या मनुष्य जाति के सदस्य के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिए हमें अलग से कुछ भी अतिरिक्त करने की जरूरत नहीं होती है। हमें सारी कोशिशें व्यक्ति के रूप में पहचान बनाने के लिए करनी पड़ती है। जाति की पहचान जन्म से होती है और व्यक्ति की पहचान सभ्यता और संस्कृति से प्रदत्त होती है। जाति और व्यक्ति में द्वंद्व बना रहता है। इस द्वंद्व के कई अन्य रूप भी होते हैं। जैसे, प्रकृति और संस्कृति का, राज्य और नागरिक आदि का द्वंद्व।
हिंदू परंपरा में जन्म के साथ मनुष्य जाति के रूप में प्राकृतिक पहचान को आच्छादित करते हुए वर्ण-जाति आधारित सामाजिक पहचान प्रदत्त हो जाती है। इस सामाजिक पहचान के साथ ‘श्रेष्ठ’ और ‘हीन’ की अपरिवर्तनीयता भाव जुड़े होने से सामाजिक असमानताओं अकाट्य परिस्थिति का शिकार हिंदू परंपरा के लोग होते हैं। जन्म से प्राकृतिक अ-परिवर्तनीयता तो मनुष्य होने की ही होती है, अर्थात कोई मनुष्य चाहकर भी इस जन्म में किसी अन्य प्राणी के रूप में खुद को नहीं बदल सकता है। यही सनातन है।
हिंदू धर्म की मान्यताओं में जन्म से मिली जाति के मामले में अपरिवर्तनीयता का यही भाव लाद दिया गया है, अर्थात कोई किसी भी तरह से अपनी सामाजिक जाति नहीं बदल सकता है, यह लदा हुआ भाव सनातन नहीं है। भेद-भाव के लिए गजब का ‘सिद्धांत’ सामाजिक व्यवहार में बना हुआ है। भिन्नता का संबंध असमानता से और असमानता का संबंध विषमता से होना नहीं चाहिए, मगर होता है। भिन्नता और विषमता का यह कूट संबंध इसलिए भी अधिक बड़ी हो जाती है कि अंततः सामाजिक असमानताएं आर्थिक विषमताओं का कारण बन जाती है।
समझने की जरूरत है कि ‘अपनी निजी पहचान’ बनाने की व्यग्रता में ‘व्यक्ति’ को अभिन्नता, अर्थात समानता पसंद नहीं है; ‘मनुष्य’ जाति के किसी भी रूप में व्यक्ति की पहचान को विषमता पसंद नहीं है। समानता भी पसंद नहीं, विषमता भी पसंद नहीं! समानता इसलिए पसंद नहीं होती है कि इससे ‘व्यक्ति’ की पहचान के संकट में पड़ जाने का खतरा होता है।
विषमता इसलिए पसंद नहीं होती है कि इससे ‘मनुष्य जाति’ के होने की पहचान खतरे में पड़ जाती है। यह ठीक है कि विषमताओं का मूल संबंध आर्थिकी से है, लेकिन विषमताएं आर्थिकी से ही सीमित नहीं रहती हैं।
ऐसे में, रास्ता यही बचता है कि प्राकृतिक समानताओं का आदर तो किया जाये लेकिन इन समानताओं को व्यक्ति की निजी पहचान में बाधक न बनने दिया जाये, साथ ही भिन्नताओं का भी आदर तो किया जाये, लेकिन भिन्नताओं को विषमताओं में बदलने से प्रयत्नपूर्वक रोक लिया जाये।
जाहिर है कि यह काम अकेले-अकेले कोई व्यक्ति कर नहीं सकता है। इस काम को सामाजिक और राजकीय स्तर पर ही सत्ता-समर्थित निरंतर संघर्ष से ही संभव किया जा सकता है। दुखद यह है कि राजनीतिक सभ्यता में सत्ता-समर्थित संघर्ष की दिशा बिल्कुल ही इसके विपरीत कर दी गई है।
प्रसंगवश, ‘समानताओं’ और ‘अ-भिन्नताओं’ के लिए आजीवन संघर्ष करनेवालों के मन में, सम्मानजनक और न्यायपूर्ण जीवन सुनिश्चित करने के संघर्ष में लगे राजनीतिक दलों के सिद्धांत में, ‘वीर पूजा’ (hero worship) के लिए कोई जगह नहीं होती है। यह अलग बात है कि व्यवहार में इस सिद्धांत का अनुपालन पूर्ण रूप से नहीं हो पाता है।
असल में, पूर्णताओं का विचार ही अपने-आप में अव्यवहारिक है। इसलिए यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि राजकीय व्यवस्थाओं में समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज की आकांक्षा का वास्तविक स्तर क्या है? ध्यान दिया जा सकता है कि यह वास्तविक स्तर लोकतंत्र के प्रति वास्तविक व्यवहार में सहज ही परिलक्षित हो जाता है।
जहां तक हिंदू धर्म की मान्यताओं की परंपरा है, ‘वीर पूजा’ की अनंत और अ-टूट श्रृंखला हजारों साल से चली आ रही है। यहां तक भी माना जा सकता है कि ‘धर्म की ग्लानि’ होने पर लोगों में ‘संभवामि युगे-युगे’ के प्रति ही अखंड भरोसा कायम रहता है। ‘धर्म’ के विभिन्न अर्थ रहे हैं, जिनमें परोपकार का गुण, कर्तव्य, नैतिक सिद्धांत के अनुपालन की नैसर्गिक प्रवृत्ति आदि का अर्थ प्रमुख रहा है, माने हुए हिंदू धर्म-ग्रंथों के आधार पर ऐसा माना जा सकता है।
जब-जब अधिकतर व्यक्तियों में परोपकार का गुण बहुत कम हो जाता है, कर्तव्य-बोध लुप्त हो जाता है, नैतिक सिद्धांत किताबी बनकर रह जाता है, अर्थात, ‘धर्म की ग्लानि’ हो जाती है तब हिंदू मन ‘संभवामि युगे-युगे’ के भरोसा को बहुत दृढ़ता से याद करता रहता है। ‘संभवामि युगे-युगे’ का इंतजार करता रहता है। करने के नाम पर हिंदू धर्म के अधिकतर लोग अगले जन्म में न्याय की उम्मीद लगाये पंडा-पुरोहित के उपदेशों पर धर्मानुसार ‘अच्छे-अच्छे काम’ करते हुए शोषण के प्रति समर्पित रहते हैं।
इसके अलावा खुद कुछ करने की बात कम ही सोचा करते हैं। इस बीच ‘अच्छे दिन’ लाने का भरोसा दिलाते हुए कोई दृढ़तापूर्वक सामने आ जाता है, तो साधारण मनुष्य विश्वासपूर्वक उसके साथ लग जाता है। मौका पाकर दृढ़तापूर्वक सामने आनेवाला व्यक्ति धीरे-धीरे अवतारी बनने लग जाता है। दृढ़तापूर्वक सामने आनेवाला व्यक्ति खुद को अवतारी मानने लगता है, बल्कि विश्वासपूर्वक साथ लगा आदमी भी उसे अवतारी ही मानने लगता है।
यह सच है कि कुछ ही लोगों के मन में ऐसी ‘अवतारी आभा’ का सम्मोहन का काम करता है, लेकिन प्रचार की प्रचुरता से सम्मोहन का प्रभाव का तीव्र-से-तीव्रतर होता जाता है। इस तरह के सम्मोहन का वोट में बदल जाना, लोकतंत्र के लिए कहीं से शुभ नहीं होता है। कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले दिनों भारत के लोकतंत्र ने इस अशुभ को होते हुए देखा है।
हिंदू धर्म की मान्यताओं की परंपराओं में निहित शोषण, अस्पृश्यता-जनित अन्याय और बिषमताकारी तत्वों को चिह्नित करते हुए हिंदू धर्म के माननेवालों के विचार और व्यवहार में सकारात्मक और समकारक बदलाव के लिए विभिन्न सुधारकों सहित डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अथक प्रयास किया। डॉ. आंबेडकर हिंदू धर्म में रहते हुए छुआछूत को समाप्त करना चाहते थे।
उन्होंने हिंदू धर्म में ‘अछूत माने गये लोगों’ को भी समान और सभी अधिकार देने-दिलाने के लिए सवर्णों को राजी कराने का अथक प्रयास किया। लेकिन अंततः महसूस किया कि सवर्ण हिंदू जातियों के व्यवहार और सोच को बदल पाना असंभव ही है। अतः उन्होंने हिंदू धर्म को त्यागने का निर्णय ले लिया। अक्तूबर 1956 में उन्होंने हिंदू धर्म से खुद को अलग कर लिया और बौद्ध धर्म को अपना लिया। इसके दो महीने के भीतर 6 दिसंबर 1956 को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अंतिम सांस ली।
संयोग से, डॉ. आंबेडकर का अंतिम सार्वजनिक भाषण सारनाथ (बिहार) में हुआ था। सारनाथ वही जगह है, जहां महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था। यह सोचकर मन प्रसन्न हो जाता है कि महात्मा बुद्ध ने जहां से शुरू किया था, वहीं महात्मा बुद्ध ने एक तरह से अपना संघर्ष विराम का अवसर प्राप्त किया।
दुखद यह है कि जिन शक्तियों के सोच और व्यवहार के कारण डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया था, आज उन्हीं शक्तियों के हाथ में लोकतांत्रिक सत्ता की ताकत पहुंच गई है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जैसे महान व्यक्ति का धर्म-त्याग हिंदू धर्म से होनेवाले धर्मांतरण की चिंता करनेवालों को जरा भी विचलित नहीं करता है! जरा भी नहीं!
संतोष और साहस की बात है कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने भारत के लोगों के हाथ में संविधान दिया। हाथ में संविधान देते हुए यह भी सावधान कर दिया कि संविधान का अच्छा या बुरा होना इसे लागू करनेवालों पर निर्भर करेगा। आजादी के इतने दिन बाद हमारे सामने सवाल यह है कि हम समतामूलक समाज के प्रति हमारी वास्तविक आकांक्षा कितनी व्यवस्थित और समर्पित है, और इसके लिए लोकतांत्रिक राजनीति आगे कितना संघर्ष कर सकती है।
यह ठीक है कि पूर्ण समानता की जिद हमें संकट में डाल सकती है। इसी तरह से बेकाबू विषमता भी जीवन को कष्टकर और विक्षुब्ध बना देती है। निश्चित ही समानता और विषमता में कठिन संतुलन और समन्वय ही एक मात्र सामान्य समाधान है। इसके लिए सभी स्तर के लोगों के लिए मनोवैज्ञानिक वातावरण और मनोनुकूलन की परिस्थिति तैयार किया जाना चाहिए। व्यवस्था का मानवीकरण इस समय लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए।
यह छिपाये छिप नहीं सकता है कि इस समय भारत में लगभग जान-बूझकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया की भयावह अनदेखी और उपेक्षा हो रही है। हमारी स्थिति इसलिए भी बड़ी विचित्र है कि सामाजिक असमानताएं आर्थिक विषमता को अत्यधिक कष्टकर बना देती है, साथ ही साधारण नागरिक को असाधारण व्यवस्था विच्छिन्नता के भंवर में डाल देती है।
बहुत सावधानी से सोचना और माना ही होगा कि व्यवस्था विच्छिन्नता, राजनीतिक विच्छिन्नता में डाल देती है और अंततः राष्ट्रीय लगाव को भी बहुत कमजोर कर देती है। यह सब होते-न-होते किसी भी देश में अस्थिरता और सर्व-विनाशी उपद्रव का दौर शुरू हो जाता है।
यह सच है कि क्रांति के दौर में भी अत्यधिक उथल-पुथल, विनाशकारी उपद्रव, भयानक हिंसा, विनाशकारी अराजकता की स्थिति हर किसी को दिखती है। इसके पीछे का सक्रिय विचार हर किसी को नहीं दिखता है। अत्यधिक उथल-पुथल, विनाशकारी उपद्रव, भयानक हिंसा, विनाशकारी अराजकता की स्थिति सकारात्मक और सक्रिय विचार के बिना क्रांति के लक्षण नहीं हुआ करते हैं।
क्रांति का वाहक सकारात्मक विचार होता है, बाकी लक्षण तो अनचाहे और अवांछित होते हैं, जिनसे यथा-संभव बचते हुए ही क्रांति संपन्न होती है। इतिहास का अनुभव तो कम-से-कम हर-बार नये सिरे से यही बताता है। लोकतंत्र में यह स्थिति नागरिक समाज की चिंता होती है, सरकार और विपक्ष की चिंता से राई-रत्ती कम नहीं होती है। आगे! आगे क्या होगा? आगे जनता मालिक है।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)