आर्थिक बराबरी का संघर्ष राजनीतिक लोकतंत्र की रक्षा का जरूरी हथियार

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वैसे तो संघ भाजपा के लोग मस्जिद और दरगाहों के नीचे मंदिर तलाशने और सबको सोरोस का एजेंट साबित करने का एक अलग ही विमर्श इस समय समाज में चला रहे हैं। इसी बीच उनकी वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद की बहस में संविधान के प्रस्तावना में शामिल समाजवाद शब्द को खारिज किया।

मोदी  राज में जिस तरह भारत दुनियां  का सर्वाधिक गैर बराबरी वाला समाज बन गया है, उनके नेताओं द्वारा समाजवाद को खारिज करना स्वाभाविक ही है। दरअसल इन दोनों के बीच गहरा रिश्ता है।

अभूतपूर्व आर्थिक गैरबराबरी, बेरोजगारी, महंगाई जैसे जीवन के वास्तविक सवालों से ध्यान बंटाना ही एकमात्र रास्ता है, जिससे ऐसी जनविरोधी सरकार राज कर सकती है। इसके लिए विभाजनकारी और नफरती एजेंडा को लगातार धार देते रहना जरूरी है।

पिछले दिनों फ्रांस के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी भारत में थे। वे इनइक्वलिटी लैब और वर्ल्ड इनइक्वलिटी डेटाबेस के सह-संस्थापक हैं।

पिकेटी पूरी दुनियां में आर्थिक गैर बराबरी के गंभीर और लोकप्रिय अध्येता हैं। भारत जो दुनियां के सर्वाधिक गैर बराबरी वाले देशों में अव्वल है, उसके बारे में उन्होंने Delhi School Of Economics में वक्तव्य दिया।

आर्थिक बराबरी के विरुद्ध दिए जाने वाले तमाम तर्कों को उन्होंने खारिज किया और चीन से भारत की तुलना करते हुए अमीरों पर टैक्स लगाने की जोरदार वकालत की,”कई बार यह सुनता हूं… हमें असमानता के बारे में चिंतित होने से पहले अमीर बनने का इंतजार करना चाहिए, और यह असमानता एक प्रकार से अमीर देश का विशेषाधिकार या अमीर देश की चिंता है।

लेकिन यह वह सच नहीं है जो इतिहास हम को बताता है। यदि आप असमानता को जल्दी कम नहीं करते हैं, तो आप एक जाल में फंस गए हैं, जहां आबादी के एक बड़े हिस्से की बुनियादी वस्तुओं और अवसरों तथा संपत्तियों तक पहुंच नहीं होगी।”

यहां पर उनका इशारा भारत की तरफ ही था। क्योंकि भारत में बुनियादी सुविधाओं (स्वास्थ्य और शिक्षा) पर सबसे कम खर्च किया जाता है। भारत के अरबपतियों से अगर भारत में कुल कर राजस्व सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 80% होता, तो हां, उस तर्क में बहुत दम होता।

लेकिन 13% जीडीपी के साथ, मुझे लगता है कि भारत के विकास के लिए सार्वजनिक बुनियादी ढांचे, सार्वजनिक पूंजी, मानव पूंजी की कमी है। अगर बहुत अधिक विकास के लिए आप जीडीपी का 80% रखते, तो आप पहले से ही एक बहुत ही उत्पादक अर्थव्यवस्था होते क्योंकि आपके पास पहले से ही बहुत कम टैक्स है।

मेरा मतलब है, यदि आप अन्य देशों से तुलना करें, तो आपके पास दुनिया में सबसे कम टैक्स राजस्व है।”

“यानी निजी क्षेत्र के अरबपतियों पर बहुत कम टैक्स है और वसूली भी पारदर्शी तरीके से नहीं होती तो भारत का टैक्स राजस्व इसीलिए कम भी है।”

पिकेटी ने कहा, 1960, 1970 और अब के भारत के बीच का अंतर “अरबपतियों की संपत्ति का एक ऐसा स्तर है, जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा है।”

उन्होंने कहा, बहुत कम संख्या में दिखाई देने वाले व्यक्तियों पर ध्यान केंद्रित करके सरकार पर्याप्त कर राजस्व प्राप्त कर सकती है। यहां पर उनका आशय उन अरबपति अमीरों की तरफ है जो अपनी आमदनी छिपाते हैं, जो टैक्स की चोरी करते हैं। बैंकों से लोन लेते हैं और सरकार उनका कर्ज माफ कर देती है। 

“मैं चाहूंगा कि भारत सरकार कुछ बहुत ही सरल काम करे। वो ये डेटा प्रकाशित करे कि पिछले 10 वर्षों में 100 सबसे बड़े अमीर भारतीयों ने कुल कितना इनकम टैक्स चुकाया है। हमें बताया जाए कि यह आज उनकी कुल संपत्ति का कितना हिस्सा है”।

“और मुझे लगता है कि जवाब होगा, 1% से भी कम। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उन पर 100% या 90% टैक्स लगाया जाना चाहिए। शायद उन पर 10%, 20% टैक्स लगाया जाना चाहिए। लेकिन हमें इस बारे में चर्चा करने की जरूरत है।”

पिकेटी ने चीन का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि चीन में शिक्षा पर खर्च, स्वास्थ्य पर खर्च, सार्वजनिक बुनियादी ढांचे पर खर्च किया गया और उसका लाभ आम लोगों तक पहुंचाया गया। वहां के उच्च आय वर्ग पर ज्यादा टैक्स लगाकर उसे बुनियादी चीजों पर खर्च किया गया।

पिकेटी ने कहा, “और यह तभी मुमकिन हुआ जब वहां 15 साल पहले निम्न स्तर से इसकी शुरुआत हुई थी। आज स्थितियां बदल चुकी हैं।”

दरअसल ऐसे ही सुझाव देश के अंदर प्रो प्रभात पटनायक जैसे लोग लंबे समय से दे रहे हैं। एक ओर आर्थिक सत्ता का  अभूतपूर्व संकेद्रण है, दूसरी ओर हमारी विराट आबादी न्यूनतम नागरिक अधिकारों, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार से वंचित है।

प्रो प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 2% सुपर टैक्स अगर 167 सबसे बड़े धनवानों पर लगा दिया जाय, तो यह संपूर्ण राष्ट्रीय आय का 0.5% हो जाएगा और इससे सबके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण की व्यवस्था हो सकती है।

आर्थिक संकेद्रण के राजनीतिक परिणाम सुस्पष्ट हैं। आर्थिक सत्ता जिनके हाथ में केंद्रित है, वह अकूत सम्पदा उनके संरक्षक राजनीतिक आकाओं की बदौलत ही संभव हुई है। इसलिए बदले में वे उन्हीं राजनीतिक ताकतों को सत्ता में बनाए रखने के लिए सभी संभव उपाय करते है।

इसमें एक प्रमुख साधन मीडिया है। पिछ्ले दस साल से हम मीडिया का जो हाल देख रहे हैं, वह इसी परिघटना का परिणाम है।मीडिया पूरी तरह से सत्ताधारी दल का भोंपू बन गया है।

दूसरा इसका सबसे गंभीर परिणाम राजनीति में धनबल का प्रभाव बढ़ने के रूप में सामने आया है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इस बार लोकसभा चुनाव लड़ने वालों में प्रत्येक 3 उम्मीदवारों में एक करोड़पति था, वहीं जीतने वालों में इस बार 93% करोड़पति हैं, जबकि 2014 में इनकी संख्या 82% थी और 2019 में यह बढ़कर 88%हो गई थी।

अब और बढ़कर 93% तक पहुंच गई है। ADR की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि एक औसत सांसद की कुल संपत्ति 15 साल में 7 गुना बढ़ गई है। यह तो खैर सांसदों की  व्यक्तिगत बात है। इलेक्टोरल बॉन्ड का जो मामला सामने आया है, उससे साफ है कि कारपोरेट घरानों ने तमाम पार्टियों को अकूत धन दिया है, बेशक उसका सबसे बड़ा हिस्सा शासक पार्टी को मिला है जिसने यह योजना अपने हित में शुरू की थी।

यह स्पष्ट है कि धनबल के संकेद्रण ने हमारे राजनीतिक लोकतंत्र के लिए भी खतरा पैदा कर दिया है, जिसकी चेतावनी अपने अंतिम भाषण में डॉ अम्बेडकर ने दिया था कि अगर देश में सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हो पाया तो राजनीतिक लोकतंत्र भी जिंदा नहीं रह पाएगा।

संविधान के 75 वर्ष पूरे होने पर संसद में चली बहस ने डॉ अम्बेडकर की भविष्यवाणी को पुष्ट ही किया है। अमित शाह ने तो उनका अपमान किया ही, मोदी समेत सत्ता पक्ष के तमाम वक्ताओं के वक्तव्यों में भारत में सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना की कोई चिंता नहीं झलकती।

उल्टे अडानी जैसों के हाथों आर्थिक सत्ता के चरम केंद्रीकरण से ध्यान हटाने के लिए वे सोरोस जैसों का भूत खड़ा करते हैं और विपक्ष को देशद्रोही साबित करने में लग जाते हैं। जाहिर है आर्थिक बराबरी के लिए संघर्ष राजनीतिक लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई से अविभाज्य है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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